'' काहे को रोये सफल होगी तेरी अराधना दिया टूटे तो ये है माटी जले तो ये ज्योति बने

  • एक ऐसे सुर साधक व संगीत का चमकता ध्रुव तारा आकाश में पूर्णिमा के चाँद के साथ एक ही बार चमकता है त्रिपुरा के शाही घराने में चमका वो तारा सचिन देव बर्मन के रूप में सचिन दा का बचपन खेतो में लहलहाते सतरंगी आभा से सुनहले चमकते रंगों के बीच गेहू और धान की बालियों में गुजरता हुआ बढ़ता जा रहा था साथ ही गाँव के हम उम्र बच्चो के साथ धुल और मिटटी में जब भी खेलने जाते तो उनके कानो में गाँव के एक बूढ़े किसान के गाने की आवाज आती और वे खेल में ही उस गीत से अनायास जुड़ जाते | उस बूढ़े बाबा किसान के गाये गीत सचिन दा में रच बस गया था और वो अपने जीवन के बसंत पार करते हुए भी उस गीत को न भूल पाए और वो गीत सचिन दा के साथ ही उनके जीवन का प्रवाह बन गया और उनके अन्दर के संगीत के सात सुरों की लय को जगा दिया | और इसके साथ ही वो इस संगीत के महासागर में आ गये | इन्ही मार्मिक सुरों के छाव में महान संगीतकार सचिन देव बर्मन ने संगीत की दुनिया में कदम रखा | एक अक्तूबर सन 1906 में जन्मे कुमार सचिन देव बर्मन के दादा त्रिपुरा के महाराजा थे उनके पिता एक कुशल चित्रकार ,कहानीकार ,रंग शिल्पी , के साथ शात्रीय संगीत के ख्याति लब्ध संगीतज्ञ थे | शास्त्रीय संगीत की पहली तालीम सचिन दा ने अपने पिता से प्राप्त किया | सचिन दा ने लोक संगीत की विधा को अपने महल में रहने वाले दो मुलाजिमो से हासिल किया जिनके नाम माधव् और अनवर था | बचपन से ही बर्मन दा को बंगाल के मधुर लोक संगीत से गहरा लगाव था जिसकी झलक उनके गाये गीतों में साफ़ नजर आता है | '' ओरे माझी मेरे साजन है उस पार मैं मन मार हूँ इस पार ओ मेरे माझी अबकी बार ले चल पार मेरे साजन है उस पार '' सचिन दा ने इस गीत के माध्यम से उस सुहागन नारी के अन्तर मन की व्यथा को अपने स्वर से ऐसा सहेजा है कि लगता है ये व्यथा स्वंय सचिन दा का हो और वो उसमे डूब गये है | लहरों से जूझते माझी की पुकार ने सचिन दा की आत्मा पर गहरा असर किया | नतीजा आज भी जब सचिन दा की आवाज आती है तो दिल को छू लेने वाली पुकार की तरह गुजती है | पिता से शिक्षा प्राप्त करने के बाद सचिन दा ने कलकत्ता में उच्च शिक्षा में दाखिला लिया | सचिन दा के पिता चाहते थे कि दादा वकील बने पर सचिन दादा विदेश में पढ़े और वकील बने | पर सचिन दादा का पूरा मन सुरों के सत-- रंगी जाल में फंस चुका था | लिहाजा वो के सी दे के शागिर्द बन गये और इसके साथ ही रेडियो के लिए गीत गाने लगे | 1932 में उनकी मदभरी आवाज को पहली बार रिकार्ड में सुनाई दिया धीरे -- धीरे इस आवाज का नशा लोगो के जेहन में बसता गया | सचिन दादा लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत गायक के रूप में लोकप्रिय होते चले गये | इसी दौरान उन्हें सौभाग्य से उस्ताद फैयाज खान , अलाउद्दीन खान और अब्दुल करीम खान , जैसे शास्त्रीय सुर स्तम्भों की सोहबत मिल गयी | उसके कुछ दिनों बाद बंगला फिल्म में अपने आवाज का हुनर दिखाने का मौक़ा फिल्म '' बंदनी '' से मिला जिसके संगीतकार व मशहूर कवि क्रांतिकारी काजी नजरुल इस्लाम के निर्देशन में गीत गाया |
    '' जैसी राधा ने माला जपी श्याम की '' ठीक वैसे ही उनकी संगिनी ने जपी उनके लिए 1938 में उनकी शागिर्द मीरा दास गुप्ता सचिन दादा के जीवन में प्रवेश की मीरा दास की अहम भूमिका रही सचिन दा के जीवन में उनके संगीत निर्देशन https://www.youtube.com/watch?v=efeDjIA9nYI में गीत गया और सहायक संगीत निर्देशिका के रूप में सहयोग करना | 1939 में इस सुर संगम के मिलाप से राहुल प्राप्त हुए | राहुल देव बर्मन स्वंय बड़े संगीतकार थे | इसी दरमियाँ सचिन दादा ने अपने संगीत का दायरा बढाया और हिन्दी गीतों में कदम रखा |
    '' प्रेम का पुजारी हम है रस के भिखारी हम है प्रेम के पुजारी
    '' तारो भरी रात थी अपनी गली आबाद थी बचपन की भोली बात थी पहली -- पहली मुलाक़ात थी ""
    ''वो न आये फलक , उन्हें लाख हम बुलाये मेरे हसरतो से कह दो , कि वे ख़्वाब भूल जाए ''
    '' याद करोगे याद करोगे एक दिन हमको यद् करोगे तडपोगे पर याद करोगे ''
    '' चल री सजनी अब क्या सोचे कजरा न बह जाए रोते रोते ''
    '' सुन मोरे बन्धु रे सुन मोरे मितवा सुन मोरे साथी रे होता सुखी पल मैं तू अमरलता तेरी तेरे गले माला बन के पड़ी मुस्काती रे ''
    डा के गाये गीत जीवन के यथार्थ और संवेदन शीलता के चिरं को दर्शाता है जब सचिन दादा माँ की व्याख्या करते है अपने सुरों से
    '' मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में शीतल छाया तू दुःख के जंगल में मेरी राहो के दीये तेरी दो अंखिया गीता से बड़ी तेरी दो बतिया ''
    तो सचिन डा सम्पूर्ण नारी जगत के उन सारे संवेदनाओ को उकेरते है \ आज के ही दिन यह निराला सुर साधक अपने अनन्त यात्रा पे चला गया और छोड़ गया अपना स्वर यह कहते हुए '' बिछड़े सभी बारी -- बारी अरे देखे जमाने की यारी क्या लेके मिले अब दुनिया से आँसू के सिवा कुछ पास नही यहाँ फूल -- फूल थे दामन में यहाँ काटो की भी आस नही मतलब की दुनिया है सारी बिछड़े सभी बारी -- बारी --------------- ऐसे महान संगीत सुर साधक को उनके पूण्य तिथि पर शत शत नमन
    सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

