इस लोक में बाउल ------------------

जब ये दुनिया बनी होगी तब यहाँ कोई जाति नही रही होगी | उस वक्त इन्सान शायद वनों में विचरण करते रहे होगे जैसे जैसे विकास होता गया लोग यहाँ आपस में बटते गये और यहाँ तक बटे अब वो धर्मो पे आधारित हो गये पर आज भी पुरानी परम्पराओं में कुछ बाते ऐसी है जहा धर्म नाम की कोई चीज जब आती है तो वो शून्य हो जाती है ऐसे ही इसे एक लोक कला कहे या यू कहे कि इस कला को सूफियो ने विकसित किया और उस विकास क्रम में सारी चीजो से उठाकर सूफी जीता है इसमें हिन्दू -- मुस्लिम के भेद से कही उपर लोक गायक बाउल सूफी परम्परा और अध्यात्म पथ के राही है ये बाउल सूफी फकीर बंगाल की लोकल ट्रेनों में , वहा की गलियों में और लोक संस्कृति के उत्सव में बाउल के दर्शन और उनके गायन से सबका परिचय स्वाभाविक है |
सोलहवी शताब्दी के पूर्व शुरू हुई बाउल गीत -- संगीत की परम्परा हाल के वर्षो में उपेक्षित होकर बंगभूमि और उसके आसपास अपनी पूरी लय में उपस्थित रही है | बाउल की प्रकृति को समझना आवश्यक है | एक साथ ही बाउल पर यदि चैतन्य महाप्रभु की छाया है तो कबीर और चंडीदास का भी प्रभाव इसमें दिखाई पड़ता है | इनकी पूरी आध्यात्मिक यात्रा में सहजिया वैष्णोवो का असर अधिक है | अलमस्त - बेसुधी यदि सूफियो से मिली है तो प्रेम का बेसुध रंग चैतन्य महाप्रभु की देंन है | संत साहित्य में सामाजिक चेतना प्रबल थी और बाउल की समस्त परम्परा में भी इसकी छाप बहुत गहरी है | बाउल में हिन्दू मुसलमान का कोई भेद नही है | हिन्दू भी बाउल है और मुसलमान भी | इस परम्परा के प्रथम गुरु लालन फकीर अक्सर दुहराते थे '' जन्मते हुए , मरते हुए मैंने कभी जात नही देखि '' दो टके की ताबीज पहनकर कोई मुसलमान हो जाता है तो जनेऊ पहनकर हिन्दू ' | वे आक्रोशित होकर अपने गीतों के माध्यम से यह सन्देश देते थे , '' बाजार में अगर जात -- पात से घिरी मनुष्यता मैंने पायी होती तो मैं उसे जला डालता | ' बाउल कर्मयोगी है | वे भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन नही करते | इनके पहले गुरु लालन फकीर स्वंय पान की दूकान चलाते थे | लगभग बीस वर्षो की कठिन साधना के बाद उपेन्द्रनाथ दास ने इनके जीवन पर अपनी पुस्तक तैयार की थी | क्षितिजमोहन सेन , सौमेंद्र्नाथ बंधोपाध्याय , रविन्द्र ठाकुर और धर्मवीर भारती ने बाउल के जीवन और संदेश पर काम किया | हाल के वर्षो में हिन्दी में सबसे समृद्द काम शान्तिनिकेतन के आचार्य डा हरिश्चन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक '' बंगाल के बाउल और उनका काव्य '' में किया है | एक बात और चित्रकार यामनि राय ने बंगाल के इन बाऊलो के जीवन पर कई शानदार पेंटिग बनाई है जो रंगों के चितेरो के लिए आदर्श है | बाऊलो की तंत्र साधना में ' मोनेर मानुष '' व्याख्यायित है | भारतीय दर्शन का पुरुष चैतन्य स्वरूप है | चैतन्य उसका स्वभाव है | वह साक्षी चैतन्य स्वरूप है तथा जीवात्मा में भी इसी का चैतन्य प्रकाशित है | बाउल प्रकृति इनकी साधना पूर्ण नही होती | ईश्वर को ये अपने भीतर मानते है -- '' मोनेर मानुष '' | ईश्वर मनुष्य रूप में मन का पुरुष होता है | जैसे कबीर ने जीवात्मा का स्वतंत्र रूप अस्वीकार किया | वे परमात्मा को परमतत्व का ही लघु रूप मानते थे | कबीर ने जीवात्मा एवं परमात्मा के इस अद्दैत बहाव को बूंद और समुद्र के उदाहरण के साथ समझाया | कबीर ने माना कि ब्रम्ह का साक्षात्कार होने पर आत्मा -- परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में पूर्णतया लींन हो जाता है | इनका फिर अलग अस्तित्व नही रह जाता है |बाउल का दर्शन भी रूप से स्वरूप की ओर आगे बढ़ता है | कृष्ण रूप है , राधा स्वरूप | कृष्ण और राधा का द्दैत ' मोनेर मानुष '' को आनन्दित करता है | इनकी परम्परा में रजस्वला स्त्री की पूजा होती है | सहजिया वैष्णोवो के साथ ही सूफी प्रभाव से ओर्त -- प्रोत बाउल के परम्परा में गुरु का महत्व है | भक्तिकाल में नाथ साहित्य में भी गुरु की महत्ता स्वंयसिद्द है | नाथ पंथियों ने वैराग्य से मुक्ति संभव मानी है | वैराग्य गुरु की कृपा से मिलता है इसे भी माना इसलिए गुरुदीक्षा एवं गुरु मन्त्र का वहा मोल है | अंतर यह है कि नाथ परमरा में नारी से दूरी है जबकि बाउल में सामीप्य | बाऊलो के लिखित इतिहास का घोर आभाव है | जनश्रुति ही मुख्य आधार है | कहते है बाउल कवि लालन फकीर की मृत्यु के बाद गीत आदि संग्रह पर कुछ काम हुआ | उसके पहले इस ओर किसी का विशेष ध्यान नही रहा | सन्यासी बाउल सफेद वस्त्र पहनते है और महिलाये सफेद साडी | शेष गेरुआ | महिला सन्यासिनी सेवादासी के रूप में होती है | यूनेस्को ने 2005 में इस गायन परम्परा को '' मानवता की अमूर्त धरोहर '' के रूप में पहचान दी | सूफी प्रभाव से युक्त बाउल की परम्परा में कही जाति का भेद नही है | हिन्दू -- मुसलमान का भेद नही है | हम जानते है कि सूफी दर्शन के सबसे बड़े कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने भी इस भेद को दरकिनार किया था | मुल्ला दाउद , कुतुबन , जायसी मंझन नूर मुहम्मद जैसे संतो कवियों ने हिन्दुओ में प्रचलित प्रेम कहानियों को कथानक तक बनाया | जायसी ने तो पदमावती को परमात्मा मानकर उसके रूप सौन्दर्य की छटा संसार को दिखाई | जायसी की मान्यता थी कि '' इश्क मिजाजी '' यानी लौकिक प्रेम को पाया जा सकता है | सूफी कवि जायसी के रचना में गोता लगाये तो हमे भी वह भाव मिलेगा जो मन के मानुष की खोज की ओर इशारा करता है | जायसी ने सिंहलद्दीप की राजकुमारी पदमावती के प्रेम का चित्रण किया है | चितौड़गढ़ के राजा रत्नसेन यहाँ जीवात्मा का प्रतीक है और पदमावती परमात्मा का | जायसी का मत है कि प्रेम की चिनगारी यदि हृदय में पड़ गयी और उसे सुलगाते बन पडा तो उस अद्भुँत अग्नि से सारा लोक विचलित हो जाता है | भगवत प्रेम की यह चिनगारी गुरु हृदय में डालता है लेकिन उसे सुलगाने का काम साधक करता है | जायसी मुसलमान थे लेकिन पदमावती में उन्होंने हिन्दू की होली , दीवाली जैसी परम्परा और पौराणिक आख्यानो का भरपूर सहारा लिया | देवी पूजन का लोकाचार , राम -- कृष्ण अर्जुन सब इस मुस्लिम कवि की धारा में प्रवाहित है , पूज्य है | हम सब परमशक्ति के उपहार है | हमारा शरीर एक मंदिर है और संगीत का पथ ही हमे परमशक्ति से मिला सकता है | इस धारणा वाली बाउल परम्परा पर रविन्द्रनाथ ने अपमी यूरोप यात्रा के क्रम में अनेको जगहों पर व्याख्यान में दिया | उनके रविन्द्र संगीत में इसकी गहरी छाप है | '' द रिलिजन आफ मैंन '' पुस्तक में भी इस विषय पर उन्होंने प्रकाश डाला है |
आमी कोथाय पाबो तारे .............. आमार मोनेर मानुष जे रे .................. बाउल की इन पंक्तियों को रविन्द्रनाथ ने अपने साहित्य और संगीत दोनों में समाहित किया है | कहते है कि कवि काजी नजरुल इस्लाम की कविताओं पर भी इसकी छाया है | बाउल अपने गायन में एकतारा बजाते है | इसके बिना बाउल की सम्पूर्ण छवि नही बनती है | एक तारा और बाउल एक -- दुसरे के पूरक है | एक को छोड़ दूसरे का अस्तित्व नही है | भारत के साथ ही बांग्लादेश में भी इनकी परम्परा समादृत है | वहा के कुश्तिया में प्रत्येक वर्ष फरवरी मार्च में '' लालन स्मृति '' उत्सव मनाया जाता है | इस परम्परा और दर्शन के संरक्ष्ण के लिए वहा की संस्था '' बाउल समाज उन्नयन संघ '' सक्रिय है | '' बंगलादेश शिल्पकला अकादमी '' इस परम्परा पर राष्ट्रीय -- अन्तराष्ट्रीय स्तर का सेमीनार करती रहती है | विश्व भारती विश्व विद्यालय शान्तिनिकेतन के चतुर्दिक बाउल ही बाउल जुटते है | कई दिनों के मेले में हर दिन इनका उत्सव होता है | '' लोक '' और '' राज '' का यह द्दैत निश्चय ही लालन फकीर ( बाउल गुरु ) की इस यात्रा को नया स्वरूप देगी और हमारे बीच हमेशा जीवित रहेगा | सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक साआभार --- दैनिक जागरण

No comments:

Post a Comment