कूका विद्रोह और उसके नायक रामसिंह ................................भगत सिंह

{ शहीद भगत सिंह ने राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन के नायको के जीवन और उनके क्रांतिकारी क्रिया कलाप , त्याग व बलदान पर श्रृखलाबद्ध लेख लिखा था | कूका विद्रोह और उसके महानायक राम सिंह पर उन्होंने दो लेख लिखे थे | पहला लेख फरवरी 1928 में उन्होंने बी . ए. सिधु के नाम से दिल्ली से प्रकाशित '' महारथी '' और दूसरा लेख अक्तूबर 1928 में विद्रोही के नाम से किरति '' नामक पत्रिका में लिखा था | एक और बात -- कूका विद्रोह के महानायक राम सिंह से देश के धर्मज्ञो और धर्म गुरुओं से लेकर नए पुराने धर्म के अनुयायियों को भी सीख लेनी चाहिए और वह भी वर्तमान राष्ट्रीय व सामाजिक संदर्भो में | आज विदेशी शक्तिया पुन: देश के हर क्षेत्र में अधिकाधिक व आधिकारिक रूप से घुसपैठ करती जा रही है | इसके फलस्वरूप देश के बहुसंख्यक जनसाधारण का जीवन निरंतर तबाही व बर्बादी की दिशा में बढ़ता जा रहा है | इस दिशा में उसे विदेशी साम्राज्यी शक्तियों के अलावा देश के हर धर्म सम्प्रदाय के धनाढ्य व उच्च हिस्सों द्वारा ढकेला जा रहा है | इसीलिए वर्तमान दौर में कूका विद्रोह और गुरु राम सिंह के बारे में भगत सिंह का लेख पढने के लिए ही नही पढ़ा जाना चाहिए , बल्कि उसे अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे देशो और उनकी पूंजी तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल से राष्ट्र व समाज की मुक्ति संघर्ष के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए ............................आज हम पंजाब के तख्ता पलटने के आन्दोलन और राजनितिक जागृति का इतिहास पाठको के सामने रख रहे है | पंजाब में सबसे पहली राजनितिक हलचल कूका आन्दोलन से शुरू होती है | वैसे तो वह आन्दोलन साम्प्रदायिक -- सा नजर आता है , लेकिन जरा गौर से देखे तो वह बढा भारी राजनैतिक आन्दोलन था , जिसमे धर्म भी मिला था जिस तरह कि सिक्ख आन्दोलन में पहले धरम और राजनीति मिली -- जुली थी | खैर हम देखते है कि हमारी आपस की साम्प्रदायिक और तंगदिली का यही परिणाम निकलता है कि हम अपने बड़े -- बड़े महापुरुषों को इस तरह भूल जाते है जैसे कि वे हुए ही न हो | यही स्थिति हम हम अपने बड़े भारी महापुरुष '' गुरु राम सिंह के सम्बन्ध में देखते है | हम '' गुरु नही कह सकते और वे गुरु कहते है , इसीलिए हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नही -- आदि बाते कहकर हमने उन्हें दूर फेंक रखा है | यही पंजाब का सबसे बड़ा घाटा है | बंगाल के जितने भी बड़े -- बड़े आदमी हुए है , उनकी हर साल बरसिया मनाई जाती है , सभी अखबारों में उन पर लेख दिए जाते है , यह समझा जाता है कि मौक़ा मिला तो इस पर विचार करेंगे |पंजाब को सोए थोड़े ही दिन हुए थे , लेकिन नीद बड़ी गहरी आई | हालाकि अब फिर होश आने लगा है | बड़ा भारी आन्दोलन उठा | उसे दबाने की कोशिश की गयी | कुछ ईश्वर ने स्थिति भी ऐसी ही पैदा कर दी --- वह आन्दोलन भी कुचल दिया गया | उस आन्दोलन का नाम था'' कूका आन्दोलन'' | कुछ ध्रामिक , कुछ सामाजिक रंग -- रूप रखते हुए भी वह आन्दोलन एक तख्ता पलटने का नही , युग पलटने का था | चूकी अब इन सभी आंदोलनों का इतिहास यह बताता है कि आजादी के लिए लड़ने वाले लोगो का एक अलग ही वर्ग बन जाता है , जिनमे न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओ -- जैसा दुनिया का त्याग ही | जो सिपाही तो होते थे लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नही , बल्कि सिर्फ अपने फर्ज के लिए या किसी काम के लिए कहे , वे निष्काम भाव से लड़ते और मरते थे | सिक्ख इतिहास यही कुछ था | मराठो का आन्दोलन भी यही कुछ बताता है | राणा प्रताप के साथी राजपूत भी इसी तरह के योद्धा थे | बुन्देलखंड के वीर छत्रसाल के साथी भी ऐसे थे |ऐसे ही लोगो का वर्ग पैदा करने वाले बाबा रामसिंह ने प्रचार और संगठन शुरू किया | बाबा रामसिंह का जन्म 1824 में लुधियाना जिले के भैणी गाँव में हुआ | आपका जन्म बढ़ई घराने में हुआ था | जवानी में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की | ईश्वर -- भक्ति अधिक होने से नौकरी -- चाकरी छोड़कर गाँव जा रहे | नाम का प्रचार शुरू कर दिया |1857 के गदर में जो जुल्म हुए वे सब देखकर और पंजाब की गद्दारी देखकर कुछ असर जरुर हुआ होगा | किस्सा यह है कि बाबा रामसिंह जी ने उपदेश शुरू करवा दिया | साथ -- साथ बताते गये कि फिरंगियों से पंजाब की मुक्ति जरूरी है | उन्होंने तब उस असहयोग का प्रचार किया , जैसे वर्षो बाद 1920 में महात्मा गांधी ने किया | उनके कार्यक्रम में अंग्रेजी राज की शिक्षा , नौकरी अदालतों आदि का और विदेशी चीजो का बहिष्कार तो था ही , साथ में रेल और तार का भी बहिष्कार किया गया |पहले -- पहले सिर्फ नाम का ही उपदेश होता था | हां यह जरुर कहा जाता था कि शराब -- मांस का प्रयोग बिलकुल बंद कर दिया जाए | लडकिया आदि बेचने जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी प्रचार होता था , लेकिन बाद में उनका प्रचार राजनितिक रंग में रंगता गया |पंजाब सरकार के पुराने कागजो में एक स्वामी रामदास का जिक्र आता है , जिसे कि अंग्रेजी सरकार एक राजनितिक आदमी समझती थी और जिस पर निगाह रखी जाती थी | 1857 केबाद जल्द ही उसके रूस की ओर जाने का पता चला है | बाद में कोई खबर नही मिलती | उसी आदमी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसने एक दिन बाबा रामसिंह से कहा कि अब पंजाब में राजनितिक कार्यक्रम और प्रचार की जरूरत है | इस समय देश को आजाद करवाना बहुत जरूरी है | तब से आपने स्पष्ट रूप से अपने उपदेश में इस असहयोग को शामिल कर लिया1863 में पंजाब सरकार के मुख्य सचिव रहे टी .डी. फार्सिथ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1863 में ही मैं समझ गया था कि यह धार्मिक -- सा आन्दोलन किसी दिन बड़ा गदर मचा देगा | इसीलिए मैंने भैणी के उस गुरुद्वारे में ज्यादा आदमियों का आना -- जाना और इकठ्ठे होना बन्द कर दिया | इस पर बाबा जी ने भी अपना काम का ढंग बदल लिया | पंजाब प्रांत को 22 जिलो में बाट लिया | प्रत्येक जिले में एक -- एक व्यक्ति प्रमुख नियुक्त किया गया , जिसे '' सूबा '' कहा जाता था | अब उन्होंने '' सूबों '' में प्रचार और संगठन का काम शुरू किया | गुप्त तरीको से आजादी का भी प्रचार जारी रखा | संगठन बढ़ता गया , प्रत्येक नामधारी सिक्ख अपनी आय का दसवा हिस्सा अपने धर्म के लिए देने लगा | बाहर का हंगामा बंद हो जाने से सरकार का शक दूर हो गया और 1869 में सभी बंदिशे हटा ली गयी | बंदिशे हटते ही खूब जोश बढ़ा |एक दिन कुछ कूके अमृतसर में से जा रहे थे | पता चला कि कुछ कसाई हिन्दुओं को तंग करने के लिए उनकी आँखों के सामने गोहत्या करते है | गाय के तो वे बड़े भक्त थे | रातो -- रात सभी कसाइयो को मार डाला गया और रास्ता पकड़ा | बहुत से हिन्दू पकडे गये | गुरु जी ने पूरी कहानी सुनी | सबको लौटा दिया कि निर्दोष व्यक्तियों को छुडाये और अपना अपराध स्वीकार करे | यही हुआ और वे लोग फांसी चढ़ गये | ऐसी ही कोई घटना फिरोजपुर जिले में भी हो गयी थी | फांसियो से जोश बढ़ गया | उस समय उन लोगो