जल , जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाना जरूरी है

कब किसी को तल्खिया अच्छी लगी भूख थी तो रोटिया अच्छी लगी जल उठे मेरी मशक्कत के चिराग होठो की सख्तिया अच्छी लगी क्यों रहे कमजोर पत्ते शाख पर पेड़ को भी अधिया अच्छी लगी |
समाज की वर्तमान दशा -- दिशा को एक ऐसे भंवर जाल में इस देश के नेता , देशी पुजीपतियो के साथ विश्व बाजार के बड़े पुजीपतियो ने मिलकर उलझा दिया है | जहा पर आज के हालात में आम किसान , लघु किसान , दस्तकार व मजूर वर्ग के सारे अधिकारों को ये सततता -- शासन -- प्रशासन में बैठे लोग बड़े सलीके से छीनते जा रहे है | 1990 से पहले इस देश का आम किसान हो या मजदूर ये लोग आत्महत्या नही करते थे पर आज स्थितिया पलट गयी है | आज यह वर्ग एक दो नही इनकी आत्महत्याओं की संख्या कई लाख पार कर चुकी है | ऐसे में आजमगढ़ में '' प्रतिरोध का सिनेमा '' ( फिल्मोत्सव ) की पहल एक सार्थक दिशा देती है जहा वर्तमान समय में चैनलों के जरिये यह बताने की कोशिश की जा रही है कि देश विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है वही विज्ञापनों और सीरियलों के माध्यम से सपनों को उड़ान देने का भरपूर प्रयास भी किया जा रहा है पर वास्तविक धरातल पर भीषण अराजकता , भ्रष्टाचार और दमन का रास्ता अख्तियार करके शासन -- सत्ता अपना खेल रही है ऐसे समय में '' प्रतिरोध का सिनेमा '' प्रासगिक हो जाता है | आजमगढ़ में तीन दिवसीय फिल्मोत्सव ने जहा पर लोगो के संवेदनाओं को झकझोरा है वही पर यह उत्सव कुछ अनुतरित प्रश्न भी छोड़ गया कि यह '' प्रतिरोध का सिनेमा '' या '' सिनेमा का प्रतिरोध '' इस महोत्सव की शुरुआत '' प्रतिरोध की संस्कृति और भारतीय चित्रकला '' विषय पर आधारित अशोक भौमिक के सिनेमा स्लाइड के माध्यम से हुआ यह बताना कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने चित्रकला को अपने कब्जे में ले लिया है | प्रतिरोध की संस्कृति और चित्रकला पर ध्यान केन्द्रित करते हुए विजुअल के माध्यम से साफ़ शब्दों में कहा कि वर्तमान पूजीवादी व्यवस्था ने चित्रकला के द्वारा इस समाज में दो फाट में कर दिया है |
एक तरफ वो पूजीपति जिनके पास यह क्षमता है कि किसी कलाकार की कलाकृति को खरीदकर बाजार में उसे बेचकर लम्बी रकम बना रहे है और दूसरी ओर ऐसे आमजन लोग इस घोर बाजारवाद के कारण कलाकृतियों को देखने से भी वंचित रह जाते है | प्रगतिशील भारतीय चित्रकारों -- चित्त्प्रसाद , जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के योगदान को सुघड़ और प्रभावशाली चित्रों के माध्यम से खासतौर पर चित्र शिल्पी चित्तप्रसाद द्वारा बनाये गये रेखाकन चित्रों ने लोगो को सोचने पर विवश करती नजर आई | विशेष कर वो चित्र जिसमे माँ और बेटे के साथ माँ के हाथो में अनाज की बालिया दर्शाई गयी है वो प्रतीक है इस पृथ्वी की और वो बेटा आम जन की भाषा , संस्कृति और परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है यह चित्र सेमिनार में आये प्रबुद्ध वर्ग को एक चिन्तन और दिशा देने के साथ ही एक प्रश्न छोड़ता है ? कि क्या आम किसान आज इस बाजारवादी संस्कृति में सिर्फ लुटता रहेगा इसके साथ ही मशहूर चित्रकार गोवा , पिकासो के चित्रों के माध्यम से उस काल परिस्थितियों पर आधारित चित्रों के साथ ही आज के चित्रकारी तक आते हुए अशोक भौमिक कहते है कि आज पूरी चित्रकारी बाजारवाद के पंजे में फंसी है और उसके प्रभाव से पूजीवादी चित्रकारी बन गयी है | जैनुद्दीन के चित्रों पर चर्चा के साथ ही देश काल परिस्थिति और जन संघर्षो पर बनाये गये चित्र आकाल , तेभागा , तेलगाना व बागला देश के मुक्ति संग्राम के दौरान अपना प्रतिरोध दर्ज कराता है | | ज स म के प्रदेश सचिव ने प्रतिरोध के सिनेमा पर अपना विचार रखते हुए बोला कि आज बालिऊड द्वारा परोसा जा रहा सिनेमा से आम आदमी का कोई सरोकार नही रह गया है आज का सिनेमा सिर्फ पैसा कमाने के लिए बनाया जा रहा है | पिछले देशको में बने सिनेमा को देखते हुए आम आदमी अपनी समस्याओं से रूबरू होता था | जब बालीउड़ जन सरोकारों से अपना नाता तोड़ने लगा तो बौद्धिक वर्ग इससे दूर होता गया ऐसी परिस्थितियों को मद्दे नजर रखते हुए आमजन को जनसरोकारो से जोड़ने के लिए ही ''प्रतिरोध के सिनेमा '' की शुरुआत की गयी है | इतिहासकार बद्री प्रसाद ने अपने विचार व्यक्त रखते हुए कहा कि आज के हालात को देखते हुए समस्याओं से लड़ने के लिए लघु वृत्त सिनेमा की आवश्यकता है ऐसी ही छोटी छोटी फिल्मो के माध्यम से आवाम में जन जागृति लायी जा सकती है | यह फिल्म उत्सव बलराज साहनी और सामाजिक व अंध विश्वास के खिलाफ लड़ने वाले डा नरेंद्र दाभोलकर को समर्पित रहा | डा दाभोलकर ने अपने जीवन में अंध विश्वास और अंधे धर्मवाद के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज किया दाभोलकर अंध श्रद्दा के जबर्दस्त मुहीम में लग गये महाराष्ट्र में दाभोलकर की जंग रंग लायी और लोगो का अंध विश्वास से नजरिया बदला समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के कार्य को किस तरह एक आन्दोलन की शक्ल दी जा सकती है इसकी एक मिसाल कायम किया डा दाभोलकर ने इसके साथ ही बलराज साहनी ने अपने पूरे जीवन प्रगतिशील धारा पर अडिग रहे | भारतीय जन नाट्य संघ के मंच से उन्होंने एक नई चेतना व फिल्मो के माध्यम से आमजन की भाषा , संस्कृति और परम्परा को सिनेमा के कैनवास पर उकेरा |
'' तकसीम हुआ मुल्क दिल हो गये टुकड़े हर सीने में तूफ़ान वहा भी था यहाँ भी हर घर में चिता जलती थी लहराते थे शोले हर शहर में श्मशान वहा भी था यहाँ भी गीता की कोई सुनता न कुरआन की सुनता हैरान सा ईमान वहा भी था यहाँ भी ''
फिल्म '' गरम हवा '' के जरिये आजादी के वक्त की उन परिस्थितियों से दर्शको को अवगत कराते हुए उन दर्दो का एहसास कराया |
दूसरा दिन विश्व सिनेमा की लघु फिल्मो के महत्व व सहभागिता की चर्चा की गयी इसमें प्रिंटेड रेनबो नाम की फिल्म का प्रदर्शन किया गया | इस फिल्म की कहानी एक अकेली बूढी औरत के जीवन पर आधारित है उसके भीतरी अंतर्मन के साथ ही बाहरी दुनिया के विविध रंगों को ध्वनी के माध्यम से सफल निर्देशित किया गया है | सुरभि शर्मा की निर्देशन में बनी फिल्म '' विदेशिया इन मुम्बई '' के माध्यम से मुंबई गये भोजपुरी भाषी लोगो के दर्द को एहसास कराती है कि अपने ही देश में दोहरी नागरिकता में जी रहे दंश को इसके साथ ही भोजपुरी भाषा महानगरी संस्कृति के बीच आज भी अपने श्रम शक्ति के साथ ही अपनी भाषा , कला और संस्कृति को बचाते हुए इसके प्रचार -- प्रसार के साथ ही व्यवसायिकता में अपने को उपयोग कर रहे है इन प्रवासी भोजपुरी समाज का बड़ा हिस्सा टैक्सी चालको , फैक्ट्री , और भवन निर्माण में लगे मजदूरो से मिलकर बना है | इसके साथ ही मुजफ्फर नगर के हालिया दंगो में पीड़ित उन मुसलमानों के दर्द को बया किया गया है इस फिल्म के निर्माता नकुल साहनी से दर्शको द्वारा अनेक प्रश्न भी पूछे गये | इसके साथ ही युसूफ सईद की फिल्म '' ख्याल दर्पन '' के माध्यम से पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत की खोज के मायने अपने आप में बेहद ही समवेदन शील फिल्म रही | फिल्म '' प्यासा '' ने भी यह दर्शको को सोचने के लिए विवश किया '' देंगे वही जो पायेगे इस जिन्दगी से हम तंग आ चुके है कशमकशे '' एक ऐसे नौजवान के जज्बात को उकेरती संवेदना को प्रस्तुत करती है | तीसरा दिन अभिव्यक्ति की आजादी , लोकतंत्र की रक्षा और जल , जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाना जरूरी है यही प्रतिरोध के सिनेमा का मकसद है | आयोजको द्वारा बच्चो के मनोभावों को उकेरने के लिए पेंटिग प्रतियोगिता के एक अच्छी पहल की गयी है जिससे यह तो पता चलेगा कि आज हमारे बच्चे किस दशा और दिशा के बारे में चिन्तन करते है | इसके साथ ही लुईस फाक्स की '' सामान की कहानी और राजन खोसा की बाल फिल्म '' गट्टू के साथ ही जल जंगल जमीन पर आधारित फिल्मे हमे आज सचेत कर रही है कि आज फिर से एक नई जंग की जरूरत है | यह फिल्म उत्सव अपनी सार्थकता जहा उपस्थित करा रहा था वही कुछ आयोजको के लिए प्रश्न भी छोड़ गया | इस बार इसके बहुत से संस्थापक सदस्यों को किसी तरह की जानकारी नही दी गयी और इस फिल्म उत्सव का प्रचार आयोजको द्वारा नगण्य था साथ ही एक बड़ा प्रश्न यह भी छोड़ गया कि प्रतिरोध की आवाज उठाने वाले लोग तीन सौ चौसठ दिन में भी क्या अपना प्रतिरोध समाज में दर्ज कराते है या सिर्फ इन्ही दिनों में वो सीमित रहते है |

  • सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

राहुल दर्शन , पुरातत्व और इतिहास के मौलिक लेखक

जीवन की जिज्ञासा
आज के इस विराट पृथ्वी के फलक पर प्रकृति अपने गर्भ में अनेको रहस्य छुपाये रहती है | प्रकृति समय -- समय पर इस खुबसूरत कायनात को नये -- नये उपहारों से नवाजती आई है | कभी बड़े वैज्ञानिक , ऋषि , महर्षि , दर्शन वेत्ता साहित्य सृजन शिल्पी और इस खुबसूरत कायनात में रंग भरने वाले व्यक्तित्व से सवारती चली आ रही है | ऐसे ही एक बार सवारा था जनपद आज़मगढ़ को 9 अप्रैल 1893 को केदार पांडये ( राहुल सांकृत्यायन ) के रूप में ...........
राहुल सांकृत्यायन विश्व -- विश्रुत विद्वान् और अनेको भाषाओं के ज्ञाता हुए थे |ज्ञान के विविध क्षेत्रो में उनका अवदान अतुलनीय है | भाषा और साहित्य के अज्ञात गुहाधकारो को आलोकित करने , इतिहास और पुरातत्व के अछूते क्षेत्रो को उदघाटित करने , विश्व -- भ्रमण का कीर्तिमान बनाते हुए यात्रा वृतान्तो का विपुल साहित्य -- सृजन और यात्रा -- वृत्त को '' घुमक्कड़ शास्त्र '' के रूप में शास्त्र -- प्रतिष्ठा देने , इसके साथ ही अपनी जीवन -- यात्रा के पांच भागो में एक अनुपम आत्मकथा लिखने और अनेको महत्वपूर्ण ज्ञात -- अज्ञात महापुरुषों की जीवनी प्रस्तुत करने से लेकर पूरा -- तत्व , इतिहास , समाज दर्शन और अर्थशास्त्र के जीवंत पहलुओ को उदघाटित करने वाली विश्व प्रसिद्द कहानियों और उपन्यासों के सृजन , दर्शन एवं राजनीति पर समर्थ साहित्य रचना के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी , किसान -- आन्दोलन की अगुवाई , राष्ट्रभाषा हिन्दी और जनपदीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक सिपाही की भाँती सक्रिय संघर्ष करते हुए उन्होंने विदेशो के विश्व विद्यालयो के प्रतिष्ठापूर्ण आचार्य के रूप में अध्यापन और अपने समर्थ पद -- संचरण से देश और विदेश के दुर्गम क्षेत्रो को अनवरत देखा -- परखा | राहुल गुरुदेव के '' एकला चलो रे '' का भाव इनके समग्र जीवन पर था | इतने कार्यो को एक साथ सम्पन्न करना एक साधारण आदमी के वश का कार्य नही हो सकता | वे चलते -- फिरते विश्वकोश थे और कर्म शक्ति के कीर्तिमान थे | ऐसे महामानव शताब्दियों के विश्व -- पटल पर अवतरित होते है राहुल उन्ही महापुरुषों की श्रृखला में एक थे | -
राहुल की माता का नाम कुलवन्ती देवी और पिता गोवर्धन पाण्डेय एक बहन तथा चार भाइयो में सबसे बड़े राहुल जी निजामाबाद से मिडिल स्कुल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद वे आजमगढ़ के क्रिश्चियन मिशन स्कूल ( वेस्ली कालेज ) में अंग्रेजी पढने गये | उनका मन वहा नही लगा इसी कारण वे वाराणसी के डी. ए. वी स्कूल में प्रवेश लिया , परन्तु वहा भी वे अधिक दिन टिक न सके |
राहुल जी का बचपन उनके ननिहाल पन्दहां में बीता | नाना रामशरण फौजी रह चुके थे | इसीलिए वो अपने सैनिक जीवन के किस्से -- कहानिया उन्हें सुनाया करते थे | बाल्यावस्था के राहुल को विभिन्न देशो -- प्रदेशो के वर्णनों के किस्सागोई को सुनकर उन्हें अपनी आँखों से देखने की इच्छा ने ही उनमे यायावरी का मानसिक आधार तैयार किया | जिसे कक्षा तीन की पुस्तक में इस्माइल मेरठी के शेर
'' सैर की दुनिया की गाफिल , जिन्दगानी फिर कहा जिन्दगानी गर कुछ रही तो , नौजवानी फिर कहा | शायद ये शेर ही केदार पाण्डेय को राहुल का स्वरूप प्रदान किया |
केदार से राहुल
मेरी जीवन यात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण है कनैला के केदार पांडे का महापंडित राहुल साकृत्यायन में रूपांतरण |
जीवन की यह यात्रा अन्य यात्राओं से कितनी लम्बी है ! कितनी दुर्गम ! कितनी साहसिक ! कितनी रोमांचक ! और कितनी सार्थक !
लेकिन यह यात्रा कोरी '' यात्रा '' नही है और न ही ' यायावरी ' या घुमक्कड़ी ' ! राहुल जी बहुत बड़े घुमक्कड़ थे , इसमें कोई संदेह नही | किन्तु कभी -- कभी लगता है की उन्होंने अपने चारो ओर कवच की तरह घुमक्कड़ी का एक मिथक गढ़ लिया था | केदार पांडे घुमक्कड़ी के कारण महापंडित राहुल साकृत्यायन नही बने ! घुमक्कड़ होने से पहले केदार पांडे घर के भगोड़े थे |
सिद्धार्थ की तरह केदार नाथ भी एक दिन घर से भाग निकले | कारण निश्चय ही और था , लेकिन वह नही जिसका अत्यधिक प्रचार किया है : ' बचपन में '' मैंने नवाजिन्दा बाजीन्दा की कहानी ( खुदाई का नतीजा ) पढ़ी | उसमे बाजीन्दा के मुँह से निकले ''सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहा '' इस शेर ने मेरे मन और भविष्य के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला , यद्धपि वह लेखक के अभिप्राय के बिलकुल विरुद्ध था | '' यह घटना 1903 की है | उस समय केदारनाथकी उम्र दस वर्ष की थी |
'' 1904 की गर्मी चल रही थी | .... बहसा -- बहसी के बाद कई घंटा रात चढ़े तिलक चढा | व्याह भी हो गया | उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह तमाशा था | जब मैं सारे जीवन पर विचारता हूँ तो मालूम होता है , समाज के प्रति विद्रोह का प्रथम अंकुर पैदा करने में इसने पहला काम किया | 1908 ई. में जब मैं 15 साल का था , तभी से मैं इसे शंका की नजर से देखने लगा था , 1909 के बाद से तो मैं गृहत्याग का बाकायदा अभ्यास करने लगा , जिसमे भी इस तमाशे ' का थोड़ा -- बहुत हाथ जरुर था | ... 1909 के बाद घर शायद ही कभी जाता था , 1913 के बाद को तो वह भी खत्म -- सा हो गया , और 1917 की प्रतिज्ञा के बाद तो आजमगढ़ जिले की भूमि पर पैर तक नही रखा |अपनी आत्म कथा '' मेरी जीवन यात्रा '' भाग एक में उन्होंने लिखा है ---- ' उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह '' तमाशा '' था | चार साल बाद ही जब मेरी उम्र 15 वर्ष हुई , तभी मैं '' इस तमाशे '' को शक की नजर से देखने लग गया था | 1909 में अर्थात एक साल बाद ही से मैंने इस बन्धन से निकल भागने के लिए घर को छोड़ देने का संकल्प और प्रयत्न शुरू किया | एक साल और बीतते -- बीतते तो मैंने साफ़ तौर से और निश्चित रूप से यह मानना और कहना शुरू कर दिया कि मेरा विवाह हुआ ही नही | बारह वर्ष की अवस्था से ही उनके मन में घर त्यागने के विचार आने लगे | उन्होंने कई बार गृह -- त्याग का प्रयास किया भी परन्तु परिवार वालो द्वारा पकड लाये जाते | इसी प्रयास में 14 वर्ष की अवस्था में वे कलकत्ता चले गये | जहा से बड़ी मुश्किल से उन्हें लाया गया | काशी के अंग्रेजी स्कूल की मामूली शिक्षा के बाद वे वही संस्कृत का अध्ययन करने लगे | सन 1912 में एक दिन अकस्मात भाग निकले तथा बिहार के सारण जिले के परसा -- मठ में वैष्णव साधू बनकर रहने लगे | कुछ समय बाद वहा के महन्त के उत्तराधिकारी बने तथा वहा उनका नाम राम उदार बाबा पड़ गया | किन्तु वहा भी मन न लगने पर रामानन्दी साधू हो गये तथा रामानन्द एवं रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्तों के गहन अध्ययन के लिए 1913 - 14 में दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े | विद्रोही मन वहा भी नही टिका तो आर्य समाज स्वीकार कर वाराणसी वापस आये तथा संस्कृत व्याकरण एवं काव्य का अध्ययन करने लगे | पुन: 1915 ई. में आगरा भोजदन्त विद्यालय ( आर्य मुसाफिर खाना ) में मौलवी महेश प्रसाद से उर्दू , अरबी एवं लाहौर जाकर फारसी सहित अन्य कई भाषाओं का अध्ययन किया | 1916 ई. में यहाँ की शिक्षा पूरी कर ली | यही पर आजमगढ़ के प्रसिद्ध समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द ( बलदेव चौबे ) से उनकी दोस्ती हुई | राहुल 1916 से 1919 में लाहौर में संस्कृत अध्ययन की दृष्टि से रह रहे थे |इसी दौरान गांधी जी ने 1919 में रौलट एक्ट का विरोध शुरू किया | इसी समय अमृतसर में जालिया वाला बाग़ का खूनी काण्ड भी हुआ | लाहौर में रहने के कारण प्रत्यक्ष राहुल को इन बर्बर घटनाओं की अनुगूज सुनाई पड़ी | उन्होंने आजादी की लड़ाई के नागपुर प्रस्ताव तथा अन्य मसविदो को पढ़ना शुरू किया और स्वंय स्वतंत्रता संग्राम में एक सेनानी के रूप में कूद पड़े | 1921 से 1925 तक राहुल राजनैतिक बंदी के रूप में जेल में रहे | 1922 में इन्हें छ: माह की सजा पर राजनैतिक कैदी के रूप में बक्सर जेल में रक्खा गया | 1923 में ब्रिटिश सरकार विरोधी वक्तव्य देने के कारण उन्हें दो वर्ष की सजा पर हजारीबाग जेल में रक्खा गया | वहा से वो 1925 में मुक्त हुए | इसके बाद राहुल का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर होने लगा |
घुमक्कड़ी जीवन -------- 1927 -- 28 के दौरान वे श्री लंका में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए | वहा वे बौद्ध भिक्षु बन गये तथा पालि भाषा का अध्ययन कर बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर बौद्ध भिक्षु बन गये तथा भगवान बुद्ध के पुत्र '' राहुल '' के नाम को अपने नाम के साथ जोड़ लिया जो न केवल आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा बल्कि पहचान का एक मात्र पर्याय बन गया | उनका मूल गोत्र सांकृत था , अत: उससे अपना तादात्म्य स्थापित करते हुए उन्होंने नाम के आगे बौद्ध परम्परा के अनुसार सांकृत्यायन शब्द भी जोड़ लिया | बौद्ध धर्म ग्रंथो के गहन अध्ययन -- मनन के कारण उन्हें '' त्रिपिटीकाचार्य '' की उपाधि प्रदान की गयी | लंका में उन्नीस माह रहने के बाद बौद्ध धर्म -- ग्रंथो की खोज में वे 1929 में नेपाल होते हुए तिब्बत गये | जहा भीषण कष्टों व बाधाओं को सहते हुए भी अनेक दुर्लभ बौद्ध -- ग्रन्थो की खोज की | राहुल बौद्ध धर्म के प्रचार -- प्रसार हेतु 1932 -- 33 में इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशो की यात्रा पर निकले | 1936 में तिब्बत की तीसरी बार यात्रा करके 1937 में पुन: रूस चले गये | कुछ ग्रन्थो की खोज में 1938 में वे चौथी बार तिब्बत आये वही से वह पुन: सोवियत संघ लौट गये | सोवियत संघ अनेक बार जाने तथा निकट से मार्क्सवाद के प्रभाव को देखने से इनकी रुझान वामपन्थी विचार -- धारा की तरफ हो गयी | भारत आ कर वे पुन: किसानो -- मजदूरो से जुड़ गये तथा 1939 में अमवारी सत्याग्रह के कारण जेल गये | वहा से छूटने के बाद पुन: गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेजे गये | जहा 29 माह तक कारावास में रहे | गृहत्याग के बाद उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी की पचास वर्ष की अवस्था के पहले वे अपने गाँव नही जायेंगे | जिसका पालन करते हुए1943 तक बाहर ही रहे | 1944 से 1947तक लगभग 25 महीने वे सोवियत संघ के लेलिनग्राद विश्व विद्यालय में संस्कृत तथा पालि के प्रोफ़ेसर रहे | वहा उन्होंने एलना से विवाह कर लिया जिससे '' इगोर राहुलोविच्च '' नामक पुत्र का जन्म हुआ | 1947 में जब वे भारत वापस लौटे तो उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन के बम्बई अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया | हिन्दी के प्रश्न को लेकर विवाद हो जाने के कारण उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया | जिसे उन्होंने स्वीकार किया पर राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रश्न पर कोई समझौता उन्हें स्वीकार नही था | सोवियत संघ की तत्कालीन व्यवस्था के कारण वे पत्नी एलना और पुत्र इगोर को भारत नही ला सके | राहुल जी ने मसूरी में हैपीविला के हार्नकिल्प नामक बंगले को खरीदकर वही रहने लगे | अपने एकाकीपन और अपने कार्य में सहयोग के लिए उन्होंने टंकक कमला पेरियार से विवाह कर लिया | जिससे 1953 में पुत्री ज्या तथा 1955 में पुत्र जेता का जन्म हुआ | कमला पेरियार के साथ उनकी तीसरी शादी थी | राहुल जी 1958 में साढे चार माह की यात्रा पर चीन गये | उसी वर्ष '' मध्य एशिया का इतिहास '' नामक उनकी पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्रदान किया गया |1959 में वे कमला जी के अनुरोध पर मसूरी छोड़कर दार्जिलिंग चले गये | उसी वर्ष उन्हें श्री लंका के विश्व विद्यालय में संस्कृत एवं बौद्ध दर्शन विभाग का अध्यक्ष बनाया गया जिस पद पर वे मृत्युपर्यन्त रहे | Inline image 2हिन्दी की सेवा के लिए भागलपुर विश्व विद्यालय ने अपने प्रथम दीक्षान्त समारोह में उन्हें '' डाक्टरेट '' की मांड उपाधि से सम्मानित किया | राष्ट्रभाषा परिषद बिहार ने '' मध्य एशिया का इतिहास '' के लिए पुरस्कृत किया | काशी विद्वत सभा ने उन्हें '' महापंडित '' का अलकरण दिया तो हिन्दी साहित्य सम्मलेन , प्रयाग ने साहित्य वाचस्पति का 26 जनवरी 1961 को भारत सरकार ने पद्दम भूषण का अलंकरण प्रदान किया |
सरस्वती ने अपने हीरक जयन्ती समारोह के अवसर पर मानपत्र देकर सम्मानित किया | जो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को सामने लाता है |मानपत्र में लिखा था ---------- ''आपने इस शती के तीसरे दशक में जब सरस्वती में लेख लिखना प्रारम्भ किया तब आचार्य द्दिवेदी ने साश्चर्य जिज्ञासा की थी कि हिन्दी की यह नवीन उदीयमान प्रतिभा कौन है ? तब से आप बराबर सरस्वती की सेवा करते आ रहे है | आप संस्कृत, हिन्दी और पालि के विद्वान् है | तिब्बती , रुसी और चीनी भाषाओं में निष्ठात है | राजनीति , इतिहास और दर्शन शास्त्र के पंडित है | आपने तिब्बती भाषा में सैकड़ो अज्ञात संस्कृत ग्रंथो का उद्दार किया | हिन्दी के प्रमुख बौद्ध ग्रंथो का अनुवाद कर हिन्दी का भण्डार भरा | '' एशिया का वृहद इतिहास ( भाग एक व दो ) लिखकर हिन्दी के बड़े अभाव को पूरा किया | उपन्यास , कहानी , निबन्ध यात्रा -- साहित्य लिखकर आपने अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया | आपकी निष्ठा हम सबके लिए अनुकरणीय है | आप केवल हिन्दी संसार के ही नही बल्कि सारे देश के गौरव है इस अवसर पर सरस्वती के पुराने लेखक तथा देश के महान पण्डित एवं साहित्यकार के रूप में आपका सम्मान कर हम अपने को गौरवान्वित समझते है | विराट व्यक्तित्व ------ राहुल जी का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा विविधापूर्ण था | कहा जाता है की उन्हें देशी -- विदेशी 36 भाषाओं का ज्ञान था | विभिन्न भाषाओं को सीखने के लिए उन्होंने दिन -- रात परिश्रम किया तथा अनेक कष्ट शे | उन्हें बंजारों की भाषा सीखने के लिए उनकी भैस व मुर्गिया चरानी पड़ी व उनकी मार भी सहनी पड़ी | प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने एक प्रसंग में कहा था '' राहुल जी ने अपना सारा काम चाहे वह पालि सम्बन्धी हो या प्राकृत , अपभ्रंश सम्बन्धी हो या संस्कृत अपनी सारा ज्ञान को हिन्दी में निचोड़ दिया था | '' निराला के शब्दों में कहे तो -- हिन्दी के हित का अभिमान वह , दान वह प्रगतिशीलता का प्रश्न नामक निबन्ध में राहुल जी ने लिखा है | '' आज के साहित्यिक कलाकार या विचारक का लक्ष्य बिंदु जनता होनी चाहिए '' यह जनता उनका लक्ष्य बिंदु ही नही प्रस्थान बिंदु भी था | इसी के बीच से और इसी को ध्याम में रखकर उन्होंने साहित्य के विषय में अपने विचार व्यक्त किये तथा कुछ साहित्यकारों पर मूल्याकनपरक टिप्पणिया की | इस बात की उन्हें कभी चिंता नही रही , कि लोग उन पर प्रचारवादी होने का आरोप लगायेंगे | भाषा के सम्बन्ध में राहुल जी का विचार था की भाषा विशिष्ठ सम्पन्न कुछ लोगो की सर्जना नही है बल्कि जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है | जनता द्वारा गढ़े गये शब्दों , मुहावरों और कहावतो को छोड़कर यदि साहित्य रचना का प्रयास किया गया तो वह साहित्य निष्प्राण होगा | इसे लेकर दो मत नही हो सकते है | यदि लेखक चाहता है कि उसकी भाषा अजनबी न हो उसमे विद्युत् धारा दौड़ती रहे तो उसे जनभाषा से सम्पर्क बनाकर रखना होगा | इसी कारण वे जनपदीय बोलियों के साहित्य और शब्दावली को आगे बढाने के पक्षधर थे |
राहुल जी ने जिस प्रकार की विषम परिस्थितियों में रहकर हिन्दी के सेवा की वह अनुकरणीय है | एक ओर जहा उन्होंने विभिन्न विषयों पर पुस्तके लिखी , वही शासन शब्दकोश , तिब्बती -- हिंदी शब्दकोश जैसे शब्दकोशों का निर्माण तथा तिब्बती , चीनी , रुसी आदि भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद का भी कार्य किया | हिन्दी उनके जीवन में स्थायी - भाव की तरह रची - बसी रही | उन्होंने इस बात को स्वंय भी स्वीकार किया है | '' अन्य बातो के लिए तो मैं बराबर परिवर्तन शील रहा , किन्तु मेरे जीवन में एक हिन्दी का स्नेह ही ऐसा है जो स्थायी रहा है ''
यह एक सामान्य नियम है कि हर महान व्यक्ति की तत्कालीन समाज द्वारा उपेक्षा तथा अवहेलना की जाती है और राहुल जी भी इससे बच नही सके |
डा . मुल्कराज आनन्द ने लिखा है कि मैं रूस के कुछ कवियों को जानता हूँ जिन्होंने राहुल के शब्दों का दाय ग्रहण किया और उनकी वाणी जुल्म के विरुद्द गूंज उठी तथा समतावादी समाज -- निर्माण में सहायक हुई | राहुल के बहुआयामी विलक्षण व्यक्तित्व में बड़ी महानता थी | डा भागवत शरण उपाध्याय के अनुसार वह स्वशिक्षित राहुल नियमित पाठशाला पाठ्यक्रम को तिलांजली देकर संस्कृत से अरबी , फ़ारसी से अंग्रेजी , सिंहली से तिब्बती भाषाओं में भ्रमण करता है | उनमे अदभुत ग्रहण शक्ति थी , जिससे उन्होंने इन भाषाओं के ज्ञान -- भण्डार में घिसी -- पिटी बातो को छोड़कर उनकी मेधावी प्रज्ञा के सर्वश्रेठ सर्वोत्तम और सबसे जटिल सारतत्वों का मधु संचय निचोड़ निकाला ( राहुल स्मृति 427) अन्य सभी बातो को अलग कर दे तो तिब्बत से प्राचीन ग्रंथो की जो थाती राहुल भारत ले आये थे वे ही उनको अमरता प्रदान करने के लिए पर्याप्त है |
राहुल की कहानिया अन्यो की भाँती व्यक्ति की कहानिया नही , अपितु जातियों और युगों की कहानिया है | जैसे अपने दो डग से राहुल ने धरती का कोना -- कोना नाप डाला , उसी प्रकार अपनी अन्तर्प्रज्ञा से उन्होंने 8000 वर्ष के अतीत का भावबोध किया और अपने मांस -- चक्षु से उस कालखण्ड के बदलते युगों के नर -- नारी , परिवार -- समाज , गण -- समूह और राजशाही
सामन्तशाही , खान -- पान एवं संस्कृतियों का प्रत्यक्ष दर्शन किया | आधुनिक युग में केवल वे ही ऐसे अधिकारी व्यक्ति थे जो यह साधिकार कह सकते थे कि पिछले आठ हजार वर्षो के इतिहास को मैं अपनी आँखों से स्पष्ट देख रहा हूँ | इसी विराट दृष्टि का दर्शन उनकी '' वोल्गा से गंगा '' की बीस कहानियों में देखने को मिलता है |
'' वोल्गा से गंगा की कहानियों का फलक अन्तराष्ट्रीय है | मध्य एशिया से वोल्गा नदी के तटवर्ती भू -- क्षेत्र से एशिया के ऊपरी भू -- भाग , पामीर के पठार , ताजकिस्तान , अफगानिस्तान -- ग्नाधार ( कंधार ) कुरु , पंचाल , श्रास्व्ती , अयोध्या ,नालंदा , कन्नौज , अवन्ती ( मालवा ) दिल्ली , हरिहर क्षेत्र , मेरठ , खनु पटना के विस्तृत भू - खण्ड और 6000 ई . पूर्व से लेकर 1942 ई की भारतीय सवतंत्रता की महाक्रान्ति तक के कालखण्ड को इसमें समेटा गया है | इस संग्रह में बीस कहानिया है जो सभी अपने में स्वतंत्र है पर वे कमश: एक ऐतिहासिक विकास का चित्र प्रस्तुत करती है जिसमे आर्य जाति के विकास की कथा अंकित है |
'' मराठी लेखक डा प्रभाकर ताकवाले इन कहानियों के सम्बन्ध में लिखते है :
'' वोल्गा से गंगा '' प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक ललित -- कथा संग्रह की एक अनोखी कृति है | हिन्दी साहित्य में इतना विशाल आयाम लेकर लिखी यह प्रथम कृति है ----- कामायनी में प्रसाद जी लाक्षणिक अवगुठन के प्रेमी होने के कारण उतने सुलझे हुए नही लगते , जितने राहुल जी '' वोल्गा से गंगा '' में है | राहुल जी आम आदमी की ऊँगली पकड़कर ठीक ''आदम और इव '' तक पाठको को ले गये है --- यह अदभुत कहानी -- संग्रह एक नई दुनिया एक मटिरियल इन्टरप्रटेशन आफ हिस्ट्री -- हमारे सामने उपस्थित करता है | कला , इतिहास , समाजशास्त्र , भूगोल , राजनीति , विज्ञान , दर्शन और न जाने कितने ज्ञान -- विज्ञानों के अंगो का दोहन इन कहानियों में हमे मिलता है ( राहुल स्मृति पृष्ठ 167 )
राहुल जी का एक पुराना कहानी संग्रह '' सत्तमी के बच्चे '' है इसकी कहानिया भी उपयुक्त दोनों कहानी संग्रहों के सांचे में ढली है | इसमें राहुल जी ने अपने ननिहाल '' पन्दहां ग्राम की बाल स्मृतियों को कथा के रूप में चित्रित किया है | सत्तमी के बच्चे संग्रह की सबसे मार्मिक कहानी '' सत्तमी के बच्चे ही है | उस गाँव की सत्तमी अहिरिन की दयनीय आर्थिक स्थिति का चित्रण किया गया है जो अपने बच्चो को भर पेट भोजन और दवा तक का प्रबन्ध नही कर पाती है और उसके चार बच्चे अकाल ही काल कलवित हो जाते है |
'' डीहबाबा '' की कहानी में जीता भर के माध्यम से भर जाती की कर्मठता और स्वामिभक्ति के साथ उनकी दयनीय स्थिति का चित्रण किया है |
'' पाठक जी '' उनके नाना का चरित्रगत संस्मरण है और पुजारी जी इसी प्रकार का उनके पिता जी का संस्मरण है | इनका भी उद्देश्य उच्च वर्ग की ब्राह्मण जाती की ठसक और मिथ्या अंह भावना के साथ उनकी भी गरीबी का चित्रण करना है | ''जैसिरी भी पन्दहां के ही एक सच्चे चरित्र है जिनमे अदभुत प्रतिभा थी | पर गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी प्रतिभा का विकास नही हो पाया | दलसिंगार राहुल जी के रिश्ते में पड़ने वाले नाना थे | ...........उनके रोचक स्मरण इसमें है | स '' सतमी के बच्चे '' कहानी संग्रह में पात्रो के जीवन संघर्ष और आर्थिक संघर्ष को चित्रित किया गया है | एक प्रकार से एक छोटे ग्राम्य जीवन के पट पर बुनी गयी ये कहानिया विश्व के विशाल फलक पर चित्रित होने वाली '' वोल्गा से गंगा '' की कहानियों की एक पृष्ठभूमि है |
इस दृष्टि से चार कहानी संग्रहों के साथ उन्होंने नौ उपन्यास ------
1--- बाईसवी सदी 1923 -- 2--जीने के लिए 1940 -- 3 सिंह सेनापति 1944--- 4 -- जय यौधेय 1944 -- 5 -- भागो नही , दुनिया को बदलो 1944 -- 6-- मधुर स्वपन 1944 - 7 -- राजस्थानी रनिवास 1953 -- 8 -- विस्मृत यात्री 1954 --- 9 -- दिवोदास 1960 -- 10 -- निराले हीरे की खोज 1965 -- इनमे '' बाईसवी सदी ' और ' भागो नही दुनिया को बदलो ' में औपन्यासिक तत्व तो है पर वस्तुत: ये साम्यवाद के परचार्थ लिखी गयी पुस्तक है जिनका साहित्यिक दृष्टि से कम राजनितिक विचार धारणा की दृष्टि से अधिक महत्व है |
अपने वैचारिक परिवर्तन की दिशाओं का संकेत तो उनकी जीवन -- यात्रा के पृष्ठों पर मिलता ही है , साथ ही वे अपनी दुर्बलताओ को भी बेबाक ढंग से उसमे प्रगत करते चलते है | उसमे छिपाव और दुराव का बराबर अभाव मिलता है | वे अपनी सीमाओं को भी प्रगत करते है : वे व्यवहार में विनम्र एवं मृदुभाषी अवश्य थे पर अपनी वैचारिक मान्यताओं में इतने दृढ थे की उसमे अव्यवहारिकता का दोष लगना स्वाभाविक था ( खंड 4 पृष्ठ 449 ) राहुल जी के सर्जनात्मक साहित्य में कथा और यात्रा साहित्य के पश्चात उनके जीवनी साहित्य का स्थान माना जा सकता है | हिन्दी में जब जीवनी साहित्य का अभाव था , उस काल के प्रमुख जीवनी लेखको में उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है |
इस प्रकार हम यह कह सकते है की राहुल दर्शन , पुरातत्व और इतिहास के क्षेत्र में भी मौलिक लेखक है जो अनुसन्धान के लिए संदर्भ सामग्री छोड़ गये है | उनके विचारों से सहमत होना न सहमत होना , दूसरी बात है पर उनके ज्ञान का उपयोग तथा उन पर आगे कार्य करना विद्वत -- जगत की महती आवश्यकता है | हमे गर्व है राहुल सर्व समाज और सम्पूर्ण दुनिया के तो थे है पर उनकी जन्मभूमि हमारे पास है | हम आभारी है जायसी के हस्ताक्षर डा कन्हैया सिंह जी का जिन्होंने राहुल जी पे लिखने के लिए मुझे सामग्री उपलब्ध कराई |
-सुनील दत्ता स्वतंत्र विचारक व पत्रकार