के सामने आदर्श था पंजाब में सिख -- राज स्थापित करना और गोरक्षा को वे अपना सबसे बढ़ा धर्म मानते थे | \इसी आदर्श की पूर्ति के लिए वे प्रत्यन करते रहे |13 जनवरी 1872 को भैणी में माघी को मेला लगने वाला था | दूर -- दूर से लोग आ रहे थे | एक कूका मलेर कोटला से गुजर रहा था | एक मुसलमान से झगड़ा हो जाने से वे उसे पकड़कर कोतवाली में ले गये और उसे बहुत मारा पिटा व एक बैल की हत्या उसके सामने की गयी | वह बेचारा दुखी हुआ भैणी पंहुचा | वह जाकर उसने अपनी व्यथा सुनाई | लोगो को बहुत जोश आ गया | बदला लेने का विचार जोर पकड गया | जिस विद्रोह का भीतर -- भीतर प्रचार किया गया था , उसे कर देने का विचार जोर पकड़ने लगा , लेकिन अभी मनचाही तैयारी भी नही हुई थी | बाबा रामसिंह ऐसी स्थिति में क्या करते ? यदि उन्हें मना करते है तो वे मानते नही और यदि उनका साथ देते है तो सारा किया -- धरा तबाह होता है | क्या करे ? आखिर जब 150 आदमी चल ही पड़े तो आपने पुलिस को खबर भेज दी कि यह व्यक्ति हंगामा कर रहे है और शायद कुछ खराबी करे मैं जिम्मेदार नही हूँ | ख्याल था कि हजारो आदमियों के संगठन में से सौ---- डेढ़ सौ आदमी मारे गये और बाकी संगठन बचा रहे तो यह कभी तो पूरी हो जायेगी और जल्द ही फिर पूरी तैयारी होने से विद्रोह हो सकेगा | लेकिन हम यह देखते है कि परिणाम से तय होता है कि तरीके जायज थे या नाजायज का सिद्धांत राजनीति के मैदान में प्राय: लागू होता है | अर्थात यदि सफलता मिल जाए तब तो चाल नेकनीयती से भरी और सोच -- समझकर चली गयी कहलाती है और यदि असफलता मिले तो बस फिर कुछ भी नही | नेताओं को बेवकूफ , बदनीयत आदि खिताब मिलते है | यही बात यहाँ हम देखते है | जो चाल बाबा रामसिंह ने अपने आन्दोलन से बचने के लिए चली , वह कयोंकि सफल नही हुई , इसीलिए अब कोई उन्हें कायर और बुजदिल कहता है और कोई बदनीयत व कमजोर बताता है | खैरहम तो समझते है कि वह राजनीति के एक चाल थी | उन्होंने पुलिस को खबर कर दी ताकि वे कोई ऐसा इलाज कर ले जिससे कोई बड़ी खराबी पैदा न हो , लेकिन सरकार उनके इस भारी आन्दोलन से डरती थी और उसे पीस देने का अवसर खोज रही थी | उसने कोई ख़ास कार्यवाही न की और उन्हें मर्जी अनुसार जाने दिया |लेकिन 11 जनवरी के पात्र में डिप्टी कमिश्नर लुधियाना मि कावन कमिशनर को लिख भेजी कि रामसिंह ने उन लोगो से अपने सम्बन्ध न होने की बात जाहिर की है और उनके सम्बन्ध में हमे सावधान भी कर दिया है | खैर वे 150 नामधारी सिंह बड़े जोश -- खरोश में चल पड़े |जब वे 150 व्यक्ति वह से बदला लेने के विचार से चल पड़े तो पुलिस को पहले से बताया जा चुका था , लेकिन सरकार ने कोई इंतजाम नही किया | क्यों ? कयोकी वे चाहते थे कि कोई छोटी -- मोटी गड़बड़ हो जाए , जिससे कि वे उस आन्दोलन को पीस दे | सो वह अब मिल गया | वे कूके वीर उस दिन तो पटियाला राज्य की सीमा पर एक गाँव रब्बो में पड़े रहे | अगले दिन भी वही टिके रहे | 14 जनवरी 1872 की शाम को उन्होंने मलोध के किले पर धावा बोल दिया | यह किला कुछ सिक्ख सरदारों का था , लेकिन इस पर हमला क्यों किया ? इस सम्बन्ध में डिस्ट्रिक गजेटियर में लिखा है कि उन्हें उम्मीद थी कि मलोध सरकार उनके विरोध की नेता बनेगी , लेकिन उन्होंने मना कर दिया और इन्होने हमला कर दिया | बहुत संभव है कि बाबा रामसिंह की बड़ी भारी तयारी में मलोध सरकार ने मदद देने का वादा किया हो , लेकिन जब उन्होंने देखा कि विद्रोह तो पहले से ही हो गया है और बाबा रामसिंह भी साथ नही है और पूरी संगत भी नही बुलाई गयी है तो उन्होंने मना कर दिया होगा | खैर! जो भो वह लड़ाई हुई | कुछ घोड़े हथियार और तोपे ले वे वह से चले गये | दोनों ओर के दो -- दो आदमी मारे गये और कुछ घायल हुए |अगले दिन सवेरे 7 बजे वे मलेर कोटला पंहुचे गये |अंग्रेजी सरकार ने मलेर कोटला सरकार को पहले सूचित कर रखा था | उपर बड़ी तैयारिया की गयी थी | सेना हथियार लिए कड़ी थी लेकिन इन लोगो ने इतने बहादुरी से हमला किया कि सेना और पुलिस में कुछ वश न रहा | हमला कर वे शहर में घुस गये और जाकर महल पर हमला कर दिया | वह भी सेना उन्हें नही रोक पायी | वे जाकर खजाना लूटने की कोशिश करने लगे | लूट ही लिया जाता , लेकिन दुर्भाग्य से वे एक और दरवाजा तोड़ते रहे जिससे कि उनका बहुत -- सा समय नष्ट हो गया और भीतर से कुछ भी न मिला | उधर से सेना ने बड़े जोर से धावा बोल दिया | आखिर लड़ते -- लड़ते वहा से लौटना पडा | उस लड़ाई में उन्होंने 8 सिपाही मारे और 15 को घायल हो गये | उनके सात आदमी मारे गये | वहा से भी कुछ हथियार और घोड़े लेकर भाग निकले | आगे -- आगे वे और पीछे -- पीछे मलेर कोटला की सेना |वे भागते जा रहे थे | और लड़ते जा रहे थे | उनके और कई आदमी घायल हो गये और वे उन्हें भी साथ ही उठा ले जाते थे | आखिर कार पटियाला राज्य के रुड गाँव में ये पहुंचे और जंगल में छिप गये | कुछ घंटो के बाद शिवपुर के नाजिम ने फिर हमला बोल दिया | लड़ाई छिड़ गयी पर बेचारे कूके थके -- हारे थे | आखिर 68 व्यक्ति पकड लिए गये | उनमे से दो औरते थी , वे पटियाला राज को दे दी गयी |अगले दिन मलेर कोटला लाकर तोप गाड दी गयी और एक -- एक कर 50 कूके वीर तोप के आगे बाँध -- बंद कर उड़ा दिए गये | हरेक बहादूरी से अपनी -- अपनी बारी पर तोप के आगे झुक जाता और सतत श्री अकाल कहता हुआ तोप से उड जाता | फिर कुछ पता नही चलता कि वह किस संसार में चला गया | इस तरह 49 व्यक्ति उड़ा दिए गये | पचासवा एक तेरह साल का लड़का था | उसके पास झुकर डीपटी कमिशनर ने कहा कि बेवकूफ रामसिंह का साथ छोड़ दे , तुम्हे माफ़ कर दिया जाएगा | लेकिन वह बालक यह बात सहन नही कर सका और उछलकर उसने कावन की दाढ़ी पकड ली और तब तक नही छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ न काट दिए गये | बाकी 16 आदमी अगले दिन मलोध जाकर फांसी पर लटका दिए गये | उधर बाबा रामसिंह को उनके चार सूबों के साथ गिरफ्तार करके पहले इलाहाबाद और बाद में रंगून भेज दिया गया | यह गिरफ्तारी ( रेगुलेशन ) 1818 के अनुसार हुई |जब यह खबर देश में फैली तो और लोग बहुत हैरान हुए कि यह क्या बना | विद्रोह शुरू करके बाबा जी ने हमे भी क्यों न बुलाया और सैकड़ो लोग घर -- बार छोड़कर भैणी की ओर चल पड़े | एक गिरोह जिसमे १७२ आदमी थी , कर्नल वायली से मिला | वह अधीक्षक था | उसने झट उन्हें भी गिरफ्तार करवा लिया | उनमे से 120 को तो घरो को लौटा दिया , लेकिन 50 ऐसे थे कि कोई घरबार नही था | वे सब सम्पत्ति आदि बेचकर लड़ने -- मरने के लिए तैयार थे | उन्हें जेल में डाल दिया | इस तरह वह आन्दोलन दबा दिया गया और बाबा रामसिंह का पूरा यत्न निष्फल हो गया | बाद में देश में जितने कूके थे वे सभी एक तरह से नजरबंद कर दिए गये | उनकी हाजरी ली जाती थी | भैणी साहिब में आम लोग का आना -- जाना बंद कर दिया गया | ये बंदिशे 1920 में आकर हटाई गयी | यही पंजाब की आजादी के लिए दी गयी सबसे पहली कोशिश का संक्षित इतिहास है |................................... .......सुनील दत्ता ...पत्रकार

महान वैज्ञानिक गैलिलियो

उनकी इस देंन के लिए मानव जाति उनकी ऋणी है और ऋणी रहेगी - महान वैज्ञानिक गैलिलियो
( दीवाल घड़ी के पेन्डुलम , प्लस मीटर ( नाडी स्पन्दनमापी ) , प्रारम्भिक थर्मामीटर ,