एक्स रेज के अविष्कारक -------- विल्हेलम कानराड रौटजन

एक्स रेज ( यानी एक्स किरणों ) का नाम जनसाधारण भी जानता है | इसका उपयोग चिकित्सा शास्त्र से लेकर अन्य दुसरे क्षेत्रो में भी बढ़ता जा रहा है | इसका आविष्कार प्रोफ़ेसर विल्हेलम कानराड रौटजन अपनी प्रयोगशाला में वैकुअम ट्यूब ( हवा निकालकर पूरी तरह से खाली कर दिए ट्यूब ) में बिजली दौड़ाकर उसके वाहय प्रभावों को देखने के लिए प्रयोग कर रहे थे | खासकर वे इस ट्यूब से निकलने वाले कैथोड किरणों का अध्ययन करनी चाहते थे | इसके लिए उन्होंने ट्यूब को काले गत्ते से ढक रखा था | जिससे उसकी रौशनी बाहर न जाए | प्रयोग के पूरे कमरे में अन्धेरा कर रखा था , ताकि प्रयोग के परिणामो को स्पष्ट देखा जा सके | ट्यूब में बिजली पास करने के बाद उन्होंने यह देखा कि मेज पर ट्यूब से कुछ दुरी पर रखा प्रतिदीप्तीशील पर्दा चमकने लगा |
रौटजन के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा | उन्होंने ट्यूब को अच्छी तरह से देखा | वह काले गत्ते से ढका हुआ था | साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि ट्यूब के पास दूसरी तरफ पड़े बेरियम प्लेटिनोसाइनाइड के कुछ टुकड़े भी ट्यूब में विद्युत् प्रवाह के साथ चमकने लग गये है | रौटजन ने अपना प्रयोग कई बार दोहराया | हर बार नलिका में विद्युत् प्रवाह के साथ उन्हें पास रखे वे टुकड़े और प्रतिदीप्ती पर्दे पर झिलमिलाहट नजर आई | वे इस नतीजे पर पहुचे कि ट्यूब में से कोई ऐसी अज्ञात किरण निकल रही है , जो गत्ते की मोटाई को पार कर जा रही है | उन्होंने इस अज्ञात किरणों को गणितीय चलन के अनुसार एक्स रेज का नाम दे दिया | बाद में इसे रौटजन की अविष्कृत किरने रौटजन रेज का नया नाम दिया गया | लेकिन तब से आज तक रौटजन द्वारा दिया गया ' एक्स रेज ' नाम ही प्रचलन में है | बाद में रौटजन ने एक्स रेज पर अपना प्रयोग जारी रखते हुए फोटो वाले खीचने वाले फिल्म पर अपनी पत्नी अन्ना बर्था -- का हाथ रखकर एक्स रेज को पास किया | फोटो धुलने पर हाथ की हड्डियों का एकदम साफ़ अक्स फोटो फिल्म पर उभर आया | साथ में अन्ना बर्था के उंगलियों की अगुठी का भी अक्स आ गया | मांसपेशियों का अक्स बहुत धुधला था | फोटो देखकर हैरान रह गयी अन्ना ने खा कि मैंने अपनी मौत देख ली ( अर्थात मौत के बाद बच रहे हड्डियों के ढाचे को देख लिया | एक्स रेज के इस खोज के लिए रौटजन को 1901में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के लिए निर्धारित पहला नोबेल पुरूस्कार मिला | रौटजन ने वह पुरूस्कार उस विश्व विद्यालय को दान कर दिया | साथ ही उन्होंने अपनी खोज का पेटेन्ट कराने से भी स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि वे चाहते है कि इस आविष्कार के उपयोग से पूरी मानवता लाभान्वित हो | रौटजन का जन्म 27 मार्च 1845 में जर्मनी के रैन प्रांत के लिनेप नामक स्थान पर हुआ था | उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हालैण्ड में हुई तथा उच्च शिक्षा स्विट्जरलैंड के ज्युरिच विद्यालय में हुई थी | यही पर उन्होंने 24 वर्ष की आयु में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की | वह से निकलकर उन्होंने कई विश्व विद्यालय में अध्ययन का कार्य किया | 1888 में वे बुर्जवुर्ग विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफ़ेसर नियुक्त किये गये | यही पर 1895 में उन्होंने एक्स रेज का आविष्कार किया | 1900 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय चले गये | वह से सेवा निवृत्त होने के बाद म्यूनिख में 77वर्ष की उम्र में इस महान वैज्ञानिक की मृत्यु हो गयी | जीवन के अंतिम समय में उन्हें ऑटो का कैंसर हो गया था | आशका जताई जाती है कि उन्हें यह बीमारी एक्स रेज के साथ सालो साल प्रयोग के चलते हुई थी |
=सुनील दत्ता

ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान

' जिन्दगी कैसी है पहेली , कभी तो हंसाये कभी ये रुलाये कभी देखो मन नही चाहे पीछे -- पीछे सपनों के भागे एक दिन सपनो का राही चला जाए सपनों के आगे कहा
जीवनके इस फलसफे की अभिव्यक्ति देने वाले मन्ना डे संगीत की दुनिया को अलविदा कह गये | कलकत्ता महानगर के उत्तरी इलाके का हिस्सा जो एक ओर चितरजन एव्नु और दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द स्ट्रीट से घिरा है | हेदुआ के नाम से जाना जाता है जहा आज भी नूतन के साथ पुरातन के दर्शन होते है | हेदुआ के इस सडक का नाम शिमला स्ट्रीट है -- शिमला स्ट्रीट की एक गली मदन बोसलेन की गलियों की पेचीदा सी गलिया चंद दरवाजो पर पैबंद भरे टाटो के पर्दे और धुंधलाई हुई शाम के बेनाम अँधेरे सी गली से इस बेनूर से शास्त्रीय संगीत के चिरागों की शुरुआत होती है एक भारतीय दर्शन का पन्ना खुलता है और प्रबोध चंद डे ( मन्ना डे ) का पता मिलता है | 1 मई 1920 को श्री पूर्ण चन्द्र डे व महामाया डे के तीसरे पुत्र प्रबोध चन्द्र डे के रूप में जन्म लिया | बाल्यकाल में प्रबोध को लोग प्यार से मन्ना कह के बुलाते थे | मन्ना दा के घर का माहौल सम्पूर्ण रूप से संगीतमय था | उनके चाचा श्री के सी डे स्वंय बड़े संगीतकार थे इसके साथ ही उस घर में बड़े उस्तादों का आम दरफत था जिसका गहरा असर मन्ना के बाल मन पर पडा उसका असर बहुत ही गहरा था | हेदुआ स्ट्रीट के एक किनारे खुबसूरत झील थी लार्ड कार्व्लिस नाम से और दूसरी ओर स्काटेज क्रिश्चियन स्कूल उसी में इसकी शिक्षा दीक्षा हुई | मन्ना दा अपने कालेज के दिनों में अपने दोस्तों के बीच गाते थे | इसी दरमियाँ इंटर कालेज संगीत प्रतियोगिता हुई उसमे मन्ना दा ने तीन वर्ष तक सर्वश्रेष्ठ गायकी का खिताब अपने नाम कर लिया | यही संगीत प्रतियोगिता मन्ना डे के जीवन का पहला टर्निग प्वाइंट है | इसके बाद ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी अपने चाचा संगीतकार श्री के सी डे के चरणों मैं बैठकर अपनी संगीत साधना की शुरुआत की और अपने संगीत को दिशा देने लगे | मन्ना डे के बड़े भाई प्रणव चन्द्र डे तब तक संगीतकार के रूप में स्थापित हो चुके थे | दुसरे बड़े भाई प्रकाश चन्द्र डे डाक्टर बन चुके थे और मन्ना के पिता अपने तीसरे बेटे को वकील बनाना चाहते थे | पर नियति के विधान ने तो तय कर दिया था कि प्रबोध चन्द्र डे को मन्ना डे बनना है | ताल और लय , तान और पलटे , मुरकी और गमक का ज्ञान उनके प्रथम गुरु के सी डे से मिला | इसके साथ ही विकसित हुआ गीत के शब्दों के अर्थ और भाव को मुखरित करने की क्षमता इसके साथ ही मिला अपने चाचा जी की आवाज का ओज और तेजस्विता , स्वर में विविधता सुरों का विस्तार उन पर टिकने की क्षमता ये सम्पूर्णता मन्ना दा ने अपने साधना से प्राप्त किया | नोट्स लिखने का ज्ञान मन्ना ने अपने बड़े भाई प्रणय दा से प्राप्त किया | इसके साथ ही अपने चाचा के सी डे के साथ संगीत सहायक के रूप में कार्य करते हुए युवक मन्ना के जीवन में एक नई करवट ली 1942 में मन्ना दा बम्बई आ गये और यहाँ के सी दास और एस डी बर्मन को भी असिस्ट करने लगे | अब वो स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशक बनना चाहते थे उन्होंने बहुत सारी फिल्मो में अपना संगीत भी दिया | परिस्थितियों की प्रतिकूलता अक्सर आदमी के इरादों को तोड़ता है युवक मन्ना भी ऐसी मन: स्थिति से गुजर रहे थे | '' हँसने की चाह ने मुझको इतना रुलाया है '' हताशा और मायूसी से जूझते हुए मन्ना ने यह सोचा होगा कि वो समय भी आयेगा जब सम्पूर्ण दुनिया में मेरे गाये गीत लोग गुनगुनाएगे | उन्होंने अपना कार्य करते हुए शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अब्दुल रहमान व उस्ताद अमानत अली खान साहब से शात्रीय संगीत सिखने का कर्म जारी रखा | 1953 में मन्ना दा की जीवन में दो टर्निग प्वाइंट आता है वही से ये संगीत का सुर साधक अपनी संगीत की यात्रा पर बे रोक टोक आगे की ओर अग्रसर होता है | प्रथम प्वाइंट इनका सुलोचना कुमारन से विवाह करना और दूसरा वो संगीत का इतिहास बनाने वाला तवारीख जब वो राजकपूर जी के लिए अपनी आवाज देते है वही से मन्ना दा की एक नई संगीत यात्रा की शुरुआत होती है |
राजकपूर की फिल्म '' बुट्पालिश '' के गीत से जहा मन्ना दा से दुनिया की तरक्की के लिए नई सुबह का आव्हान करते है '' रात गयी फिर दिन आता है इसी तरह आते -- जाते ही ये सारा जीवन जाता है ये रात गयी वो नई सुबह आई '' से मानव जीवन में आशावाद की एक नई किरण को जन्म देता है वही पर प्यार का इकरार भी करना जानता है '' आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम से मिले वीराने में भी आ जायेगी बहार '' '' प्यार हुआ इकरार हुआ फिर प्यार से क्यु डरता है दिल '' गाकर नौजवानों को प्यार की परिभाषा पढाते हुए आगे निकल आते है | शंकर जयकिशन ने ख्याति लब्ध पंडित भीमसेन जोशी के साथ इनकी संगत भी कराई |
जो प्रसिद्धि मन्ना दा को बंगला फिल्म जगत से मिला वो हिन्दी फिल्म जगत से कम था या अधिक यह कहना बहुत कठिन है | एक सवाल खड़ा होता है कि मन्ना ने बंगला फिल्म जगत को छोड़कर मुम्बई का रुख क्यों किया | मुंबई आने के बाद ही मन्ना का हर स्वरूप का एक्सपोजर हुआ मन्ना का अगला दौर एक अनोखा दौर था जहा पर मन्ना ने भारतीय भाषाओ में गीत गाये उर्दू में गजल , उडिया , तेलगु , मलयालम , कन्नड़ , भोजपुरी और बंगला भाषाओ में इस विविधता के कारण मन्ना दा को एक न्य फ्रेम मिला | एक और सवाल की पाश्वर गायकी के साथ ही मन्ना दा ने गैर फ़िल्मी गीतों को गाया है | जिसके अंदाज बड़े निराले है '' सुनसान जमुना का किनारा प्यार का अंतिम सहारा चाँदनी का कफन ओढ़े सो रहा किस्मत का मारा किस्से पुछू मैं भला अब देखा कही मुमताज को मेरी भी एक मुमताज थी | दूसरी तरफ अपने गैर फिल्मो से नारी संवेदनाओं का एक ऐसा दर्शन दिया '' सजनी -------- नथुनी से टूटा मोती रे धुप की अगिया अंग में लागे कैसे छुपाये लाज अभागी मनवा कहे जाए भोर कभी ना होती रे
मन्ना डे ऐसे फनकार थे जो कामेडियन महमूद के लिए भी गाते थे और हीरो अशोक कुमार के लिए भी चाहे वो शास्त्रीय संगीत हो या किशोर कुमार के साथ '' फिल्म पड़ोसन '' की जुगल बंदी चाहे वो एस डी बर्मन , रोशन या शंकर जयकिशन सभी ने उनके हुनर को सलाम किया | मन्ना साहब ने जिन किरदारों के लिए गीत गाये वो किरदार इतिहास के पन्नो पर दस्तावेज बन गये | फिल्म '' उपकार '' में प्राण ने उसमे मलंग बाबा की सकारत्मक भूमिका की और मलंग बाबा एक गीत गाता है
'' कसमे वादे प्यार वफा सब बाते है बातो का क्या कोई किसी का नही ये झूठे नाते है नातो का क्या इस गीत ने प्राण का पूरा किरदार ही बदल दिया और मलंग बाबा हिन्दी सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया | 1971 मन्ना डे को पद्म श्री से सम्मानित किया गया 2005 में पदम् भूषण से नवाजा गया और इस सुर साधक को 2007 में दादा साहेब फाल्के एवार्ड से समानित किया गया | आज ये सुर साधक चिर निद्रा में विलीन हो गया यह कहते हुए
गानेर खाताये शेशेर पाताये एई शेष कोथा लिखो एक दिन -- आमी झिलाम तार पोरे कोनो खोज नेई | इस सुर साधक को शत शत नमन
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