दूरदर्शी ( टेलिस्कोप ) के महान आविष्कारक गैलिलियो )
गैलिलियो का पूरा नाम गैलिलियो गैलिली था | उनका जन्म 14 फरवरी 1564 में इटली के पीसा नगर में हुआ था | पीसा नगर दुनिया के आश्चर्यजनक निर्माणों में शामिल -- पीसा के मीनार है , जो एक ओर झुकी हुई है | गैलिलियो के पिता अपने समय के विद्वान् थे और वे गैलिलियो को डाक्टर बनाना चाहते थे | लेकिन बचपन से उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा उन्हें एक अन्वेषक व् वैज्ञानिक बनाने का यतन करने लग गयी थी | किशोरावस्था में ही उन्होंने पेन्डुलम का सिद्दांत प्रस्तुत कर दिया | उसकी शुरुआत गिरजाघर में हुई , जहा वे प्रार्थना के लिए गये थे | गिरजा घर में जंजीर के सहारे एक बड़ा लैम्प लटका हुआ था | हवा के झोके के साथ लैम्प कभी दूर और कभी थोड़ा नजदीक जाकर पुन: अपनी जगह लौट आता था | गैलिलियो ने इस बात को ध्यान से देखा कि चाहे वह लैम्प ज्यादा दूर जाए चाहे कम उसे अपनी जगह वापस आने में उतना ही समय लगता है | समय में कोई अंतर नही आता | गिरजाघर में लैम्प के दूर और नजदीक से वापस आने का समय नोट करने के लिए गैलिलियो ने अपनी नाडी का गति सहारा लिया था | क्योकि उस समय तक समय मापने के लिए घडियो का प्रचलन नही पाया था | इस तरह से गैलिलियो ने अपनी इस खोज से जहा समय मापने के लिए पेन्डुलम की खोज कर दी , वही और उसी के साथ ही नाडी के गति मापने के लिए वे प्लस मीटर के रचना करने में सफल हुए | बाद में गैलिलियो के पुत्र विन्सेजी ने इसी आधार पर समय की माप के लिए पेन्डुलम वाली दीवाल घडियो के कई माडल बनाये | गैलिलियो ने अरस्तु के कथन अनुसार पूरे समाज में प्रचलित इस अवधारणा को भी गलत साबित कर दिया कि अगर दो असमान भार के अर्थात भारी और हल्के वजन के वस्तुओ को एक ही उचाई से गिराया जाए , तो भारी वजन वाली वस्तु पहले और हल्की वजन की वस्तु बाद में जमीन में गिरेगी | गैलिलियो ने दावा किया कि यह बात गलत है | दोनों एक ही समय में जमीन पर गिरेगी | इसे साबित करने के लिए गैलिलियो ने पीसा के मीनार को चुना | वहा के लोग भी इसे देखने के लिए मीनार के नीचे खड़े थे कि क्या गैलिलियो का कहना सही है और उनका आज तक का ज्ञान व विश्वास गलत है ? गैलिलियो ने मीनार की सबसे उची मंजिल से दो असमान भार के गोलों को एक साथ नीचे गिरा दिया | लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि दोनों गोले एक ही साथ पृथ्वी पर गिरे | गैलिलियो का कथन सही और लोगो का अपना ज्ञान -- विश्वास झूठा साबित हुआ | गैलिलियो का यह प्रयोग वस्तुत: उनके पृथ्वी के गुरत्वाकर्षण के उस समय के वौज्ञानिक समझ को प्रदर्शित करता है जिसको अपने पूरे वैज्ञानिक खोज व सिद्दांत के साथ न्यूटन ने लगभग सौ वर्ष बाद प्रस्तुत किया | गैलिलियो ने अपने विद्यार्थी जीवन में गणित के शिक्षा प्राप्त की और बाद में पिडुआ विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक भी बन गये | लेकिन प्राकृतिक घटनाओं और उसके रहस्यों की वैज्ञानिक खोज में वे लगातार लगे रहे | गैलिलियो का तीसरा बड़ा वैज्ञानिक आविष्कार शरीर का ताप मापने वाले प्रारम्भिक थर्मामीटर के निर्माण का रहा है | उनके द्वारा बनाया गया प्रारम्भिक थर्मामीटर का नाम वाटर थ्रमोस्कोप था | इसमें पारे के जगह पानी का उपयोग किया गया था | बाद की शताब्दियों में कई बार सुधार करते हुए इसे आधुनिक थर्मामीटर के रूप में प्रस्तुत किया गया | गैलिलियो ने दूरदर्शी यंत्र के रूप में अपना सबसे बड़ा और महान आविष्कार किया | उन्होंने लगातार और बड़ी मेहनत से ताबे के नलकी के दोनों सिरों पर दूर तक दिखाई पड़ने वाली शीशो को फिट कर संसार के पहले सफल दूरबीन का ईजाद किया | दूरबीन के इस आविष्कार के बाद तो इटली में मानो भूचाल सा आ गया | इसे देखने व जानने के लिए वहा के राजा से लेकर समूचा अभिजात वर्ग उतावला हो उठा पीसा की मीनार पर चढ़कर लोगो ने इस दूरबीन के जरिये दूर समुन्द्र में खड़े जहाजो को उनके वास्तविक दूरी से दस गुना समीप देखा | बाद के दौर में भी गैलिलियो अपनी दूरबीन को विकसित करते रहे | अपने इन्ही प्रयत्नों से बाद में उन्होंने ऐसी दूरबीन बनाई जिससे चाँद -- सितारों को भी देखा जा सकता था | उन्होंने इस दूरबीन की सहायता से आकाशीय रहस्यों का अध्ययन लगातार जारी रखा | लोगो का विचार था कि चाँद -- सितारे चमकदार धातु छोटे बड़े टुकड़े है जिन्हें आकाश में जड़ दिया गया है और उनमे कई सितारे तो पृथ्वी और सूरज से भी बड़े है | अपने इसी यंत्र से गैलिलियो ने अपने से पहले महान वैज्ञानिक कापर निकस के विचारो के पुष्टि भी की | कापर निकस का कहना था कि ब्रह्माण्ड का केन्द्र सूर्य है न कि पृथ्वी | इसीलिए पृथ्वी समेत ब्रह्माण्ड के सभी ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते रहते है | यह अवधारणा वहा ( और इस देश में भी ) प्रचलित अवधारणाओ धार्मिक शिक्षाओं के एकदम विपरीत थी | क्योकि इन अवधारणाओ शिक्षाओं अनुसार सूर्य पृथ्वी के चारो ओर चक्कर काटता है जैसे कि हमे दिखाई भी पड़ता है | सूर्य के स्थिरता तथा उसके चारो ओर पृथ्वी के घुमने के सिद्दांत का प्रतिपादन करने के बाद 1616 में उनके इस प्रतिपादन को धार्मिक विश्वासों के विपरीत घोषित कर दिया गया | इसका अभियोग भी गैलिलियो पर लगाया गया | इस अभियोग को लेकर गैलिलियो को चर्च के पादरी व अन्य धर्माधिकारियो के समक्ष प्रस्तुत होना पडा | धार्मिक संस्थाओं तथा सरकार द्वारा उन्हें अपने इस सिद्दांत को कहने बताने पर रोक लगा दी गयी | 1630 तक गैलिलियो ने इस संदर्भ में कोई बात नही की | लेकिन उसके बाद उन्होंने अपनी पुस्तक '' डायलाग्स क्न्सर्निग टू प्रिसंपल सिस्टम आफ दी वर्ल्ड '' में उन्होंने पुआरनी मान्यता और अपनी नई खोज को एकदम स्पष्ट रूप से प्रकाशित कर दिया | इसी आधार पर उन पर पुन: अभियोग लगाया गया और 70 वर्ष के बूढ़े गैलिलियो को पुन: अदालत आना पडा | धर्माधिकारियो और राज्याधिकारियो ने उन पर दवाव डाला कि अगर वह अपने कथन को झूठा मान ले तो उन्हें माफ़ किया जा सकता है | गैलिलियो अपने सिद्दांत को नकारने के लिए खड़े भी हुए , पर पृथ्वी की ओर देखते हुए धीमे से कहा कि ' पृथ्वी अभी भी सूर्य के चारो ओर घूम रही है | उन्होंने पृथ्वी की ओर देखते हुए धीमे स्वर में पुन: यही दोहराया | फलस्वरूप गैलिलियो को कैद में रखे जाने की सजा हुई | लगभग सात साल बाद अत्यंत वृद्द एवं कमजोर हो गये गैलिलियो को कारागार से मुक्ति मिली | बाद में उनकी आखो की रौशनी जाती रही और 1642 में उनका देहान्त हो गया | लेकिन मानव जाति को दिया गया यह अनमोल अन्वेषण उसके अन्वेषक को सदा सदा के लिए अमर कर दिया | उनकी इस देंन के लिए मानव जाति उनकी ऋणी है और ऋणी रहेगी ................................. ..सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

आरगम -सांस्कृतिक मंच नही यह एक लोक जनान्दोलन, सांस्कृतिक आन्दोलन की धारा है

'' तुम किसी से रास्ता न मागना - तुम पवन की तरह गुजर जाना ''
आरगम 2013 एक नया संकल्प --- लोक जन आन्दोलन , जन संस्कृति , लोक रंग , लोक भाषा का ठेढ़े - मेढ़े कंकरीले , पथरीले जमीन पर लोक रंग , लोक नाट्य जैसी विलुप्त होतो विविध कलाओं को सहेजने के साथ ही भारतीय रंग पटल पर एक जन आन्दोलन , सांस्कृतिक आन्दोलन को दिशा और दशा देते हुए अबाध गति से '' सूत्रधार '' विगत दस वर्षो से सक्रिय लोक नाट्य व लोक रंग आन्दोलन के क्रम में '' आरगम '' 2013 ने स्त्री विमर्श पर प्रश्न खड़ा करने में सफल रहा है | संस्कृति के आलोक को अपने चतुर्दिक प्रकाश फैलाता , घुमक्कड़ शास्त्र के रचयिता महा पंडित राहुल सांकृत्यायन , उर्दू - फ़ारसी अदब के तवारीख अल्लामा शिब्ली नोमानी , नुरजहा जैसा महाकाव्य के प्रणेता गुरु भक्त सिंह भक्त , प्रथम खड़ी बोली के महाकाव्य '' प्रिय प्रवास '' के सर्जक के नाम पर स्थापित '' सांस्कृतिक आन्दोलन '' के गौरवशाली इतिहास को अपने पन्नो पर दर्ज करता हुआ निरंतर जन आन्दोलन को प्रवाह देने वाला खण्डहर होता हरिऔध कला भवन के प्रागण में ''बाजारवादी -- उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्द लोक संस्कृति के विस्तार को गति देता '' आरगम '' का बसाया कला ग्राम बहुत से अनछुए प्रश्न भी छोड़ गया | भारतवर्ष में प्रत्येक प्रदेश की अपनी सांस्कृतिक -- सामाजिक विशेषताए है जो मुख्यत: वहा के लोक - संगीत - लोक नाट्य के माध्यम से व्यक्त होती है | परम्परा के प्रवाह में गतिशील लोक संगीत - लोक नाट्य से ही उस क्षेत्र -- विशेष की राष्ट्रीय - अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनती है | ये लोक विधाए ही किसी सर्जक हाथो में सवकर शास्त्रीय विधाओं का आकार ग्रहण कर लेती है | यह एक बड़ी सच्चाई है कि लोक संगीत ही शास्त्रीय संगीत का प्रेरणा दाई आधारभूत उपादान है | विद्यापति की पदावली लोक भाषा तथा लोक संगीत में रची - पगी है - जिससे वे मैथिल कोकिल बने | जयदेव के गीत -- गोविन्द में भी लोक गीतों जैसी सहजता , मधूरता तथा लयात्मकता है | कबीर - सुर - तुलसी - मीरा - सभी के गीतों पर लोक शैली की स्पष्ट छाप विद्यमान है | उत्तर प्रदेश में लोक कलाओ और लोक संगीत के अमूल्य धरोहर विद्यमान है | भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है कविवर सुमित्रा नन्दन पन्त के शब्दों में '' भारतमाता ग्रामवासिनी '' है | दूसरे शब्दों में भारत की आत्मा गाँवों में बसती है | उसका हृदय स्पन्दन गाँवों में धडकता है | उसकी उदात्त भावनाओं और उसके हर्षोउल्लास , आशाओं , आकक्षाओ के स्वर ग्राम वासियों के कोटि - कोटि कंठो से मुखरित होते है और इसी से जन्म होता है ''हमारी लोक कला और लोक संस्कृति का '' | बाजारवादी संस्कृति के पश्चात लोगो में गाँवो से शहरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति बढ़ी है और एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गाँवों से पूरी तरह कट गया है | नगरो की ओर पलायन पर अंकुश लगाकर गाँवों के खुशाहली और सुख समृद्दी का पथ प्रशस्त करने के लिए गाँवों में पुष्पित और पल्लवित होने वाली लोक कलाओं और लोक संस्कृति के प्रति लोगो के अभिरुचि पुन: जागृत करने और अपनी इस विरासत को अधिक समृद्द बनाने के इस आन्दोलन में आरगम 2013 के लोक संस्कृति - लोक नाट्य भारत की आधी आबादी '' नारी '' पर समर्पित रहा | चार दिनों के आरगम में प्रति दिन दो सत्र में बाटागया था पहला सत्र लोकसंगीत , लोकनृत्य व दूसरा सत्र नारी पर समर्पित और नारी शोषण पर आधारित विषय पर नाटको का मंचन - आरगम का प्रथम दिन के प्रथम सत्र में उदघाटन के पश्चात अपनी माटी के संस्कारो के साथ विरह की वेदना समेटे विरहा से इसकी शुरुआत हुई उसके बाद लोकपरम्परा में विलुप्त होती धोबिया व जाघिया नृत्य के गीतों ने आम जनमानस को एक बार फिर उसी पुरानी अपनी लोक शैली को उनके सामने जीवंत बना दिया और वो महसूस करते रहे हम किसी शहर में नही हम गाँव के किसी अमराई तले बैठे अपनी पुरानी मान्यताओं को देख रहे है | दूसरे सत्र में अभिषेक पंडित कृत व निर्देशित नाटक '' नजर लागी रामा '' का मंचन हुआ | समय समाज के मूल्याकन में सांस्कृतिक स्थिति महत्वपूर्ण होती है इसमें बिखराव या संगठन पर इंसानी जेहन का अंदाजा किया जा सकता है आज की समस्या है कि इंसानों के व्यवहार का भरोसा टूट रहा है | वह स्टाक एक्सचेंज की तरह त्वरित लाभ - हानि के आकलन में गिरता उठता है ऐसे ही समस्याओ के प्रति संकेत करता नाटक '' नजर लागी रामा '' में निर्देशक ने ब्रेख्तियन शैली का प्रयोग बड़ी खूबसूरती से किया है | इसका मूल कथानक लोक कथा पर आधारित है वो कथा आज भी समाज में प्रासंगिक है एक चरवाहा अपनी पत्नी के लिए रजा के महल में घुसकर रानी के आभूषण चरता है | पर रानी की विद्वता पर वो चरवाहा मोहित हो जाता है उसके बाद अपनी पत्नी की मुर्खता पर उसे गुस्सा आता है वो पुन: राजा के दरबार में जाकर उन आभुष्ण को लौटाता है अंत में राजा चरवाहे को मौत की सजा सुनाता है | राजा की भूमिका में अरविन्द चौरसिया ने सहज अभिनय किया रानी के भूमिका में मनन पाण्डेय ने सार्थक भूमिका करके दर्शको का मन मोह लिया चरवाहा और उसकी पत्नी की भूमिका में हरिकेश मौर्या व अंकित सिंह थे नाटक अपनी प्रस्तुती में अपने प्रश्नों को दर्शको के सामने छोड़ने में सफल रहा इसका संगीत पक्ष बहुत प्रभावशाली रहा इस पक्ष को अंकित सिंह ' सनी ने सम्भाला था | राजस्थान की माटी की सुगंध बिखेरी वहा के लोक कलाकारों ने कालबेलिया नृत्य के द्वारा उन्होंने खत्म हो रही हमारी पुरानी लोक परम्पराओं को जहा गीतों के माध्यम से प्रदर्शित किया वही अपने करतब से लोगो को आश्चर्य चकित कर दिया इसके साथ ही परदेशी बालम पधारो मारो देश के बोल के जरिये भारत की अपनी स्वागत की संस्कृति का बोध कराया आरगम का दूसरा दिन पहला सत्र संगोष्ठी '' आज की औरत और उसकी चुनौतिया '' के बाद मराठी लोक नृत्य व कौमी एकता पर नृत्य नाटिका के साथ ही हमारे हरियाणा से आये लोक कलाकारों ने हरियाणवी लोक कला के माध्यम से यह बताया कि हम अपनी परम्पराव , मान्यताओं को नही बदल सकते है उनको साथ लेकर हम आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलाकर चलेंगे पर हमारी संस्कृति ही हमारी पहचान है वही हमारा अस्तित्व है दूसरे सत्र में पटना की '' कला संगम '' द्वारा भीष्म साहनी की कहानी पर आधारित '' साग - मीट '' नाटक की चर्चा करते - करते एक महिला अपनी पड़ोसन को अपने नौकर '' जग्गा '' के बारे में बताती है जग्गा बचपन से ही उसके यहाँ नौकर था बहुत ईमानदार , सीधा और मेहनती बड़ा होकर वह शादी करके अपनी पत्नी के साथ ही रहता है , दोनों इस घर की सेवा करते है , घर का मालिक किसी दफ्तर का बड़ा अफसर है मालिक का भाई ' जग्गा ' की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उसकी पत्नी का योंन शोषण करता है , यह बात जब महिला को पता चलता है तो वह अपने पति से यह बात बताना चाहती है इसी बीच जग्गा मालिक के भाई को एक दिन अचानक अपनी कोठरी से निकलते देख लेता है यह घटना भी वो घर कि मालकिन अपनी आखो से देख लेती है वह फिर वह तय करती है कि वो अपने पति से इस घटना की चर्चा करेगी लेकिन इसी बीच जग्गा आत्महत्या कर लेता है , पुलिस को आत्महत्या के बारे में कुछ सुराग नही मिल पाता है और मामला रफा - दफा हो जाता है एक दिन वह अपने पति से सारी घटना का जिक्र करती है परन्तु अपने पति के मुह से यह जाकर कि उसे पहले सी ही सारी बातो का पता है वह अवाक रह जाती है मालिक जग्गा के घर के लोगो को पैसा देता है वह यह सोचता है कि कुछ पैसे दे देने से गरीबो का मुह बंद हो जाता है | निर्देशक ने बड़ी ही बारीकी से महानगरो के अपसंस्कृति की ओर इशारा करते हुए यह बताने के कोशिश की है कि किस तरह ये नव धनाढ्य वर्ग आज भी नारी का शोषण करते चले आ रहे है | मोना झा ने अपने एकल अभिनय से सारे पात्रो को जीवंत बना दिया '' साग मीट '' दर्शको के समक्ष बड़ा सवाल छोड़ गया