भडका रहे हैं आग लब-ए-नग़्मगर से हम , ख़ामोश क्यों रहेंगे ज़माने के डर से हम -- साहिर

' मेरे सरकश तराने सून के दरिया ये समझती है कि शायद मेरे दिल को इश्क के नगमो से नफरत है '' साहिर एक बेमिशाल अल्फाजो का जादूगर , तरक्की पसन्द इंकलाबी शायर जिनके दिलो -- दिमाग में गूजता रहता कि ये दुनिया कैसे खुबसूरत बने | एक फनकार सिर्फ अदब और अदीब की दुनिया में रहते हुए वो अपने हर हर्फो में जिन्दगी के मायने तलाशते हुए वर्तमान के साथ सवाल खड़ा करता है कि जीवन को कैसे जिया जाए वह आने वाले कल के महरलो से अवगत कराता है | ऐसी ही इस दुनिया में एक अजीम हस्ती थी साहिर लुधियानवी उस बेनजीर शक्सियत का असली नाम अब्दुल हयी साहिर था | 8 मार्च 1921 को लुधियाना के एक जागीरदार घराने में उनकी पैदाइश हुई थी | साहिर का बचपन बहुत ही कड़े संघर्षो से भरा पड़ा था कारण कि उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी जिसके चलते साहिर की माँ ने घर छोड़ दिया और अपनी जिन्दगी जीने के लिए रेलवे लाइन के किनारे झोपड़ पट्टी में रहकर अपने सहारे को मजबूत इरादे वाला बनाने के लिए मेहनत - मजदूरी करने लगी | साहिर का बचपन इन्ही रेलवे लाइनों के किनारे गुजर रहा था जहा पर वो देखते कि लाइनों के बीच औरते और बच्चे कोयला और कचरा बीनते रहते साहिर ने पूरा बचपन जीवन के संघर्ष को बड़े नजदीक से देखा , तभी वो बोल पड़े '' कसम उन तंग गलियों की वह मजदुर रहते है '' इन्ही झंझावतो के बीच लुधियाना के खालसा स्कूल में साहिर ने अपनी शिक्षा की शुरुआत की और माध्यमिक की शिक्षा पूरी करते हुए अपनी शेरो -- शायरी को परवान चढाते रहे | उन हालातो से लड़ते हुए साहिर लिखते है '' आज से मैं अपने गीतों में आतिश - पारे भर दूंगा माध्यम लचीली तानो में सारे जेवर भर दूंगा जीवन के अंधियारे पथ पर मशाल ले के निकलू धरती के फैले आँचल में सुर्ख सितारे भर दूंगा "" ऐसी सुलगती आग से उस इंकलाबी शायर का एक नया चेहरा सामने आता है | 1939 में साहिर ने गवर्मेंट कालेज में स्नातक की शिक्षा के लिए दाखिओला लिया | तब तक साहिर के नज्मो और शायरी की चर्चा पूरे भारत में फ़ैल चुकी थी | उसी कालेज में उस दरमियान अमृता प्रीतम भी अपनी पढ़ाई पूरी कर रही थी और वो साहिर के शेरो -- शायरी की बहुत बड़ी प्रशंसक थी और अमृता के दिल की धरती पर साहिर के प्यार भरे नज्म अंकित हो चला था | अमृता छात्र जीवन में ही साहिर से प्यार करने लगी थी और साहिर का भी झुकाव उनकी तरफ हो चुका था | अमृता के दिल पर साहिर के नज्म अपना नाम लिखने लगे और अमृता ने अपना दिल साहिर के हवाले कर दिया | पर साहिर से प्यार करना अमृता के घर वालो को रास नही आया कारण था धन और वैभव जो साहिर के पास नही था अगर था कुछ तो अदब और अदीब का खजाना उसको कौन देखता है इसके साथ ही इन दोनों तरक्की पसंद प्रेमियों के आडे आया धर्म की दीवार जिसको ये लोग तोड़ नही पाए जिसके चलते अमृता को उनका प्यार नसीब नही हुआ जिसके हर पन्नो पर अमृता ने पूरी इबारत लिख दी | उसी वक्त वो इंकलाबी शायर अपने दिल के जज्बात को लिखते हुए कहता है '' मैंने जो गीत तेरे प्यार की खातिर लिखे आज उन गीतों को बाजार में ले आया हूँ आज दूकान में नीलाम उठेगा उनका हमने जिन गीतों पर रक्खी थी मुहब्बत की अशार आज चाँदी के तराजू पे तुलेगी हर चीज मेरे अशरार , मेरी शायरी , मेरा एह्साह '' साहिर के शायरी में जहा आम आदमी के संघर्षो के लिए निकले शब्दों की अभिव्यक्ति धधकती ज्वाला नजर आती है वही पर एक प्यार भरा मासूम दिल भी नजर आता है जहा प्यार के रूमानियत से भरे अलफ़ाज़ यह एह्साह दिलाते है कि भोर में पड़ी फूलो और पत्तो पर गिरी ओस की बुँदे सूरज के रौशनी पड़ते ही शबनम की मोतिया बनी बिखरी होती है जिसके एक -- एक कण से प्यार के नये एह्साह के साथ ही विद्रोह का स्वर फूट पड़ा हो | जो एक नई दुनिया को न्य प्रकाश दे रहा हो | लुधियाने में साहिर ने घर चलाने के लिए छोटे -- मोटे काम किये उसके बाद वो 1943 में लाहौर आ गये | उसी वर्ष उनके नज्मो का संग्रह '' तल्खिया '' छपी इसके छपते ही साहिर की ख्याति बड़े शायरों में होने लगी | तल्खिया में वो लिखते है कि
ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़तही सही तुझको इस वादी-ए-रंगींसे अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा तो दूसरी तरफ चलो इक बार फिर से अज़नबी बन जाएँ हम दोनों
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखो दिलनवाज़ी का न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से न मेरे दिल की धड़कन लडखडाये मेरी बातों से न ज़ाहिर हो हमारी कशमकश का राज़ नज़रों से तुम्हे भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी स मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराये हैं मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माजी की तुम्हारे साथ में गुजारी हुई रातों के साये हैं |
1945 में प्रसिद्ध उर्दू पत्र '' अदब - ए तारिक '' और शाहकार ( लाहौर ) के सम्पादक बने | उन्होंने अपने सम्पादन काल में इन दोनों पत्रों को बुलन्दियो पर पहुचाया | वो वक्त तरक्की पसन्द और जंगे आजादी केदौर से गुजर रहा था भला साहिर का इंकलाबी शायर चुप कैसे रहता और उन्होंने कहा कि --------
ख़ून अपना हो या पराया हो नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है खेत अपने जलें या औरों के ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है साहिर के इन गहरी अभिव्यक्ति से आम समाज की पीड़ा झलकती है साहिर के इन जज्बातों पे महान साहित्यकार और फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास की कलम कुछ यू बया करती है साहिर के पिछले कल को '' एक मौके पर सर सैयद अहमद खा ने कहा था कि अगर खुदा ने मुझसे पूछा कि दुनिया तुमने क्या काम किया , तो मैं जबाब दूंगा कि मैंने ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली से '' मुस्द्द्से हाली '' लिखवाई | इसी तरह जो ऐतिहासिक तौर से उपयोगी साबित हुई , तो वह एक खुली चिठ्ठी थी , जो मैंने 1948 में साहिर लुधियानवी के नाम लिखी थी | साहिर उस वक्त पाकिस्तान चले गये थे | यह खुला ख़त साहिर लुधियानवी के नाम था , मगर उसके जरिये मैं उन सब तरक्की -- पसंदों को आवाज दे रहा था जो फसादों के दौरान यहाँ से हिजरत कर गये थे | तीन महीने बाद मैं हैरान रह गया , जब मैंने साहिर लुधियानवी को मुंबई में देखा | उस वक्त तक मैं साहिर से निजी तौर पर ज्यादा वाकिफ न था , लेकिन उनकी नज्मो खासतौर पर '' ताजमहल '' का मैं कायल था , और इसी लिए मैंने वह '' खुली चिठ्ठी '' साहिर के नाम लिखी थी | जब साहिर को मैंने मुंबई में देखा , तो मैंने कहा , '' आप तो पाकिस्तान चले गये थे ? '' उन्होंने विस्तार पूर्वक बताया कि जब मेरा ख़त उन्होंने अख़बार में पढ़ा , तो वह दुविधा में थे | पचास प्रतिशत हिन्दुस्तान आने के हक़ में और पचास प्रतिशत पाकिस्तान में रहने के हक़ में थे | मगर मेरी '' खुली चिठ्ठी '' ने हिन्दुस्तान का पलड़ा भारी कर दिया और वह हिन्दुस्तान वापस आ गये और ऐसे आये कि फिर कभी पाकिस्तान न गये हालाकि वह भी उनके चाहने वाले वालो और उनकी शायरी को चाहने वालो की कमी न थी | उस वक्त से एक तरह की जिम्मेदारी साहिर को हिन्दुस्तान बुलाने के बाद मेरे कंधो पर आ पड़ी | फ़िल्मी दुनिया में इंद्रराज आनन्द ने उन्हें अपनी कहानी '' नौजवान '' के गाने लिखने के लिए कारदार साहब और निदेशक महेश कॉल से मिलवाया और पहली फिल्म में ही साहिर ने अदबी शायरी के झंडे गाड दिए | फिल्म नौजवान के गीत ने साहिर को हिन्दी सिनेमा में स्थापित कर दिया और उन्होंने हिन्दी सिनेमा को ऐसे गीतों की माला से सजाया जो आज की तवारीख में इतिहास बन के खड़ा है | '' रात भी है कुछ भीगी- भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम-मद्धम तुम आओ तो आँखें खोले, सोई हुई पायल की छम-छम किसको बताएँ, कैसे बताएँ, आज अजब है दिल का आलम चैन भी है कुछ हलका-हलका, दर्द भी है कुछ मद्धम-मद्धम ''
तुम न जाने किस जहाँ में खो गए हम भरी दुनिया में तनहा हो गए मौत भी आती नहीं, आस भी जाती नही दिल को यह क्या हो गया, कोई शैय भाती नही लूट कर मेरा जहाँ, छुप गए हो तुम कहाँ
साहिर ने फिल्मो में भी अपनी अदबी शायरी को बनाये रखा और यह कह कि
''न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो ग़मों का दौर भी आये तो मुस्कुरा के जियो न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो
घटा में छुपके सितारे फ़ना नहीं होते अँधेरी रात में दिये जला के चलो न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो ''
उस दिन जब साहिर अपनी आखरी सांसे ले रहे थे तब भी उन्होंने अपनी रविश न छोड़ी | जो भी लिखा , वह एक शायर के जज्बात और एहसासों की नुमाइंदगी करता था | कभी उन्होंने अपना कलात्मक मियर न गिरने दिया | बला की लोकप्रियता नसीब हुई साहिर को | उसमे उर्दू जुबान की लताफत , मिठास , हसन और जोर का भी दखल था , और उस जुबान के सबब से हस्सास और नाजुक - मुजाज और रंगीले शायर की सृजन का भी दखल था , जो उस जुबान का एक ही वक्त में आशिक भी था और माशूक भी | आशिके -- सादिक इस लिहाज से कि वह उस वक्त उस जुबान पर मोहित थे | साहिर उर्दू के लिए बहुत सी परेशानियों का सामना किया और उसके अस्तित्व के लिए लड़ते भी रहे माशूक इन मायनो में कि उस जुबान ने जितनी छुट साहिर को दे राखी थी उतनी किसी और शायर को नही दी थी | साहिर ने जितने तजुर्बात शायरी की वह किसी ने कम किये होंगे | उन्होंने सियासी शारी भी की है रोमानी शायरी भी की | किसानो और मजदूरो की बगावत का ऐलान भी किया ऐसी शायरी भी की जो त्ख्लिकी तौर से पैगम्बरी की सरहदों को छू गयी और ऐसी शायरी भी की जिसमे रंगीन मिजाजी और शोखी झलकती दिख जायेगी | फ़िल्मी शायरों को एक अदबी मियार सबसे पहले साहिर ने ही दिया उन्होंने फिल्म देखने वालो के जोक को न सिर्फ उंचा उठाया , बल्कि एक सच्चे शायर की तरह कभी आवामी मजाक को घटिया न समझा , वरन '' मैं पल दो पल का शायर हूँ '' और '' कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए "" जैसे गीत लिखकर दुसरो को रास्ता दिया |
आज उस अजीम हस्ती शायर साहिर की पुण्यतिथि पर मेरा नमन
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
इसके कुछ अंश ख्वाजा अहमद अब्बास के संस्मरण से लिए गये है