आरगम का तीसरा दिन '' इस बार आरगम ने एक नया प्रयोग किया गया जिसमे हमारे भारतीय वाद्ययंत्रो का शास्त्रीय पक्ष भी लोगो के बीच लाने का प्रयास किया गया | एकल शहनाई ,, पखावज , तबला सितार बासुरी वादन के जरिये इस एकल कलाकारों ने आरगम के पूरे बौद्दिक समाज को अपने इस फन से बाधे रखा | पंजतन ने शहनाई से जब अपनी मधुर तान छेड़ी तो अनायास ही बिस्मिल्ला खा साहब याद आ गये |तबले ने भी अपनी थाप से लोगो को मोहित किया | अजय सिंह ने अपने बासुरी के स्वर से राधे कृष्ण के याद दिला दी दूसरा सत्र भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर को समर्पित था | बताते चले भिखारी ठाकुर अपने जीवन काल में ही ( भोजपुरी समाज के मिथक बन चुके थे ) पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की लोक संस्कृति के पहचान भिखारी ठाकुर से होती है उनके बिना भोजपुरी -- भाषी समाज की कल्पना असम्भव है | भिखारी ठाकुर उस दौर के उपज थे जब राजनीति के साथ आर्थिक विषमताओ और सामन्ती संस्कृति से जकड़े ग्रामीण समाज में एक तीव्र बेचैनी और छटपटाहट थी | उसी को भिखारी ठाकुर ने अपने गीतों और नाटको में रेखांकित किया है |
संकल्प बलिया की प्रस्तुति -- भिखारी ठाकुर की अमर कृति '' गबरघिचोर'' , रोजगार के अभाव में युवाओं का गांव से शहर की ओर पलायन व स्त्री संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है। गलीज नाम का पात्र अपनी पत्नी को छोड़कर शहर कमाने चला जाता है इधर ऊसकी पत्नी का गांव के एक युवक गलीज से संबंध हो जाता है जिससे उसको एक लड़का होता है जिसका नाम है गबरघिचोर । जब गलीज को इस बात का पता चलता है तो वह लड़के को ले जाने के लीए गांव आता है । लड़के को लेकर पत्नी से लड़ाई होती है तब तक गड़बड़ी आ जाता है और कहता है कि लड़का हमारा है तीनों में झगड़ होता है । लड़का किसका है इस बात का फैसला करने के लिए पंच को बुलाया जाता है पहले तो लालच में फंस कर पंच बेतुका फैसला दैता है कि लड़के को तीन टुकड़े में काट कर तीनों में बांट दिया जाय , यह फैसला सुनकर मां बिलख पड़ती है तब पंच का विवेक जागता है और वह फैसला सुनाता है कि वास्तव में लड़के पर मां का हक है जिसने इसे नौ माह तक अपने गर्भ में रखा और पैदा होने पर उसे पाल पोसकर बड़ा किया । इस तरह एक महिला संघर्ष करके जीतती है । इस पूरे नाटक में आज भी स्त्री पर हो रहे अनाचार को उद्घाटित करके दर्शको के मन मष्तिष्क को झकझोरने का काम किया पंच की भुमिका रेनू सिंह , ने सार्थक अभिनय से दर्शको को सोचने पर मजबूर कर दिया | इसके साथ ही अन्य पात्रो ने भी अच्छा अभिनय किया नाटक का संगीत पक्ष बहुत ही मजबूत रहा जिससे नाटक के सम्प्रेषण को दर्शको तक पहुचाने में निर्देशक कामयाब रहा संगीत, गायन- ओम प्रकाश , सोनू । संगीत निर्देशन-शैलेन्द्र मिश्र ,इसका निर्देशन -रेनू सिंह . मंच परिकल्पऩा व निर्देशकीय सहयोग-आशीष त्रिवेदी ।
आरगम का आखरी दिन आजमगढ़ के एक मस्त मौला फकीर पेशे से दर्जी '' हादी आजमी '' के उन दर्द भरे नज्मो से कार्यक्रम की शुरुआत हुई जिसमे उन्होंने आम आदमी होने के दर्द को बया किया है और इसको अपना स्वर दिया पंडित विनम्र शुक्ल ने उनके रिदम ये एहसास दिला दिए हादी आजमी के उस दर्द को जो उन्होंने अपने नज्मो में उकेरी है | इसके साथ ही आजमगढ़ से उभरता एक सितारा अंकित सिंह '' सनी '' जो गजल , गीत हो या शास्त्रीय संगीत का ठुमरी हो , दादरा हो उसने अपने गायकी से यह सिद्द कर दिया कि वो आने वाले कल का बेहतरीन सितारा है \ लोक रंग के इस आखरी शाम को '' इन्द्रवती नाट्य समिति '' सीधी मध्य प्रदेश की प्रस्तुती नाटक '' स्वेच्छा '' स्वेच्छा एक ऐसी लडकी की कथा है जो लगातार अपने अस्तित्व के तलाश में संघर्षशील है | लडकी का बचपन तरह - तरह के चरित्रों को महसूस करता है उन्हें समझते या उनका रूप ग्रहण करते बीतता है यह बात और है कि इन दिनों वो अपनी मर्जी का ऐसा कुछ भी नही कर पाती लेकिन कही न कही उसके आगामी जीवन पर उन चरित्रों का गहरा प्रभाव पडा है | अब वो बड़ी हो गयी है उसके सारे बचपन के दिनों के कोमल चरित्र अब बड़े हो गये है वो तमाम दुनियावी उतार -- चढाव से वाफिक होने लगे है यह बात अब माँ बाप को ठीक नही लगती है लेकिन स्वेच्छा के चरित्र बुनने और उनके बीच रहना ही अच्छा लगता है स्वेच्छा सूरज की पहली किरण लाल अरुण के यात्रा से शुरू होकर अस्त होते सूरज तक का सफर है | सफर वो जो कभी न खत्म न हो अनंत के ओर उन्मुख हो जिसकी पैदाइश ही प्रेम हो | कुछ ऐसे ही विचारधारा और चाहत को प्रगट करती है श्वेच्छा | यू तो आदमी वास्तविक जीवन में हजारो चरित्रों को जीता रहता है | लेकिन जब इन चरित्रों के मध्य जिन्दगी जीने की बात आती है इन्ही चरित्रों के साथ सपने देखने की बात आती है तो हम कतराते है तब हमे रंगों से और रंगो में शामिल चरित्रों से उबन होने लगती है और न जाने किस जीवन दर्शन में डूबने उतराने लगते है | जहा शब्दों के मायने बदल जाते है | जरा सोचे क्या हम नन्ही मासूम शक्लो को गुमराह नही कर रहे होते ऐसी स्थिति में सब कुछ अधूरा रह जाता है विशाल अधूरापन मुहँ फैलाए खड़ा होता है हमारा अस्तित्व लीलने को और हम बची -- खुची जिन्दगी न चाहते हुए भी जीते चले जाते है | घिसटते चले जाते है अनायास ही मौत के मुहाने तक इस नाटक को निर्देशक ने अपने सम्पूर्ण कला दर्शन के जरिये एक मूर्त रूप में आकृति सिंह के जरिये साकार किया इस छोटी सी कलाकार ने अपने शानदार अभिनय से इस पुरे कथानक को साकार स्वरूप देकर दर्शको को निशब्द: बाधे रखा यही उसकी बहुत बड़ी सफलता रही | नाटक का निर्देशन व संगीत निर्देशन नरेन्द्र बहादुर सिंह ने किया था वो अपने नाटक के माध्यम से आज के समय की त्रासदी को बखूबी कह गये | इन चार दिनों के कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ रंगकर्मी व स्वतंत्र पत्रकार , समीक्षक एस . के दत्ता ने सफलता पूर्वक सम्पन्न किया | कार्यक्रम के अंत में समाज के विभिन्न क्षेत्रो में कार्य करने वालो को सम्मानित किया गया | वर्ष 2013 आरगम के सयोजक ममता पंडित ने अपने कुशल संचालन से इसे सफलता की दिशा दी ,इसके साथ ही सूत्रधार संस्था के अध्यक्ष डा सी के त्यागी , सचिव अभिषेक पंडित , व डा बद्रीनाथ , डॉ स्वस्ति सिंह , श्रीमती विनीता श्रीवास्तव , प्रवीन सिंह , नित्यानंद मिश्र , दीप नारायण , मनीष तिवारी , विश्वजीत सिंह पालीवाल , जनहित इंडिया के सम्पादक मदन मोहन पाण्डेय और साथ के सभी रंगकर्मीयो के समर्पण से ही यह जन आदोलन , रंग आन्दोलन निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है |
अश्वघोष की इन पक्तियों के साथ -------- अभी तो लड़ना है तब तक जब तक मायूस रहेंगे फूल तितलियों को नहीं मिलेगा हक़ जब तक अपनी जड़ों में नहीं लौटेंगे पेड़..........................
-- सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार ए समीक्षक

इस लोक में बाउल ------------------

जब ये दुनिया बनी होगी तब यहाँ कोई जाति नही रही होगी | उस वक्त इन्सान शायद वनों में विचरण करते रहे होगे जैसे जैसे विकास होता गया लोग यहाँ आपस में बटते गये और यहाँ तक बटे अब वो धर्मो पे आधारित हो गये पर आज भी पुरानी परम्पराओं में कुछ बाते ऐसी है जहा धर्म नाम की कोई चीज जब आती है तो वो शून्य हो जाती है ऐसे ही इसे एक लोक कला कहे या यू कहे कि इस कला को सूफियो ने विकसित किया और उस विकास क्रम में सारी चीजो से उठाकर सूफी जीता है इसमें हिन्दू -- मुस्लिम के भेद से कही उपर लोक गायक बाउल सूफी परम्परा और अध्यात्म पथ के राही है ये बाउल सूफी फकीर बंगाल की लोकल ट्रेनों में , वहा की गलियों में और लोक संस्कृति के उत्सव में बाउल के दर्शन और उनके गायन से सबका परिचय स्वाभाविक है |
सोलहवी शताब्दी के पूर्व शुरू हुई बाउल गीत -- संगीत की परम्परा हाल के वर्षो में उपेक्षित होकर बंगभूमि और उसके आसपास अपनी पूरी लय में उपस्थित रही है | बाउल की प्रकृति को समझना आवश्यक है | एक साथ ही बाउल पर यदि चैतन्य महाप्रभु की छाया है तो कबीर और चंडीदास का भी प्रभाव इसमें दिखाई पड़ता है | इनकी पूरी आध्यात्मिक यात्रा में सहजिया वैष्णोवो का असर अधिक है | अलमस्त - बेसुधी यदि सूफियो से मिली है तो प्रेम का बेसुध रंग चैतन्य महाप्रभु की देंन है | संत साहित्य में सामाजिक चेतना प्रबल थी और बाउल की समस्त परम्परा में भी इसकी छाप बहुत गहरी है | बाउल में हिन्दू मुसलमान का कोई भेद नही है | हिन्दू भी बाउल है और मुसलमान भी | इस परम्परा के प्रथम गुरु लालन फकीर अक्सर दुहराते थे '' जन्मते हुए , मरते हुए मैंने कभी जात नही देखि '' दो टके की ताबीज पहनकर कोई मुसलमान हो जाता है तो जनेऊ पहनकर हिन्दू ' | वे आक्रोशित होकर अपने गीतों के माध्यम से यह सन्देश देते थे , '' बाजार में अगर जात -- पात से घिरी मनुष्यता मैंने पायी होती तो मैं उसे जला डालता | ' बाउल कर्मयोगी है | वे भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन नही करते | इनके पहले गुरु लालन फकीर स्वंय पान की दूकान चलाते थे | लगभग बीस वर्षो की कठिन साधना के बाद उपेन्द्रनाथ दास ने इनके जीवन पर अपनी पुस्तक तैयार की थी | क्षितिजमोहन सेन , सौमेंद्र्नाथ बंधोपाध्याय , रविन्द्र ठाकुर और धर्मवीर भारती ने बाउल के जीवन और संदेश पर काम किया | हाल के वर्षो में हिन्दी में सबसे समृद्द काम शान्तिनिकेतन के आचार्य डा हरिश्चन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक '' बंगाल के बाउल और उनका काव्य '' में किया है | एक बात और चित्रकार यामनि राय ने बंगाल के इन बाऊलो के जीवन पर कई शानदार पेंटिग बनाई है जो रंगों के चितेरो के लिए आदर्श है | बाऊलो की तंत्र साधना में ' मोनेर मानुष '' व्याख्यायित है | भारतीय दर्शन का पुरुष चैतन्य स्वरूप है | चैतन्य उसका स्वभाव है | वह साक्षी चैतन्य स्वरूप है तथा जीवात्मा में भी इसी का चैतन्य प्रकाशित है | बाउल प्रकृति इनकी साधना पूर्ण नही होती | ईश्वर को ये अपने भीतर मानते है -- '' मोनेर मानुष '' | ईश्वर मनुष्य रूप में मन का पुरुष होता है | जैसे कबीर ने जीवात्मा का स्वतंत्र रूप अस्वीकार किया | वे परमात्मा को परमतत्व का ही लघु रूप मानते थे | कबीर ने जीवात्मा एवं परमात्मा के इस अद्दैत बहाव को बूंद और समुद्र के उदाहरण के साथ समझाया | कबीर ने माना कि ब्रम्ह का साक्षात्कार होने पर आत्मा -- परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में पूर्णतया लींन हो जाता है | इनका फिर अलग अस्तित्व नही रह जाता है |बाउल का दर्शन भी रूप से स्वरूप की ओर आगे बढ़ता है | कृष्ण रूप है , राधा स्वरूप | कृष्ण और राधा का द्दैत ' मोनेर मानुष '' को आनन्दित करता है | इनकी परम्परा में रजस्वला स्त्री की पूजा होती है | सहजिया वैष्णोवो के साथ ही सूफी प्रभाव से ओर्त -- प्रोत बाउल के परम्परा में गुरु का महत्व है | भक्तिकाल में नाथ साहित्य में भी गुरु की महत्ता स्वंयसिद्द है | नाथ पंथियों ने वैराग्य से मुक्ति संभव मानी है | वैराग्य गुरु की कृपा से मिलता है इसे भी माना इसलिए गुरुदीक्षा एवं गुरु मन्त्र का वहा मोल है | अंतर यह है कि नाथ परमरा में नारी से दूरी है जबकि बाउल में सामीप्य | बाऊलो के लिखित इतिहास का घोर आभाव है | जनश्रुति ही मुख्य आधार है | कहते है बाउल कवि लालन फकीर की मृत्यु के बाद गीत आदि संग्रह पर कुछ काम हुआ | उसके पहले इस ओर किसी का विशेष ध्यान नही रहा | सन्यासी बाउल सफेद वस्त्र पहनते है और महिलाये सफेद साडी | शेष गेरुआ | महिला सन्यासिनी सेवादासी के रूप में होती है | यूनेस्को ने 2005 में इस गायन परम्परा को '' मानवता की अमूर्त धरोहर '' के रूप में पहचान दी | सूफी प्रभाव से युक्त बाउल की परम्परा में कही जाति का भेद नही है | हिन्दू -- मुसलमान का भेद नही है | हम जानते है कि सूफी दर्शन के सबसे बड़े कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने भी इस भेद को दरकिनार किया था | मुल्ला दाउद , कुतुबन , जायसी मंझन नूर मुहम्मद जैसे संतो कवियों ने हिन्दुओ में प्रचलित प्रेम कहानियों को कथानक तक बनाया | जायसी ने तो पदमावती को परमात्मा मानकर उसके रूप सौन्दर्य की छटा संसार को दिखाई | जायसी की मान्यता थी कि '' इश्क मिजाजी '' यानी लौकिक प्रेम को पाया जा सकता है | सूफी कवि जायसी के रचना में गोता लगाये तो हमे भी वह भाव मिलेगा जो मन के मानुष की खोज की ओर इशारा करता है | जायसी ने सिंहलद्दीप की राजकुमारी पदमावती के प्रेम का चित्रण किया है | चितौड़गढ़ के राजा रत्नसेन यहाँ जीवात्मा का प्रतीक है और पदमावती परमात्मा का | जायसी का मत है कि प्रेम की चिनगारी यदि हृदय में पड़ गयी और उसे सुलगाते बन पडा तो उस अद्भुँत अग्नि से सारा लोक विचलित हो जाता है | भगवत प्रेम की यह चिनगारी गुरु हृदय में डालता है लेकिन उसे सुलगाने का काम साधक करता है | जायसी मुसलमान थे लेकिन पदमावती में उन्होंने हिन्दू की होली , दीवाली जैसी परम्परा और पौराणिक आख्यानो का भरपूर सहारा लिया | देवी पूजन का लोकाचार , राम -- कृष्ण अर्जुन सब इस मुस्लिम कवि की धारा में प्रवाहित है , पूज्य है | हम सब परमशक्ति के उपहार है | हमारा शरीर एक मंदिर है और संगीत का पथ ही हमे परमशक्ति से मिला सकता है | इस धारणा वाली बाउल परम्परा पर रविन्द्रनाथ ने अपमी यूरोप यात्रा के क्रम में अनेको जगहों पर व्याख्यान में दिया | उनके रविन्द्र संगीत में इसकी गहरी छाप है | '' द रिलिजन आफ मैंन '' पुस्तक में भी इस विषय पर उन्होंने प्रकाश डाला है |
आमी कोथाय पाबो तारे .............. आमार मोनेर मानुष जे रे .................. बाउल की इन पंक्तियों को रविन्द्रनाथ ने अपने साहित्य और संगीत दोनों में समाहित किया है | कहते है कि कवि काजी नजरुल इस्लाम की कविताओं पर भी इसकी छाया है | बाउल अपने गायन में एकतारा बजाते है | इसके बिना बाउल की सम्पूर्ण छवि नही बनती है | एक तारा और बाउल एक -- दुसरे के पूरक है | एक को छोड़ दूसरे का अस्तित्व नही है | भारत के साथ ही बांग्लादेश में भी इनकी परम्परा समादृत है | वहा के कुश्तिया में प्रत्येक वर्ष फरवरी मार्च में '' लालन स्मृति '' उत्सव मनाया जाता है | इस परम्परा और दर्शन के संरक्ष्ण के लिए वहा की संस्था '' बाउल समाज उन्नयन संघ '' सक्रिय है | '' बंगलादेश शिल्पकला अकादमी '' इस परम्परा पर राष्ट्रीय -- अन्तराष्ट्रीय स्तर का सेमीनार करती रहती है | विश्व भारती विश्व विद्यालय शान्तिनिकेतन के चतुर्दिक बाउल ही बाउल जुटते है | कई दिनों के मेले में हर दिन इनका उत्सव होता है | '' लोक '' और '' राज '' का यह द्दैत निश्चय ही लालन फकीर ( बाउल गुरु ) की इस यात्रा को नया स्वरूप देगी और हमारे बीच हमेशा जीवित रहेगा | सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक साआभार --- दैनिक जागरण

'' प्रिय प्रवास '' के बहाने अयोध्या सिंह उपाध्याय '' हरिऔध ''


साहित्य , समाज और संस्कृति का घनिष्ट सबंध है | युगद्रष्टा रचनाकार जिस साहित्य का सृजन कर्ता है , वह समाज के विषमताओ , संत्रास , संघर्षो को रेखांकित ही नही अपितु उसे उपयुक्त दिशाबोध भी प्रदान करता है इसके साथ ही देश काल परिस्थितियों का सांस्कृतिक जीवन दर्शन भी प्रस्तुत करता है |
संस्कृति किसी राष्ट्र की आत्मा होती है -- पूरा विश्व ग्लोबल विलेज की दुनिया में जकड़ रहा है | साहित्य की दिशा भी समाज के साथ आगे बढ़ रही है | आधुनिक कविता जो कभी भारतेन्दु के गीतों और हरिऔध , मैथलीशरण की राष्ट्रीय कविताओं में अपनी पहचान बनाती थी वह '' आधुनिकता '' और '' उत्तर आधुनिकता के तकनिकी मुहावरों में देखी जा रही है | समाजवाद -- मार्क्सवाद से बढ़कर वैश्वीकरण उदारवाद और मुक्त व्यापार के प्रसार के साथ हम अपनी जड़ से कट कर आर्थिक युग के एक यंत्र बनते जा रहे है , ऐसे समय में साहित्य स्वंय कितना महत्वपूर्ण रह जाता है यह विचारणीय है ?
1857 में देश एक नई चेतना की ओर अग्रसर हो रहा था और विद्रोह का स्वर फूट रहा था | ऐसे समय में भारतीय जनमानस के राजनैतिक , सामाजिक , धार्मिक , शैक्षिक और साहित्यिक आदि क्षेत्रो में नव्य चेतना से देश के लोग झंकृत हो रहे थे |
1857 की क्रान्ति सफल न हो सकी पर इस क्रान्ति से लगी आग बराबर देश के सपूतो के दिलो -- दिमाग के अन्दर सुलगती रही | इसके पूर्व ही आर्यसमाज के माध्यम से स्वामी दयानन्द ने ब्रम्ह समाज के माध्यम से केशवचन्द्र सेन और राजा राम मोहन राय ने हिन्दू समाज से छुआ छूत , जाति- पाति, पाखण्ड , और जड़ता आदि कुरीतियों को जहा दूर करने का प्रयास कर रहे थे और ऐसे में एक कड़ी ऐनी बेसेन्ट ने थियोसिफिकल सोसायटी और स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन द्वारा भारतीय जीवन को आधुनिक परिवेश से युक्त कर विश्व -- प्रतिष्ठा दी | राजनैतिक क्षेत्र में भगत सिंह , अशफाक उल्ला , राम प्रसाद बिस्मिल , सुखदेव जैसे क्रांतिवीरो ने व महामना मदन मोहन मालवीय , बाल गंगाधर तिलक , सुभाष चन्द्र बोस , सरदार पटेल ने यही काम किया | हिन्दी साहित्य में भारतीयता , राष्ट्रीयता और आधुनिकता की यही मशाल लेकर भारतेन्दु बाबा हरिश्चन्द्र खड़े हुए इसी समय आजमगढ़ की उर्वरक जमीन पर एक नया दीपक जन्म ले चुका था और आने वाले कल का हिन्दी साहित्य के क्रान्तीवीर बनकर दीपक की लौ फैलाने वाले अयोध्या सिंह हरिऔध थे | हरिऔध के काव्य गुरु बाबा सुमेर सिंह साहबजादे '' भारतेन्दु के प्रभामंडल '' के एक यशस्वी कवि थे | हरिऔध के भी बाल -- संस्कार भारतेन्दु -- यूग के वातावरण में ही परिपुष्ट हुए थे | इन सभी प्रभावों को एक रचनाकार के रूप में आत्मसात करते हुए प ० अयोध्या सिंह हरिऔध ने साहित्य जगत में प्रवेश किया | बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ के साथ उन्होंने जो साहित्य की रचना शुरू की वह अगले पांच दशको तक निरंतर ऊँचाइया छूती रही | इस अवधि में उन्होंने कविता , उपन्यास , आलोचना , निबन्ध , और अनेक विधाओं में रचना की | ऐसे महान साहित्य मनीषी की रचनाधर्मिता को समझना और उसे आज के सवालों के संदर्भ में दिशा निर्देश लेना समय की सर्व प्रमुख आवश्यकता है | खड़ी बोली का प्रथम महा काव्य '' प्रिय प्रवास '' जैसे रचनाकृति ने हरिऔध जी को बहुत उचाईया प्रदान की उसी के चलते '' कवि सम्राट '' और साहित्य वाचस्पति '' जैसे उपाधियो से अलंकृत किया गया | '' प्रिय प्रवास '' खड़ी बोली हिन्दी का पहला महाकाव्य है और अपने लालित्य -- प्रवाह के कारण साहित्य प्रेमियों के बीच आज भी प्रतिष्ठित है | सच तो यह है कि ऐसे महान लेखको और उनकी रचनाओं को समझे बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य की उचाइयो को पूरी तरह नही समझा जा सकता है | भारतीय साहित्य संगम आजमगढ़ द्वारा '' अयोध्या सिंह उपाध्याय '' हरिऔध '' के खड़ी बोली में लिखे प्रथम महा काव्य '' प्रिय प्रवास '' रचना शताब्दी वर्ष पर दो दिवसीय गोष्ठी का आयोजन नेहरु हाल में किया गया | गोष्ठी के प्रथम दिन के प्रथम सत्र के मुख्य अतिथि पूर्व महानिदेशक सार्वजनिक उद्योग ब्यूरो उत्तर परदेश डा राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने '' प्रिय प्रवास '' पर अपने विचार रखते हुए कहा कि हिन्दी साहित्य का यह प्रथम खड़ी बोली का महाकाव्य है हरिऔध जी जब इस रचना को लिख रहे थे उस वक्त भाषा को लेकर अनेको प्रश्न खड़े थे तब प्रिय प्रवास को खड़ी बोली में लिखना कितना बड़ा चुनौती था | और उस चुनौती को स्वीकार किया हरिऔध जी , संस्कृत के समस्त काव्य ग्रन्थ अनुकान्त अथवा अन्त्यानुप्रास हीन कविता से भरे पड़े थे | चाहे लघुत्रयी रघुवंश आदि वृहत्रयी किरातादी जिसको आप देखे उसी में आप भिन्न्तुकान्त कविता का अटल राज पायेगे | परन्तु हिन्दी काव्य ग्रंथो में इस नियम का सर्वथा व्यभिचार है उसमे आप भिन्त्यानुप्रासहीन कविता पायेगे ही नही | अन्त्यानुप्रास बड़े ही श्रवण -- सुखद होते है और उस कथन को भी मधुरता बना देते है |
डा पाण्डेय विचार को आगे बढाते हुए कि हरिऔध जी कहते है कि ज्ञात होता है हिन्दी -- काव्य ग्रंथो में इसी कारण अन्त्यानुप्रास की इतनी प्रचुरता है | बालको की बोलचाल में , निम्न जातियों के साधारण कथन और गान तक में आप इसका आदर देखेगे फिर हिन्दी काव्य ग्रंथो में इसका समादर अधिकता से हो तो आश्चर्य क्या है ? हिन्दी ही नही यदि हमारे भारतवर्ष की प्रान्तिक भाषाओं बंगला , पंजाबी , मराठी , गुजराती आदि पर आप दृष्टि डालेगे तो वह भी अन्त्यानुप्रास का ऐसा ही समादर पायेगे | उन्होंने क्रम को आगे बढाते हुए कहा कि संस्कृत वृत्त बहुत ही उपयुक्त है | इसके अतिरिक्त भाषा छन्दों में मैंने जो एक आध अतुकान्त कविता देखि , उसको बहुत ही भद्दी पाया | यदि कोई अच्छी कविता मिली भी तो उसमे वह लावण्य नही मिला जो संस्कृत -- वृत्तो में पाया जाता है | यह भी भाषा -- साहित्य में एक नई बात है जहा तक मैं अभिज्ञ हूँ अब तक हिन्दी भाषा में केवल संस्कृत छन्दों में कोई ग्रन्थ नही लिखा गया है | जब से हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की कविता का प्रचार हुआ है तब से लोगो की दृष्टि संस्कृत वृत्तो की ओर आकर्षित है तथापि मैं यह कहुगा कि भाषा में कविता के लिए संस्कृत छन्दों का प्रयोग अब भी उत्तम दृष्टि से नही देखा जाता है | गोष्ठी के क्रम को आगे बढ़ते हुए यू पी कालेज के हिन्दी के बरिष्ठ प्रवक्ता डा राम सुधार सिंह ने सुधिजनो को संबोधित करते हुए कहा '' प्रिय प्रवास '' 15 अक्तूबर 1909 में हरिऔध जी ने लिखना प्रारम्भ किया और खड़ी बोली का प्रथम महा काव्य 1913 में प्रकाशित हुआ | उन्होंने आगे कहा कि हरिऔध जी ने खड़ी बोली में संस्कृत के ललित -- वृत्तो को जोड़ा तभी अन्य प्रान्तों के विद्वान् उसे पढ़कर सच्चा आनन्द प्रात कर सके | राष्ट्र भाषा हिन्दी के काव्य ग्रंथो का स्वाद अन्य प्रांत वालो को भी चखाना था |भारत के भिन्न -- भिन्न प्रान्तों के निवासी विद्वान् संस्कृत भाषा के वृत्तो से अधिक परिचित है इसका कारण यही है कि संस्कृत भारत वर्ष की पूज्य और प्राचीन भाषा है | हरिऔध जी का प्रिय प्रवास की भाषा संस्कृत -- गर्भित है | उसमे हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है | इसी क्रम को हिन्दी भाषा संस्थान उत्तर परदेश के पूर्व अध्यक्ष डा कन्हैया सिंह ने बढाते हुए कहा कि हिन्दी साहित्य में गद्द विधा में खड़ी बोली का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय हुआ नाटको में जो गीत भारतेन्दु ने लिखे थे , वे खड़ी बोली में थे , पर कृष्ण भक्ति काव्य में रीतिकाल तक की काव्य भाषा ब्रजभाषा भारतेन्दु युग तक बनी रही हरिऔध जी ने भारतेन्दु युग में ही कविता लिखनी प्रारम्भ की उनका प्रारम्भिक काव्य ब्रजभाषा में लिखा गया जो 1900 ई के पूर्व का ही अधिकाशत : है | उनका प्रथम काव्य संग्रह '' प्रेम प्रपंच '' 1898 ई में द्दितीय '' प्रेमाम्बू -- प्रवाह '' और तृतीय '' प्रेमाम्बू प्रस्त्रवंण '' 1899 ई में प्रकाशित हुए थे | उन्होंने गोष्ठी को आगे बढाते हुए बोला कि हरिऔध जी के इन ब्रजभाषा रचनाओ के नाम से प्रकट है कि ये सभी प्रेम और श्रृगार की रचनाये है | भले ही खड़ी बोली आन्दोलन में ब्रजभाषा का महत्व कम हो गया और हरिऔध के भी इसमें लिखे काव्य का समुचित अनुशीलन -- मूल्याकन नही हुआ , किन्तु ये कविताएं हरिऔध के भावुक हृदय , रसिक -- वृति और श्रृगारिक तन्मयता की बोधक है | '' प्रिय प्रवास '' इसके पूर्व खड़ी बोली में मैथलीशरण गुप्त का खंड काव्य '' जयद्रथ वध '' ही एक मात्र प्रबंध काव्य प्रकाशित था | '' प्रिय प्रवास '' कई दृष्टियों से क्रांतिकारी रचना थी |संस्कृत के छन्दों -- म्दाकान्ता , मालिनी सगठित सुसंस्कृत भाषा आधोपान्त अतुकांत छन्दों का प्रयोग म्ग्लाच्रण का अभाव ( वस्तु -- निर्देश अवश्य ) तथा पौराणिक कथानक में आधुनिकता का समावेश तथा श्री कृष्ण और राधा के चरित्र को युग नायक के आधुनिक गुणों के प्रतिष्ठा द्वारा उसे युगीन परिवेश में ढालना कुछ ऐसी विशेषताए थी | कन्हैया सिंह ने अपने विचार को आगे करते हुए कहते हुए कहा कि '' प्रिय प्रवास '' का कथानक कृष्ण के परपरित पौराणिक आख्यान पर आश्रित है | श्रीमद भगवत पुराण के दशम स्कन्ध में वर्णित कृष्ण चरित्र का आधार इसमें लिया गया है पर इसे कवि ने अपनी मौलिकता से मंडित कर दिया अपने चर्चा में कहते है कि मूल कथानक को बिना क्षति पहुचाये , प्रसंगो की तार्किक प्रस्तुती इसे पुराख्यान को अद्यतन रूप प्रदान कर देती है | इस आख्यान में राधा -- कृष्ण अपौरुषेय न होकर सामान्य नारी -- नर के रूप में चित्रित है और वे एकातिक प्रेम -- विरह - भक्ति में तल्लीन नही है , अपितु लोकपीड़ा के प्रति जागरूक , लोक समवेदना से परिचालित और लोकाराधन में रत है | राधा -- कृष्ण की यह नवींन चरित्र -- सृष्टि उसे एक नवीन गौरव प्रदान करती है | सीमित कथानक तथा काव्य शास्त्र के लक्षण के अनुरूप न होने से कुछ विद्वान् इसे महाकाव्य नही मानते है | आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र '' प्रिय प्रवास , साकेत और कामायनी तीनो को एकार्थ कहते है पर महाकव्य की आधुनिक परिभाषा है कि जिसमे महत उद्देश्य को लेकर रचना हुई हो , वह महाकाव्य है | इसलिए इसे महाकाव्य और खड़ी बोली का प्रथम महाकव्य मना गया है |
गोष्ठी की अध्यक्षता डा दीनानाथ लाल पूर्व प्राचार्य ने किया और संचालन डा अशोक श्रीवास्तव ने किया |
दुसरा सत्र प्रिय प्रवास रचना शताब्दी के आयोजन के अवसर पर कवि सम्राट साहित्य वाचस्पति महाकवि अयोध्या सिंह हरिऔध को काव्य संध्या के रूप में समर्पित रही हरिऔध जी मुल्त: कवि थे उनकी स्मृति में काव्य संचालन कर रहे प्रभुनारायण प्रेमी ने कवि सम्मलेन को आगाज देते हुए कहा कि कविता सिर्फ मनोरंजन मात्र नही है , देश काल समय और उसकी परिस्तिथिया ही कविता है | '' जो आग लगाते है सियासत वाले उस आग को शायर ही बुझाते है '' भालचंद्र त्रिपाठी के सरस्वती वन्दना से शुरू हुआ कवि सम्मलेन में सर्व प्रथम डा अखिलेश ने सीधे वर्तमान व्यवस्था और पोगी पंथी बाबाओं पर प्रहार करते हुए कहा '' नटवर कभी शिवशंकर कभी बने श्री राम करे रासलीला बाबा जी और न दूजा काम एक दिलेर शिष्या ने कर डाला काम तमाम लगे तोड़ने जेल में रोटी बापू आसाराम इसके साथ ही भावो की अभिव्यक्ति देते हुए पढ़ा ' भाव की यह उर्वर धरती बंजर न होने पाए भटक रहे है इसीलिए हम दरिया की तकदीर लिए | इस आयोजन के सयोजक नये गीत कुमार विन्रम सेन सिंह ने श्रोताओं को श्रृगार से ओत - प्रोत करते हुए पढ़ा '' अपनी जुल्फों के घने जाल में खो लेने दे करीब दिल के और अब मुझे हो लेने दे तुझसे अब इल्तजा है सुन ले मेरी जाने गजल सर सीने में रखकर अब मुझे सो लेने दे | इसके साथ ही अपनी माटी आजमगढ़ के गौरवशाली परम्परा की बात करते हुए कहा कि ----
'' शस्य श्यामला चुनर धानी तमसा का पावन पानी मातृभूमि पर शीश चढाने वाले अगणित बलिदानी अपने जनपद में -- शिबली , शैदा , हरिऔध राहुल की लाली इसमें कलाभवन , शिबली मंजिल की आभा अजब निराली संत फ्लिर पीर पंडित शोभा -- शाली फूल - फूल क्यारी क्यारी में खिली हुई खुशहाली अपने जनपद में इस कविता से बताया कि हमारा जनपद ऐसा गौरवशाली इतिहास समेटे हुए है इसी कड़ी को आगे करते हुए भोजपुरी भाषा के सिद्धस्त कवि कमलेश राय ने नारी संवेदना को उद्घाटित करते हुए कहा कि '' तुलसी चौरा पर दियना के बारी चले ली का गोरी मनौती हजार चले ली दुखवा कजरा नियर बीच अखियन बसल सुखवा बन के चनरमा लिलार लसरल जैसे गीतों को सुनाकर श्रोताओ को मंत्रमुग्ध कर दिया डा वसीउद्दीन जमाली ने कवि सम्मलेन को उचाई देते हुए कहा -- '' मादरे हिन्द को रुसवा नही होने देगे बीज नफरत के न इस मुल्क में बोने देगे उनकी बातो से नही हम पिघलने वाले जो है गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले हमको देना है तो हक सारे दे दो ऐसी अभिव्यक्ति से वर्तमान व्यवस्था पर जबर्दस्त प्रहार किया भाल चन्द्र त्रिपाठी ने बड़ा सटीक कहा '' हम फकीरों को नशे की बात मत समझाइये हम जहा बैठे है प्यारे वो भी मयखाना ही है | ईश्वर चन्द्र त्रिपाठी ने अपनी संवेदनो को ऐसे उकेरा '' फिर कोई याद कर रहा है मुझे फिर मुझे याद कर रहा कोई अपनी परिभाषा दे के लौटा है मेरा अनुवाद कर रहा कोई मधुर नजमी ने कहा जहा से आती है मुश्किल से हस्तिया ऐसी जिनके फिकरो नजरियात से सदी महके इसके साथ ही आर डी यादव और ब्रिजेश सिंह ने अपनी रचना सुनाई |
दूसरे दिन का तीसरा सत्र '' हरिऔध और उनका समय '' विषय की परिचर्चा पर केन्द्रित था | भारतीय साहित्य संगम के संरक्षक डा कन्हैया सिंह ने आगत अतिथियों का स्वागत करते हुए विषय का प्रवर्तन करते हुए कहा वह समय राष्ट्रीय जागरण का काल था सभी क्षेत्रो में वैज्ञानिकता , और तार्किकता का प्रवाह था | ऐसे समय में हरिऔध जी ने अपनी रचनाओ के कथ्य और उनकी भाषा का परिष्कार और परिमार्जित किया | उसी समय आजमगढ़ में ही प रामचरित उपाध्याय , गुरु भक्त सिंह '' भक्त '' श्याम नारायण पाण्डेय , गोरखपुर के मडंन द्दिवेदी आदि अनेक रचनकारो का एक मंडल खड़ा हो गया | इसी क्रम में गोरखपुर विश्व्धालय से आये हिन्दी विभाग के एसोसियट प्रवक्ता विषय का प्रवर्तन करते हुए बोले कि हरिऔध जी युग चेतना और स्वतंत्र चेतना के प्रतीक थे | रामचन्द्र शुक्ल ने हरिऔध जी के सम्बन्ध में अपने इतिहास में बड़ी ही सराहनीय टिपण्णीया लिखी है | महावीर प्रसाद द्दिवेदी के युग में रहते हुए भी वे सपाट कविता से आगे गंम्भीर अभिव्यक्ति की कविताएं लिखते रहे | उन्होंने लोक संग्रह और लोक चेतना को लक्ष्य करके प्रिय प्रवास की रचना की | पौराणिक कथा को नया रूप दिया नई चेतना के साथ नई भाषा भी प्रयोग किया | परिचर्चा के मुख्य वक्ता प्रो चितरंजन मिश्र ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि हरिऔध ऐतिहासिक महत्व के रचनाकार थे | हिन्दी भाषा की सर्जनात्मकता का पहला रूप साहित्य को इसी आजमगढ़ की धरती से मिला था | वह नव युग के पुरोधा थे उन्होंने यह भी कहा कि हरिऔध ने एक ऐसी भाषा का निर्माण किया जो आगे चलकर हिन्दी की काव्य भाषा बनी | खड़ी बोली ही गद्द और पद्द के अभिव्यक्ति की सशक्त भाषा थी उसी में भाषा के विविध रूपों में उन्होंने अपनी रचनाओं का सृजन किया | मुख्य अतिथि रणविजय सिंह ने कहा कि यदि हरिऔध और महावीर प्रसाद द्दिवेदी न होते तो आज हमारी पीढ़ी में कोई रचनाकार भी नही होता | हरिऔध का युग राजनैतिक और साहितियिक चेतना का युग था | स्वतंत्रता संग्राम की सुगबुगाहट शुरू थी स्वराज और स्वदेशी और स्वभाषा के लिए जमीन तैयार हो रही थी हरिऔध ने साहित्य में इन संवदनाओ को स्थान देकर हिन्दी और राष्ट्र दोनों के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया | इस अवसर पर युवा लेखक विन्रम सेन सिंह के आलोचना करती मार्क्सवादी आलोचना का विकास पुस्तक का विमोचन रणविजय सिंह प्रो चितरंजन मिश्र व डा दीपक त्यागी ने सम्ल्लित रूप से किया | परिचर्चा की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार प अमर नाथ तिवारी नें किया | यह कार्यक्रम उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा प्रायोजित था |
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक , सामजिक कार्यकर्ता