हाकिमे शहर तेरी तलवार की फलयों से, किसी मज़लूम के खून की बू आती है।।

आम आदमी अपने को वोट की भागीदारी या इससे ज्यादा पार्टियों के नेताओं के समर्थन या विरोध की चर्चा तक ही अपने आप को सीमित रखता है | आम आदमी स्वंय राजनीति करने व्यवस्था में शासक -- संचालक बनने के लिए आगे नही आ रहा है | ऐसा करने में अक्षम समझता है आम आदमी समाज राष्ट्र व समाज का बहुसंख्यक हिस्सा है | इनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य शारीरिक एवं मानसिक मेहनत के जरिये अपने परिवार का भरण -- पोषण ही उसका लक्ष्य होता है | इसको वह अपना कर्तव्य समझता है और जीवन पर्यन्त इसी में संघर्षरत रहता है | आम समाज अपने में एक जैसा यू कह सकते है कि एक रूपता का समाज नही है बल्कि वह विभिन्न धर्म , सम्प्रदाय जाति इलाके व नस्ल भाषा की पहचान के साथ -- साथ भिन्न -- भिन्न आर्थिक , सामाजिक स्तरों पर विभाजित समाज है | इस समाज में सीमान्त लघु एवं मध्यम जोत वाले किसानो , तिहाड़ी मजदूर , बुनकरों दस्तकारो के साथ ही छोटे ठेले - गुमटी वालो के साथ साधारण शिक्षा पाए कामगारों से लेकर चिकित्सा , शिक्षा न्याय से जुड़े बहुत से पेशो में बहुसंख्यक लोग जुड़े हुए है | इनके दरम्यान अंतर -- भेदों के वावजूद ये लोग आम समाज के हिस्से है | आम समाज के सभी हिस्से आमतौर पर अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का वहन करने में लगे रहते है | इनमे से एक बहुत छोटा हिस्सा ही उच्च मध्यम उच्च हिस्सा बन पाने में सफल रहता है | उसके बाद वह इस समाज का हिस्सा नही रह जाता है | धनाढ्य वर्गो व कम्पनियों की तरह ये न तो देश के संसाधनों के बड़े मालिक है और न ही देश की अर्थव्यवस्था -- अर्थात उत्पादन व्यापार और उपभोग को प्रभावित करने या उसे बदल देने की क्षमता ही रखते है | अगर हम देखे तो पायेगे सैकड़ो की संख्या में अरबपति व खरबपति ही इस देश के संसाधनों के 75 % हिस्से पर प्रत्यक्षय -- परोक्ष रूप से मालिकाना हक़ रखते है और संचालन करते है | 75 % आबादी वाले देश के बाकी के 25 % संसाधनों की अत्यंत छोटे व मझोले मालिक है | अपने इस छोटे -- मझोले मालिकाने के या कमाई के अवसरों के संचालक नियंत्रक भी नही है | खासकर पिछले 25 वर्षो में व्यापक जनसाधारण के इन छोटे -- मोटे संसाधनों को जमीन , काम धंधो व रोजगार के भिन्न -- भिन्न साधनों के अवसरों को उनसे लगातार छिना जा रहा है | जिसके चलते आम समाज के हिस्से महगाई , बेरोजगारी की गंम्भीर समस्या सामने खड़ी होती जा रही है | आम समाज इस माने में भी एक जैसा है कि वह राष्ट्र -- समाज का शासक नियंत्रक हिस्सा नही है अपितु वह राष्ट्र का शासित संचालित हिस्सा है | सत्ता सरकारों की योजनाए नीतियों कानूनों को बनाने व लागू करने में आम समाज की कोई भूमिका नही होती है -- जब कि इन नीतियों कानूनों के सभी प्रकार के दुष्परिणाम समाज के इसी तबके पर असर डालते है | इसके सभी सुपरिणाम --- समाज के धनाढ्य व उच्च वर्ग को ही मिलते है | इसका प्रत्यक्ष लाभ सामने देखने को मिल रहा है | पिछले 25 सालो से अमलीजामा पहनाकर लागू की गयी आर्थिक , कुटनीतिक , सांस्कृतिक नीतियों के दुष्परिणाम -- बढ़ते सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं संकटों के रूप में आम जनसाधारण के व्यापक हिस्सों पर पड़ते जा रहे है | बल्कि इसका एक छोटा पार्ट इन्ही नीतियों कानूनों योजनाओं के चलते उच्च माध्यम से उच्च वर्ग बनता जा रहा है | शासन -- प्रशासन व राजनितिक पार्टियों के नेतृत्व में पहुचकर सत्ता सरकार में भागीदारी निभा रहा है और शासक वर्ग बनता जा रहा है | आम समाज अपने चुनावी मताधिकार के जरिये शासक पार्टियों को शासन का अधिकार प्रदान करते रहने का ही एक माध्यम बना हुआ है ठीक उसी तरह से जैसे वह अपने श्रम - शक्ति से अपनी रोजी रोटी कमाने के साथ धनाढ्य मालिको के उत्पादन बाजार को उनके लाभ -- मुनाफे को बढाते जाने का साधन मात्र बना हुआ है | भिन्न -- भिन्न समुदाओ व विभिन्न आर्थिक , सामाजिक स्तरों में रह रहे शिक्षित -- अशिक्षित आम आदमी में इन बातो में भी एक रूपता है कि वह जनसाधारण के हित में समाज का शासक संचालक बनने की इच्छा तक नही रखता है | उनके बारे में चिंतन नही करता | उसकी अपनी सोच -- विचार व क्रिया कलाप आम तौर पर अपने व्यक्तिगत जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है | वह मात्र जीविकोपार्जन के बेहतर साधनों के अवसरों को पाने के बारे में सोचता है | उसके लिए वह धन -- सत्ता के मालिको का सेवक बनने तक ही वह अपने विचारों व्यवहारों को सीमित रखना चाहता है | निजी जीवन की मजबूरियों और अपने स्वार्थ में भी सत्ता सरकारों के प्रति उसमे गुलामो की भावना रहती है | वह सत्ता सरकार तथा शासन -- प्रशासन के विरोध में अपना स्वर तभी निकालता है जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति व पार्टी उसे अपने साथ जोड़ लेती है | अपने स्वार्थी सत्ता राजनीति को आगे बढाने की खातिर आम जनसाधारण या उसके किसी हिस्से को आंदोलित करने के लिए लग जाती है | इसी का परिणाम कि जनसाधारण लोग अपने को वोट की भागीदारी तक या उससे ज्यादा से ज्यादा पार्टियों के नेताओं के समर्थन या उसके विरोध की चर्चा या बक -- बक तक ही सीमित रहते है | उसके आगे स्वंय राजनीति करने समाज का शासक संचालक बनने के लिए आगे नही बढ़ते है | वैसा करने में वह अपने को अक्षम मानते है | यही उनकी बुनियादी कमजोरी है जो वर्तमान युग में भी बनी हुई है | जबकि वह स्वंय वोट देते है और वोट के जरिये सरकार बनाने में सहयोग देते है | साठ वर्ष से उपर बीत चुका है सत्ता शासन के खेल को देखते हुए ये सत्ता और शासन मिलकर इनके हर हक़ और हिस्से को काट रहा है पर अब भी वो लोग खामोश है | वर्तमान दौर के राजनीतिक पार्टिया उसकी केन्द्रीय व प्रांतीय सत्ता सरकारे शासन प्रशासन के उच्च स्तरीय लोभी लोग उसके साथ प्रचार माध्यम विद्वान् व समाज के धनाढ्य के साथ उच्च हिस्से आम आदमी में बढती महगाई बेकारी रोजी रोजगार में आ रही टूटन तथा शिक्षा स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा आदि जैसी बढती जन समस्याओं के प्रति गंम्भीर नही है न ही इसको कोई महत्व दे रही है | उसे घटाने का कोई प्रयास भी नही कर रही है उल्टे उसे बढ़ाने में लगी है | देश दुनिया के धनाढ्य वर्गो और कम्पनियों के साथ विभिन्न क्षेत्र के उच्च मध्यम तथा मध्यम वर्ग के एक सुविधा प्राप्त छोटे से हिस्से की सेवा में लगी हुई है | धनाढ्य वर्ग को समस्त छूटे प्रोत्साहन और अधिकार प्रदान किये जा रहे है | उसके लिए नई अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों कानूनों को एक के बाद एक लागू करते जा रहे है उसे और भी आगे बढाते जा रहे है | आम आदमी के आधुनिक युग के कम व पेशो को पहचान को धुधला करके उसे धर्म , जाति इलाका भाषा के पहचानो पर बाटने तोड़ने में व एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जा रहा है | उसके ट्रेड यूनियनों को या किसानो , मजदूरो आदि के जन संगठनों को भी धर्म जाति के नाम पर बाटते जा रहे | ताकि जनसाधारण अपनी समस्याओं व हितो के लिए कही एक जुट न हो जाए | कही एक जुट होकर विद्रोह की भाषा न बोलने लग जाए | यह सारी परस्थितिया आम आदमी को यह चेतावनी भी दे रहा है कि उसकी समस्याओं के लिए समाज का उपरी हिस्सा उनके व्यापक हितो के लिए संघर्ष नही करने वाला है | कारण कि वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय परिस्थितियो में यह बात निश्चित हो चुकी है कि धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों की निरंतर विकास आम आदमी के समाज को संकटग्रस्त किये बिना उनका विकास और समृद्द होना मुमकिन नही है | देश की सता -- सरकारे देश की आम आदमी की साथ प्रतिशत जनसाधारण आबादी के सफाए की सुनिश्चित रणनीती अपनाई हुई है | उसे गरीबी , अभाव , टूटन व असुरक्षा आपदा आदि के संकटों में फंसकर मरने के लिए छोडती जा रही है | अब ऐसा वक्त है कि इस देश की आवाम जो आम आदमी के लिए आवश्यक हो गया है कि विभिन्न समुदायों जनसाधारण तथा विभिन्न आर्थिक जनसमुदाय के व्यापक हितो के लिए उसके रोजी रोजगार काम काज शिक्षा सुरक्षा जैसे आवश्यक जरुरतो के लिए स्वंय चिंतन करे और संगठित हो | इस देश में पिछले बीस सालो से लागू की जा रही जन विरोधी ही नही अपितु जनसंहारक नीतियों के विरोध में संगठित होकर विद्रोह के स्वर फुकने होंगे | अमेरिका ब्रिटेन जैसे विदेशी साम्राज्यी ताकतों व इस देश के धनाढ्य एवं उच्च वर्गो को दी जा रही छुटो अधिकारों के खिलाफ संगठित होना है इसके लिए स्वंय ही आम आदमी को सता शासन में भागीदारी के लिए तैयार होना पड़ेगा | लेकिन एक बात को ध्यान में रखना होगा जनहित के लिए शासक वर्ग बनने के लिए आवश्यक है कि वह धर्म , जाति , क्षेत्र के आपसी अन्तरविरोध को कमतर करने का प्रयास करना होगा और यह कार्य हिन्दू , मुसलमान , सिक्ख , ईसाई व् बड़ी -- छोटी दलित जाति के पहचान को भुलाना होगा इन सबसे उपर उठाना होगा \ तभी हम ऐसे वक्त में इनसे मुकाबला कर सकते है | तुम्हें तो राज हमारे सरों से मिलता है, हमारे वोट हमारे जरों से मिलता है। किसान कहके हिकारत से देखने वाले, तुम्हें अनाज हमारे घरों से मिलता है।। ------
तुम्हारे अज़्म में नफरत की बू आती है, नज़्म व नसक से दूर वहशत की बू आती है। हाकिमे शहर तेरी तलवार की फलयों से, किसी मज़लूम के खून की बू आती है।।
सुनील दत्ता ----- स्वतंत्र पत्रकार , समीक्षक

आजमगढ़ -------- वैभवशाली इतिहास बेबसी भरा वर्तमान


  • भारत वर्ष अपनी विविधताओं के साथ अपना गौरव शाली इतिहास को समेटे रखे हुए है जब भी आप इसके किसी भी पन्ने को खोलेंगे तो ----------
    दरकते हुए पांडूलिपियों के पन्ने अपने आप फडफडा कर अपने इतिहासों के हर पन्ने को आपके सामने खोलता चला जाएगा | ऐसा ही है हमारे आजमगढ़ के इतिहासों में यहाँ बहुत कुछ हुआ है जहा एक ओर हमारे इतिहास का उज्जवल पन्ना है वही पे कुछ ऐसे भी पन्ने शामिल है जिनका वर्णन करना उचित न होगा | आजमगढ़ अपने उन इतिहास के पन्नो पर अपनी वीरता कर्मठता देश भक्ति और राजसी आनबान शानो शौकत को भोगा है वही आज अपनी त्रासदी को चुपचाप मौन देख रहा है | दत्तात्रेय , दुर्वास , चन्द्रमा जैसे देव -- महर्षि ने आखिर तमसा के तट पर ही अपनी तपस्थली कयू बनाई और आजमगढ़ के ऐतिहासिक और पौराणिकता में इसे स्थापित किया | वही हमारा इतिहास बताता है कि कभी बक्सर तक फैली थी मेहनगर राज्य की सीमा मेहनगर और इसके सटे तहसील लालगंज की जमीन अपने में ऐतिहासिकता और वीरता पूर्ण कहानियों को जन्म देती आई है | मुख्यालय से 30 किलोमीटर पर स्थित मेहनगर आजमगढ़ का नाभि -- नाल से जुडा हुआ है 16 वी शदाब्दी के उत्तरार्ध दिल्ली पर मुग़ल बादशाह जहागीर का शासन था 1594 ई में युसूफ खा जौनपुर के सूबेदार नियुक्त हुआ | तब यह इलाका जौनपुर सूबे में ही आता था | फतेहपुर के समीप के राजपूत चन्द्रसेन सिंह के पुत्र अभिमान सिंह उर्फ़ अभिमन्यु सिंह जहागीर की सेना में सिपहसालार थे | उन दिनों जौनपुर सूबे के पूर्वी हिस्से में काफी असंतोष फैला हुआ था | जहागीर ने यह जिम्मेदारी अभिमन्यु सिंह को सौपा वहा की देख रेख करने को अभिमन्यु सिंह ने एक बार नही तीन बार वहा के विद्रोह को समाप्त कर दिया | इस कार्य से प्रसन्न होकर जहागीर ने 1500 घुड़सवार और 92.5000 रुपयों के साथ ही जौनपुर राज्य के पूर्वी इलाको के बाईस परगनों को अभिमन्यु सिंह को सौप दिया | इस जागीर को पाकर अभिमन्यु सिंह ने अपना स्वतंत्र जागीर स्थापित किया और मेहनगर को अपना राजधानी बनाया | बाद में अभिमन्यु सिंह ने परिस्थिति वश इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और उनका नाम दौलत इब्राहिम खा पडा | नि: संतान होने के कारण उन्होंने अपने भतीजे हरिवंश सिंह को अपना राज्याधिकारी बनाया हरिवंश सिंह ने ही मेहनगर का किला बनवाया तथा 20 वर्षो तक राज किया हरिवंश सिंह ने ही हरी बाँध पोखरा , लखराव पोखरा तथा रानी सागर पोखरा बनवाया था | राजा हरिवंश सिंह ने ही अपने चाचा दौलत इब्राहिम खा की याद में 36 दरवाजो वाला मकबरा बनवाया | जो आज भी मेहनगर कस्बे में अपने इतिहास को पुख्ता करते हुए अपने अस्तित्व को बया करती है | यह मकबरा अपने तत्कालीन वास्तु एवं स्थापत्य कला की बेमिशाल कलाकारी का नमूना है | उन दिनों मेहनगर राज्य की सीमा पूरब में बक्सर , पश्चिम में माहुल , दक्षिण में देवगांव , उत्तर में सरजू नदी फैली हुई थी | बाद में हरिबंश सिंह ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया | उनके इस्लाम धर्म को स्वीकारने के कारण इनकी पत्नी रानी ज्योति कुवर सिंह अपने छोटे बेटे धरणीधर सिंह को लेकर चली गयी |जिस स्थान पर वे रहने आई | उसी स्थान को आज रानी की सराय के रूप में हम सब जानते है | बाद के दिनों में रानी के बेटे धरणीधर सिंह ने भी मुस्लिम लड़की से विवाह कर के इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया | उन्ही के के दो पुत्रो ने आजम खा और अजमत खा ने राज्य की बागडोर संभाली \ बार बार विशें राजपूतो के विद्रोह को दबाने के लिए आजम खा ने 1665 ई में आजमगढ़ शहर की स्थापना की और यही पर अपना किला बनवाया |इसके साथ ही उनके भाई अजमत खा ने अजमतगढ़ को बसाया | उक्त शाही वंश के द्वारा बनवाये गये मकबरे , पोखरे , मंदिर और किला का अस्तित्व खतरे में है | मेहनगर के किले का नामो निशाँन कुछ ही दिनों में मिट जाएगा क्योकि उस किले की जमीन पर अधिकतर लोगो ने कब्जा करके मकान और जमीन को अपना बना लिया है और ऐतिहासिक पोखरा लखराव आज वो अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहा है | लगभग बावन बीखे में स्थित लखराव पोखरा मेहनगर ही नही वर्ण पूर्वांचल का एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जो अपने आप में सदियों की परम्परा , संस्कृति , संस्कार का इतिहास छिपाए बैठा है लखराव पोखरा अपने आप में अदभुत है | आज से करीब चालीस वर्ष पहले तक इसके पानी से मेहनगर में रहने वाले लोगो के घरो में इसके पानी से भोजन बनता था वही पर वह के मिठाई के दुकानदार उस पानी से छेना फाड़ते थे और मिठाई बनाते रहे है | भयंकर सुखा पड़ने के बाद भी यह पोखरा आज तक कभी सुखा नही है | लोगो का कहना है कि इस पोखरे में पानी पातळ पूरी से आता है अगर इस पोखरे में पानी की अधिकता हो जाती है तो यह पोखरा वीरभानपुर , तिसडा , ह्ठौता, आदि गाँव से होता हुआ मगई नदी में समा कर गंगा में विलीन हो जाता है | लोगो का कहना है की जब तक मेहनगर की टाउन एरिया नही बनी थी तब तक यह ऐतिहासिक पोखरा अपने अस्तित्व के साथ सारे मेहनगर के वासियों को अमृत प्रदान करता था | टाउन एरिया बनने के बाद से ही यहाँ के एक वर्ग द्वारा दबगई से उन भीतो पर कब्जा करता चला आ रहा है और तों एरिया मूक दर्शक बनकर देखता रहा है | इस पोखरे में वहा का सारा प्रदूषित पानी इस पोखरे में आकर मिल जाता है जिससे इस पोखरे का पानी प्रदूषित हो गया है | कभी इस पोखरे के आमने सामने से मंदिर के घंटियों के आवाज और अजान एक साथ हुआ करते थे पर आज वो आवाजे कही गम हो गयी है | अब इस पोखरे के पानी से वजू नही होता है हां महादेव को इस प्रदूषित पानी से उनका पूजा अर्चना आज भी होती है पोखरे में अब स्नान करने के लिए भीड़ नही आती है | नब्बे वर्षीय सुरसती देवी अपने अतीत को याद करते हुए कहती है मैं इस पोखरे में आज सत्तर साल से बिना रोक टोक के बारहों मॉस स्नान करने आती हूँ | पहले कभी यहाँ हर पूर्णमासी को मेला लगता था पर अब सिर्फ विजया दशमी को ही मेला का आयोजन किया जाता है | मनोज कुमार कहते है कि अगर परदेश सरकार द्वारा डा राम मनोहर लोहिया योजना के अंतर्गत इस लखराव पोखरे का सुन्दरीकरण करा दिया जाए तो इस ऐतिहासिक स्थल को अभी भी बचाया जा सकता है उसकी परम्परा और संस्कृति को कायम रखा जा सकता है | इस पोखरे के भीट पर कई प्रकार के जड़ी बतिया पायी जाती है जो गंम्भीर बीमारियों में औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है | आज जरूरत है अपने इस गौरवशाली परम्परा और संस्कृति को बचाने की मेहनगर के सामजिक कार्यकर्ता श्री महेन्द्र मौर्या उर्फ़ बबलू मौर्या कहते है आज हमारे मेहनगर में रहने वाले हर सम्प्रदाय के लोगो का नैतिक कर्तव्य बनता है कि हम अपने ऐतिहासिक लखराव पोखरे को बचाने के लिए संघर्ष करे ताकि हम अपनी ऐतिहासिक धरोहर को बचा सके |
    सुनील दता --- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक