आज पूंजी के हाथ में शिक्षा है ---

आज पूंजी के हाथ में शिक्षा है ---
कहा से मिलेगा नैतिक मूल्य या सामजिकता ?
भारत जब गुलाम था तब एक आदमी आया लार्ड मैकाले उसने यहाँ के लिए शिक्षा नीति बनाई उसने कहा था चंद लोग लिखे पढ़े बाकि सब मजदुर पर आज के नेता तो पुरे समाज को भ्रष्ट और निकम्मा बना रहे है
( भारतीय जनमानस देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढ़ाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता है | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है | )
दैनिक जागरण में पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने एक फैसले में शिक्षा की असफलता को लेकर की गयी टिप्पणी को प्रकाशित किया गया है | माननीय कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि '' शिक्षा अपने उद्देश्यों को नही पा स्की है | शिक्षा से लोगो के व्यवहार में सुधार होने के बजाए समाज में परेशानी का वातावरण बधा है | शिक्षित लोगो की संख्या बढने के वावजूद समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही है | यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है | पहले की तुलना में साक्षरता के स्तर में खासी बढ़ोत्तरी हुई है , लेकिन इससे मानवीय मूल्यों में कोई बढ़ोत्तरी नही हुई है | आज भी हम शिक्षित व्यवहार के प्रारम्भिक स्तर पर ही है | पुराने समय में शिक्षा का स्तर जितना उंचा नही था , लेकिन सामाजिक मूल्यों की अहमियत थी | यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि शिक्षा अपने उद्देश्य को पाने में असफल रही है | इसमें तत्काल सुधार लाने की जरूरत है | यह जरूरी हो गया है कि शिक्षा सस्थाए , शिक्षक , सरक्षक छात्र और सम्पूर्ण समाज मिलकर बदलाव लाये | न्यायालय की यह टिप्पणी तो बिलकुल ठीक है कि शिक्षित लोगो की संख्या बढने के साथ नैतिक मूल्यों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है लेकिन इसमें सुधार से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या यह वर्तमान शिक्ष प्रणाली की असफलता का द्योतक है ? पूरा समाज देख रहा है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों को बढाने में असफल साबित होती जा रही है | लेकिन इस तथ्यगत सच्चाई से वर्तमान दौर की शिक्षा को अपने उद्देश्य में असफल होना नही कहा जा सकता | क्योकि वर्तमान दौर की शिक्षा ने लोगो को सामाजिक व नैतिक रूप से बेहतर बनाने को अपना उद्देश्य बनाया ही नही है और न ही उसके लिए कोई गम्भीरकार्यक्रम हो घोषित किया है | इसके विपरीत आधुनिक बाजार वादी फैलाव के साथ शिक्षा को भी बाजार के उद्देश्य के अनुसार चालाया व बढाया जा रहा है | वर्तमान दौर की शिक्षा प्राप्ति में वाणिज्य व्यापार के चलन के अनुसार उससे होने वाले लाभ का आकलन पहले ही कर लिया जा रहा है | उसमे मिलने वाले ज्ञान या फिर सामाजिकता नैतिकता को किसी आकलन की कोई गुंजाइश नही रह गयी है | शिक्षा देने लेने के लिए व्यापार बाजार की तरह धन पैसा लगाने और फिर उससे निजी कमाई -- धमाई सुख - सुविधा , पद -- प्रतिष्ठा का अवसर पाकर समाज में उपर चढने आदि ही वर्तमान दौर की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बना हुआ है | शिक्ष्ण संस्थाए इसी उद्देश्य व योजना को अपनाकर लोकोपकारी -- जनहित के संस्थान की जगह निजी लाभकारी उद्यम का दर्जा लेती जा रही है | ओद्योगिक व्यापारिक संस्थानों की तरह आपसी होड़ और दौड़ में लगी है | प्रचार माध्यमो के जरिये बाजार में अपनी साख मजबूत करने में लगी है |
शिक्षा और उसके उद्देश्य के बाजारीकरण का एक ठोस सबूत यह भी है कि केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय वर्षो पहले ही खत्म कर दिया है | उसकी जगह मानव संसाधान एवं विकास मंत्रालय ने ले ली है | जिसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि अब देश की सत्ता सरकारे शिक्षा प्रणाली को मानव संसाधन के विकास के उद्देश्य से संचालित कर रही है | वर्तमान शिक्षा प्रणाली के जरिये विधार्थियों को एक मानव संसाधन के रूप में खड़ा करने व विकसित करने का लक्ष्य बनाई हुई है | राष्ट्र व समाज में अन्य स्रोतों संसाधनों की तरह शिक्षा प्राप्त कर रहे लोगो को शिक्षित दीक्षित करके वे उन्हें एक संसाधन में बदल देने का काम करने लगी है ताकि उनका उपयोग अन्य संसाधनों की तरह कारोबारी लाभ के लिए किया जा सके | सरकार के नियत साफ़ -- साफ़ दिख रही है कि अब देश की सरकार का लक्ष्य शिक्षा के जरिये सामाजिक एवं नैतिक रूप से जिम्मेदार नागरिक का विकास करना नही रह गया है | इसीलिए अगर आधुनिक शिक्षा के जरिये मानवोचित सामाजिक नैतिक व्यवहार करने वाले मनुष्य न निकल रहे हो अथवा उनके सामाजिक नैतिक आचरण में भारी गिरावट आ रही हो तो इसमें कोई आश्चर्य कैसा !वे तो शिक्षित मानव संसाधन मात्र है न कि सामाजिक व नैतिक रूप से शिक्षित व जिम्मेवार मानव | अब चुकी देश के व्यापक संसाधनों का मालिकाना थोड़े से अति धनाढ्य लोगो के ही हाथ में है इसीलिए उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक तकनिकी के युग में कारोबारी ढंग से शिक्षित अतिशिक्षित संसाधनों की ही आवश्यकता रह गयी है | बाकी के काम आधुनिक यंत्र व मशीने कर दे रही है | इसीलिए शिक्षित मानवो की बड़ी संख्या का संसाधन बन पाने में असफल रह जाने अर्थात बेरोजगार ओ जाने के प्रक्रिया भी लगातार बढती जा रही है | एकदम व्यापार बाजार में न खप पाने वाले या फिर आउट डेटेड माल सामन की तरह |
जहा तक शिक्षित लोगो की संख्या बढने के वावजूद सामाजिक नैतिक मूल्यों में गिरावट की बात है , तो इसका प्रमुख कारण भी यही है | व्यक्तियों को विधार्थी की जगह मानव संसाधन बनाने हेतु दी जा रही वह शिक्षा है जिसे ग्रहण कर व्यक्ति उसे अपनी निजी फायदे के लिए सीधी के रूप में इस्तेमाल करने के रूप में ग्रहण किया हुआ है या ग्रहण कर रहा है | वह उसी सीधी के सहारे समाज को उपेक्षित करके उपर चढने में लगा हुआ है | राष्ट्र के संसाधनों के मालिक धनाढ्य वर्ग व कम्पनिया तथा सरकारे उसे अपनी सेवा में लगाकर समाज से उसकी समस्याओं से आँख मुड़कर तथा अलग रहकर मानव संसाधन के रूप में किसी सेवा तक ही सीमित रहने की सिख व हिदायत देती है | इसलिए मानव संसाधन के रूप में खपकर उच्च व औसत दर्जे का शिक्षित व्यक्ति ससाधन के मालिको की तरह ही भ्रष्ट भी होता जा रहा है | सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से हिन् भ्रष्टाचारी व महा भ्रष्टाचारी मानव बनता जा रहा है | इसलिए अनपढ़ अशिक्षित या कम शिक्षित तथा बेहतर कमाई करने में विफल लोग सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से कही ज्यादा बेहतर नजर आते है | इसलिए वर्तमान दौर की शिक्षा के फैलाव के वावजूद शिक्षित व्यक्तियों में तथा समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट पर आश्चर्य करने की कही कोई गुंजाइश नही है | कम से कम किसी प्रोढ़ अनुभवी शिक्षित या उच्च शिक्षित व्यक्ति के लिए तो कदापि नही है | क्योकि वह स्वंय अपने अनुभव से ज्ञान से खुद की मिली और मिलती रही शिक्षा तथा उससे अपने भीतर आते रहे बदलावों को बखूबी समझ सकता है | अत: यह समझना कत्तई मुश्किल नही है कि भूमण्डलीकरण की वर्तमान दौर के शिक्षा का न कोई सामाजिक नैतिक उद्देश्य है और न ही हो सकता है | न ही वह समाज के ज्यादातर लोगो की जिविकोपार्जन का जरिया बन सकता है | और न ही वह समाज राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार और सामाजिक नैतिक रूप से बेहतर मानव का निर्माण कर सकता है | यह तभी संभव हो पायेगा जब संसाधनों के मालिको का सेवक बनने की शिक्षा की जगह उसे समाज के स्वतंत्र चिन्तक सेवक के रूप में उसको शिक्षित दीक्षित किया जाय | लेकिन यह काम देश दुनिया के संसाधनों के धनाढ्य मालिको और उच्च स्तरीय राजनितिक व गैर राजनितिक वर्गो पर अंकुश लगाये बिना तथा उनके स्वार्थी हितो के अनुसार लायी जा रही कारोबारी शिक्षा प्रणाली पर अंकुश लगाये बिना नही हो पायेगा |
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

पंडित श्याम जी कृष्ण वर्मा



पंडित श्याम कृष्ण वर्मा दरअसल पंडित जवाहर लाल नेहरु या महापंडित राहुल साकृत्यायन की तरह जाति की तरह से ब्राह्मण नही थे | उन्हें पंडित की उपाधि उनके संस्कृत भाषा , धर्म , और वेड के प्रचंड ज्ञान और उसके प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति के आधार पर काशी के विद्वत समाज द्वारा प्रदान किया गया था | सम्भवत: पंडित की उपाधि पाने वाले वह पहले गैर ब्राह्मण थे |
साधारण परिवार में जन्मे श्याम जी कृष्ण वर्मा अपनी मेहनत लग्न और विद्वता के बलबूते पद -- प्रतिष्ठा धन दौलत सब कुछ हासिल किये | लेकिन उसके पीछे भागने की जगह उन्होंने
ब्रिटिश दासता से राष्ट्र की स्वतंत्रता राष्ट्र एकता और समाज सुधार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया | इस लक्ष्य को अपना कर वे न केवल देश के लोगो को बल्कि विदेशो में बसे हिन्दुस्तानियों को भी जगाने उठाने का निरंतर प्रयास करते रहे |
यह कार्य करते हुए उन्होंने कम से कम दो पीढ़ी के लोगो की  हर संभव मदद के साथ  उन्हें तैयार किया | इसमें लाला हरदयाल विनायक  , दामोदर सावरकर मदनलाल धीगरा और मादाम भीखाजी कामा का नाम सबसे आगे है |
पंडित श्याम  कृष्ण वर्मा को याद करना न केवल याद करना न केवल राष्ट्र स्वतंत्रता के लक्ष्य से उनके त्याग व बलिदान को जान्ने समझने के लिए आवश्यक है बल्कि पद प्रतिष्ठा धन सत्ता पर चढने में लगे हुए देश के उन तमाम माध्यम वर्गीय के लिए भी शिक्षाप्रद है जिन्होंने राष्ट्र व समाज को उपेक्षित कर स्वंय अपनी निजी चढत को ही अपना जीवन मान लिया है |

श्याम जी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्तूबर 1857 को उस समय के कच्छ प्रांत ( आज के गुजरात प्रांत में ) के मांडवी नगर के निकट बलायल  गाँव में हुआ था | इनके पिता का नाम करसन नाखुला भंसाली और माँ का नाम गोमती बाई था | इनके पिता काटन प्रेस कम्पनी में मजदूर थे | 11वर्ष की आयु में इनकी माँ का देहान्त के पश्चात इनका पालन -- पोषण इनकी दादी ने किया | भुज में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए मुम्बई के विल्सन हाईस्कूल में दाखिला लिया यही पर उन्होंने संस्कृत भाषा के अध्ययन के साथ उसमे प्रवीणता प्राप्त किया | फलस्वरूप बहुत कम उम्र में ही उन्होंने संस्कृत  में धारा प्रवाह बोलने और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने में विद्वता प्राप्त कर लिया | साधारण परिवार में जन्मे श्याम जी कृष्ण वर्मा की इस विद्वता से प्रभावित होकर में एक धनी व्यापारी भाटिया परिवार ने अपनी पुत्री भानमती के साथ इनका विवाह कर दिया | विवाह के पश्चात अपने निजी जीवन की सीढियों पर चढने का रास्ता छोड़कर श्याम जी कृष्ण वर्मा सामाजिक गतिविधियों की तरफ मुड़ने लग गये | इस दौरान वे आर्य समाज के प्रवर्तक तथा धर्मवादी -- राष्ट्रवादी चिन्तक व हिन्दू समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों एवं क्रिया कलापों से सर्वाधिक प्रभावित हुए |इनके सानिध्य में रहकर उन्होंने वैदिक दर्शन , धर्म , राष्ट्र व समाज पर अपने शिक्षा ज्ञान को और विकसित किया | तत्पश्चात वे उस शिक्षा ज्ञान प्रसार के लिए देशव्यापी भ्रमण पर निकल पड़े | विशेष कर संस्कृत  भाषा में वैदिक दर्शन एवं धर्म पर उनके व्याखानो ने हिन्दू धर्म के विद्वत समाज को बहुत प्रभावित किया | इसी के फलस्वरूप 1877 में उन्हें ब्राह्मण समाज का सदस्य न होने के वावजूद काशी में ' पंडित ' की उपाधि प्रदान की गयी | कहा जाता है कि पंडित की उपाधि पाने वाले वह पहले गैर ब्राह्मण थे |
उनकी विद्वता तथा संस्कृत  भाषा के ज्ञान व अभिव्यक्ति से प्रभावित होकर उस समय भारत भ्रमण पर आये इंग्लैण्ड के आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय में संस्कृत  के प्रोफ़ेसर मोनियर विलियम्स ने उन्हें अपने सहायक के रूप में इंग्लैण्ड चलने का निमंत्रण दिया | इसे श्याम जी कृष्ण वर्मा ने स्वीकार कर लिया | कुछ समय बाद लन्दन पहुचकर श्याम जी कृष्ण वर्मा ने प्रोफ़ेसर विल्सन की सहायता से आक्सफोर्ड के वैलिआल कालेज में दाखिला लिया | 1883 में वहा  से बी ए करने के पश्चात आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय ने उन्हें वही पर संस्कृत   -- मराठी और गुजराती भाषाओं के  अध्यापक नियुक्त कर दिये  गये  | उस समय उनकी आयु 23 वर्ष की थी | एक साल बाद उन्हें बर्लिन और हालैंड के ओरियंटल कांफ्रेंस में हिन्दुस्तान के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया | 1884 में उन्होंने आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय से बैरिस्टरी  पास की |

1885 में वे भारत लौटे और वकालत शुरू कर दी | उनकी बौद्दिकता और क्रियाशीलता से प्रभावित होकर रतलाम स्टेट के राजा ने उनको अपना दीवान यानी मुख्य मंत्री बना लिया | वहा उन्होंने कई सुधार कार्य किया | बाद में स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया | कुछ समय तक मुंबई में रहने के पश्चात वे अजमेर चले आये | उस समय आर्य समाज का हेड आफिस अजमेर में ही था | वहा  रहकर वे ब्रिटिश कोर्ट में वकालत भी करने लगे | रतलाम के दीवान  के रूप में और बैरिस्टर के रूप में हुई आमदनियो से उनके पास जीविका के लिए पर्याप्त धन इकठ्ठा हो गया था | बाद में उन्होंने महाराजा उदयपुर के सलाहकार  समिति के सदस्य के रूप में और अंत में जूनागढ़ रियासत के दीवान के रूप में कार्य किया | जूनागढ़ रियासत के दीवान के रूप में ही उनका वहा  के ब्रिटिश सरकार के रेजिडेन्ट से विरोध शुरू हो गया | यह विरोध राज्य के काम में रेजिडेन्ट के अवाक्षनीय हस्तक्षेप को लेकर शुरू हुआ था | विरोध बढने के साथ इनके भीतर भारत में ब्रिटिश राज और उसकी न्याय प्रियता के प्रति बचे रहे थोड़े बहुत विश्वास को भी चकनाचूर कर दिया और अंग्रेजी राज के प्रति राष्ट्र वादी विरोध की भावना प्रज्ज्वलित कर दिया | आर्य समाज में काम करते ही राष्ट्रवाद की मिली शिक्षा अब इस व्यवहारिक राष्ट्रवादी शिक्षा के साथ उनके दिलो दिमाग पर गहरा प्रभाव डालने लगा था | ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रवाद का ठोस स्वरूप ग्रहण करने लगा था | हालाकि इस घटना से पहले से ही वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रवाद के पक्षधर हो चुके थे | 1890 के बाद से ही वे उस समय की कांग्रेस पार्टी द्वारा ब्रिटिश शासन से प्रार्थना -- याचना के साथ चलाई जा रही सहयोग नीति के विरोधी बन गये थे | कांग्रेस के जलसों में ब्रिटिश -- महराज व महारानी की जय  जयकार को वे हिन्दुस्तानियों के राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं गरिमा के विरुद्ध मानते थे |

1899 में पूना में चापेकर बन्धुओ द्वारा वहा  के आततायी पुलिस कमिश्नर रैंड की हत्या के बाद तिलक पर चले मुकदमे और कई अन्य लोगो पर कारवाई किये जाने के पश्चात वे इस बात के प्रति और दृढ हो गये थे कि ब्रिटिश भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वैयक्तिक -- स्वतंत्रता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता  का कोई मूल्य नही है | इसी के बाद वे हिन्दुस्तान छोड़कर इंग्लैण्ड चले आये ताकि अपनी गतिविधियों को स्वतंत्रता पूर्वक संचालित कर सके | लन्दन में उन्होंने पहला बसेरा '' इनर - टेम्पल ' नामक स्थान बनाया | यही पर उन्होंने खाली समय में यूरोप के राष्ट्र वादी क्रान्तिकारियो तथा दार्शनिको की रचनाओं का पूरे मनोयोग से अध्ययन किया | 1900 में उन्होंने लन्दन के हैगेट में एक बड़ा मकान खरीदा और इसका  नाम इंडिया हाउस रखा | यही मकान बाद में हिन्दुस्तानियों की आजादी के लिए चलाई जाने वाली गतिविधियों का केन्द्र बना | इंडिया हाउस में राष्ट्रवादी नेताओं के अलावा अन्तराष्ट्रीय समाजवादी एवं स्वतंत्रता के पक्षधर नेताओं का आना -- जाना हमेशा ही लगा रहता था |

श्याम जी कृष्ण वर्मा वैज्ञानिक -- दार्शनिक हावर्ट स्पेन्सर के विचारों से बहुत प्रभावित थे | 1905 में स्पेन्सर की मृत्यु के पश्चात आक्सफोर्ड में आयोजित सभा के लिए उन्होंने अपनी तरफ से 1000 पौंड का योगदान दिया था | साथ ही उन्होंने हिन्दुस्तानियों को इंग्लैण्ड आकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए 2000 | रूपये की घोषणा की थी हावर्ट स्पेन्सर इन्डियन फेलोशिप की घोषणा भी की | इसी तरह उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की स्मृति में भी हिन्दुस्तानी छात्रो की इंग्लैण्ड में शिक्षा के लिए फेलोशिप की घोषणा की | चुकि हिन्दुस्तानी छात्रो की इंग्लैण्ड में रहते हुए नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ता था इसीलिए उन्होंने इंडिया हाउस में हिन्दुस्तानी छात्रो के रहने के लिए हास्टल भी बनवा दिया | बताने की जरूरत नही कि इंडिया हाउस में रहने वाले अन्य लोगो के साथ वह के छात्र भी ब्रिटिश राज से हिन्दुस्तानियों की स्वतंत्रता की गतिविधियों में कमोवेश लगे रहते थे | इंडिया हाउस के इस हास्टल के उदघाटन के समय दादा भाई नौरोजी लाला लाजपत राय मादाम भीखाजी कामा सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन के सदस्य हेनरी हाईनडमैंने जैसे लोग उपस्थित थे | हेनरी हाईनडमैंने ने इस उदघाटन के अवसर पर कहा  कि ' वर्तमान स्थितियों में ब्रिटेन के प्रति वफादारी का मतलब है , हिन्दुस्तान के प्रति गद्दारी |
इंडिया हाउस में रह रहे लोगो की खासकर हिन्दुस्तानी छात्रो की हर तरह से सहायता करते हुए श्याम जी कृष्ण वर्मा समर्पित राष्ट्रवादियों एवं क्रान्तिकारियो की एक पीढ़ी तैयार करते रहे | वस्तुत: यह उनका राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन में सबसे बड़ा योगदान था और है |
इसी के फलस्वरूप मदाम भीखाजी कामा , एस आर राना ,  विनायक दामोदर सावरकर वीरेंद्र चटोपाध्याय , लाल हरदयाल जैसे लोग इंग्लैण्ड में रहकर राष्ट्र की स्वतंत्रता के अथक प्रयास में लगे रह सके |

श्याम जी कृष्ण वर्मा ने राष्ट्र की स्वतंत्रता के उद्देश्य को आगे बढ़ते हुए 1905 में दो प्रमुख वैचारिक एवं व्यवहारिक काम को स्वंय आगे बढाया | ध्यान रहे कि अभी देश के भीतर राष्ट्र स्वतंत्रता आन्दोलन , जन आन्दोलन का रूप नही ले पाया था | वस्तुत: वह आन्दोलन 1905 में कर्जन द्वारा बंगाल के विभाजन के पश्चात 1906 -- 07 में ही तेज हुआ | लेकिन श्याम जी कृष्ण ने इस आन्दोलन को ब्रिटेन व अन्य यूरोपीय देशो में संगठित करने के वैचारिक उद्देश्य से 1905 में ही इन्डियन सोशिलिस्ट नाम की मासिक अंग्रेजी पत्रिका निकालना आरम्भ किया | यह हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के साथ इस देश में राजनैतिक सामाजिक और धार्मिक सुधारों की अभिव्यक्ति का मुखपत्र था | इसकी प्रतिया ब्रिटेन और अन्य देशो में बसे हिन्दुस्तानियों से लेकर इस देश के प्रबुद्द राष्ट्र भक्त लोगो तक पहुचाई जाती रही और इन्हें राष्ट्र स्वतंत्रता तथा जनतांत्रिक सुधार के लिए निर्देशित भी करती रही |
वैचारिक आन्दोलन को व्यवहारत: आगे बढाने के लिए उन्होंने 18 फरवरी 1905 को इन्डियन होमरूल सोसायटी नाम  के संगठन का भी शुभारम्भ किया | इस सोसायटी के तीन प्रमुख लक्ष्य थे | 1 देश में स्वराज स्थापित करना 2 इस लक्ष्य के लिए इंग्लैण्ड में भी हर संभव तरीके से इसका प्रचार प्रसार करना ताकि न्यायप्रिय आम व ख़ास ब्रिटिश जनता में भारत के स्वतंत्रता के प्रति समर्थन जुटाया जा सके | 3 हिन्दुस्तानी जनता में राष्ट्र स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को वैचारिक एवं व्यवहारिक रूप में आगे बढाया जाय |
श्याम जी कृष्ण वर्मा को इन वैचारिक एवं व्यवहारिक गतिविधियों से तथा हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारियो को अपना घर मकान देने के साथ हर तरह की सहायता देने के क्रियाकलापों से अब इंग्लैण्ड की ब्रिटिश हुकूमत उनके पीछे पड़ गयी | ' इन्डियन सोशिलिस्ट में उनके द्वारा भारत व इंग्लैण्ड के ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्द लगातार लिखे जा रहे आलोचनाओं को लेकर वहा  के कई स्थानीय ब्रिटिश संस्थाओं से श्याम जी कृष्ण वर्मा की सदस्यता को समाप्त कर दिया गया | अब ब्रिटिश समाचार पत्र भी श्याम जी के विरोध में खुलकर सामने आ गये | प्रसिद्द ब्रिटिश समाचार पत्र ने अपनी आलोचना में उन्हें नटोरियस कृष्ण वर्मा की उपाधि प्रदान की | ब्रिटिश समाचार पत्रों में उन प्रगतिशील अंग्रेजो की भी घोर आलोचना की गयी जो श्याम जी कृष्ण वर्मा के विचारों का समर्थन करते थे |

'' ब्रिटिश सीक्रेट सेवा नाम की सरकारी गुप्तचर सेवा इनकी गतिविधियों पर हर समय नजर रखने लगी थी | इन्डियन सोशियोलोजिस्ट   पर और खुद श्याम जी की अपनी निजी आजादी पर ब्रिटिश हुकूमत का शिकंजा कसता जा रहा था | इन स्थितियों में उन्होंने अपना हेड आफिस इंग्लैण्ड से हटाकर फ्रांस में ले जाने का निश्चय किया इससे पहले कि ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार करती वे 1907 में इंडिया हाउस को विनायक दामोदर के जिम्मे सौपकर चुपचाप पेरिस निकल गये |
वहा  पहुचकर उन्होंने इन्डियन सोशीयोलिस्ट और इन्डियन होमरूल सोसायटी का काम विधिवत जारे रखा | इस संदर्भ में दिलचस्प बात यह है कि इन्डियन सोशीयोलिस्ट का प्रकाशन 1909 तक लन्दन से तब तक होता रहा जब तक कि उसके मुद्रक को इसके लिए सजा नही दे दी गयी | उसके पश्चात वह पेरिस से निकलने लगा | इस दमनकारी कारवाइयो से अप्राभावित रहकर वे यूरोप के अन्य देशो में बसे हिन्दुस्तानियों के माध्यम से हिन्दुस्तान के भीतर लोगो को राष्ट्र स्वतंत्रता एक जुटता और आधुनिक युग के अनुसार समाज सुधार के लिए भी  अपने वैचारिक व् व्यवहारिक प्रयासों को निरंतर आगे जारी रखे | ब्रिटिश सरकार ने फ्रांस की सरकार से श्याम जी को उसे सौपने के लिए दबाव भी डाला पर वैसा हो न सका | क्योकि उच्च स्तरीय फ्रांसीसी  राजनयिकों में श्याम जी कृष्ण वर्मा की खुद भी पहुच कम नही थी |,

वहा  रहकर उन्होंने ब्रिटिश सकार द्वारा सावरकर  की गिरफ्तारी के विरोध और फिर उनकी रिहाई के लिए भी भरपूर प्रयास किये | लेकिन 1914 आते -- आते प्रथम विश्व युद्द के शुरुआत की परिस्थितियों में इंग्लैण्ड और फ्रांस में एक जुटता बढने लगी | फलस्वरूप फ्रांस में रहकर ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का संचालन अब कठिन ही नही बल्कि असम्भव सा हो गया था | ऐसी परिस्थियों में श्याम जी कृष्ण वर्मा अपना हेड आफिस फ्रांस से हटाकर जेनेवा ले गये | वह पर भी  स्विट्जरलैंड सरकार ने प्रथम विश्व युद्द के पूरे काल में इनकी राजनैतिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया | इस समय भी वे दूसरे देशो के अपने सहयोगियों समर्थको के साथ सम्पर्क बनाये हुए थे |
हालाकि इन सम्पर्को को बनाने में उन्होंने धोखा  भी खाया | डाक्टर बरीस नाम का उनका एक सम्पर्क सूत्र तो ब्रिटिश के द्वारा नियुक्त भाड़े का जासूस निकला | युद्द के पश्चात श्याम जी ने नई बनी अन्तराष्ट्रीय संस्था  '' लीग आफ नेशन्स '' से भारत जैसे राष्ट्रों की स्वतंत्रता पर और दूसरे देशो में शरण लिए हुए राजनीतिक शर्णार्थियो की स्वतंत्रता पर विचार के लिए अन्तराष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी बुलाने का प्रस्ताव किया | इसके लिए उन्होंने स्वंय अपनी तरफ से 10. 000 फ्रांक देने का प्रस्ताव भी भेजा पर ब्रिटेन के दबाव के
चलते उनका प्रस्ताव स्वीकार नही किया गया | स्विट्जरलैंड की सरकार ने भी उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया | तत्पश्चात उन्होंने जेनेवा में प्रेस एसोशियन जेनेवा के माध्यम से पत्रकारों संपादको और अन्य उच्च प्रबुद्ध तबको की मीटिंग बुलाई | इसमें स्विट्जरलैंड संघ के राष्ट्रपति और लीग आफ नेशन्स के अध्यक्ष को भी निमंत्रित किया गया | सभी ने औपनिवेशिक राष्ट्रों की स्वतंत्रता के उनके प्रस्ताव व विचारों का जोर शोर से समर्थन भी किया गया | लेकिन केवल वही पर और फिर उसे वही छोड़कर चलते बने | श्याम जी कृष्ण को इससे गहरी निराशा हुई | इस बीच विश्व युद्ध के दौरान स्विट्जरलैंड के प्रतिबंधो के चलते '' इन्डियन सोसियलिस्ट का प्रकाशन बंद रहा | इस मीटिंग की असफलता के बाद उन्होंने अपने उद्देश्य और उसके लिए किये गये प्रयासों और फिर उसकी असफलताओं पर लगभग 6 वर्ष बाद इन्डियन सोशिलिस्ट  दिसम्बर 1920 का अंक प्रकाशित किया | लेकिन इसके बाद अपने गिरते स्वास्थ्य और टूटते सहयोगियों की स्थिति में वे अकेले पड़ते गये | श्याम जी कृष्ण ने इन्डियन सोशिलिस्ट के दो अंक अगस्त , सितम्बर 1922 में प्रकाशित करके उसे हमेशा के लिए अलविदा कह दिया | गिरते स्वास्थ्य और टूटी आशा के साथ जीवन के अंतिम वर्ष गुजारते हुए 30 मार्च 1930 को उनका देहान्त हो गया | श्याम जी वर्मा की मृत्यु का समाचार देश में आते ही उनकी श्रद्दांजली देने और उनके उद्देश्यों कामो को याद करने का सिलसिला तेज हो गया | भगत सिंह और उनके साथियो ने लाहौर जेल में ही उन्हें श्रद्धांजली दी | लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू किये गये दैनिक समाचार पत्र मराठी ने उन्हें महान एवं धुन के पक्के देशभक्त के रूप में अत्यंत संवेदनशील श्रद्धांजली अर्पित किया |

लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू किये गये दैनिक समाचार पत्र '' मराठी '' ने उन्हें महान एवं धुन के पक्के देशभक्त के रूप में अत्यंत  सम्वेदनशील श्रद्धांजली अर्पित किया | ब्रिटिश हुकूमत के प्रतिबंधो के चलते श्याम जी कृष्ण वर्मा जी जीते जी हिन्दुस्तान नही लौट पाए लेकिन मृत्यु प्रांत अपनी और अपनी पत्नी के अस्थि कलश को स्वतंत्रत भारत में भेजे जाने का पूर्ण प्रबंध वे स्वंय कर गये थे | इसके वावजूद 1947 में बनी भारत सरकार ने उसे देश में लाने की कोई रूचि नही ली | 1980 के बाद श्री मंगल लक्ष्मी भंसाली के नेतृत्व में बनी श्याम जी कृष्ण वर्मा स्मारक समिति द्वारा नित्रंतर किये गये प्रयासों तथा पेरिस में बसे इतिहासकार श्री पृथ्वींन्द्र मुखर्जी द्वारा निरंतर किये गये प्रयासों के फलस्वरूप तथा अन्य कई गणमान्य लोगो के सहयोग से गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी के जरिये वह अस्थि कलश 22 अगस्त 2003 में देश पहुच गया | उसके पहले 1970 में उनके जन्म स्थान कच्छ क्षेत्र में एक नये नगर का निर्माण जरुर किया और उसे श्याम जी कृष्ण वर्मा नगर का नाम दिया गया |


-सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार एवं समीक्षक

स्वतंत्रता के अजेय '' सेनापति '' पांडुरंग महादेव बापट



बहुमुखी आन्दोलन के सेनापति , पांडुरंग महादेव बापट शिक्षक थे , सामाजिक कार्यकर्ता थे और सबसे बढ़कर वे ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवाद -- स्वतंत्रता के सेनापति थे | वे राष्ट्र स्वतंत्रता हेतु सशस्त्र संघर्ष से लेकर अहिंसक आन्दोलन में लगातार सेनानी और सेनापति थे | साथ ही सामाजिक सुधार से लेकर समाज के विभिन्न हिस्सों के न्यायोचित मांगो के साथ खड़े होकर उनका नेतृत्व करने वालो नेता व कार्यकर्ता भी थे | वस्तुत: उनके इन्ही गुणों के कारण उन्हें समाज से सेनापति की उपाधि मिली थी | वैसे उन्हें यह उपाधि 1922 में जनहित में मोलसी में निर्माणाधीन बाँध परियोजना के विरोध और उसके नेतृत्व के लिए मिला था | बहुमुखी प्रतिभा बहुमुखी नेतृत्व क्षमता और असीमित ऊर्जा से भरपूर पांडुरंग बापट 1947 की स्वतंत्रता के बाद भी जीवित रहे | लेकिन वे स्वतंत्रता आन्दोलन के अन्य तमाम लीडरो की तरह 1947 के बाद भी पद -- प्रतिष्ठा के पीछे एकदम नही गये | उनकी जगह राष्ट्र सेवा जन सेवा तथा राष्ट्र की सामाजिक एकता के लक्ष्य को लेकर आजीवन संघर्ष करते रहे | सेनापति पांडुरंग महादेव बापट ने राष्ट्र व समाज को दिया बहुत कुछ और लिया कुछ भी नही | अपना समस्त जीवन राष्ट्र के लिए होम कर दिया | इसीलिए वे हमारे लिए आदरणीय व स्मरणीय है |   सेनापति पांडुरंग के बारे में प्रचलित है कि एक तरफ वे अगर वे शिवाजी , रामदास और तुकाराम के प्रतिनिधि थे तो दूसरी तरफ वे लोकमान्य तिलक सावरकर गांधी और सुभाष के भी प्रतिनिधि थे | बहुमुखी प्रतिभा के धनी सेनापति पांडुरंग का जन्म महाराष्ट्र में नगर जिले के पारनेर ताल्लुके में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में 12 नवम्बर 1880 को हुआ था | पिता का नाम महादेव और माँ का नाम गंगा बाई था | पारनेर में प्राथमिक शिक्षा के बाद 12 वर्ष के उम्र में वे पूना के न्यू इंग्लिश हहाई स्कुल में दाखिल हुए | वह योग्य शिक्षको के सानिध्य में इनकी बौद्धिक प्रतिभा का निखार हुआ | पढाई के दौरान ही पूना में प्लेग का प्रकोप फ़ैल गया | पांडुरंग को स्कुल छोड़कर पारनेर वापस आना पडा | बाद में अहमदाबाद रहकर हाईस्कूल की परीक्षा दी | परीक्षा में उच्च अंको से पास होने के कारण उन्हें छात्रवृति भी मिली | 1900 में उन्हें पुणे डेक्कन कालेज में दाखिला मिल गया | शिक्षा के साथ वे नौकायन टेनिस कविता नाटक के क्षेत्र में भी बढचढ कर हिस्सा लेते | बी ए करके वे बम्बई आ गये | एक स्कुल में अंशकालिक नौकरी करते हुए आगे की पढाई में जुट गये | इसी वक्त उन्हें विदेश जाने के लिए मंगलदास नाथुभाई की छात्रवृति मिल गयी | वे स्काटलैंड पहुचकर एडिनबरा शहर में मेकेनिकल इंजीनियरिग पढने लगे | साथ ही क्वीन्स रायफल क्लब में निशाने बाजी भी सिखने लगे | यही उन्हें '' ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत की परिस्थिति पर बोलने का एक अवसर मिला | प्रवासी क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा की सहायता से उन्होंने इसके लिए पूरी तैयारी की | उन्होंने शेफर्ड सभागार में '' ब्रिटिश रुल इन इंडिया '' विषय पर लिखे अपने निबन्ध को गंम्भीर एवं ओजस्वी ढंग से प्रस्तुत किया | बाद में वह निबन्ध के रूप में प्रकाशित भी किया गया | लेकिन उसके प्रकाशन के तुरंत बाद निबन्ध में पांडुरंग द्वारा ब्रिटिश सत्ता के कड़ी आलोचना व विरोध को लेकर उनकी छात्रवृति समाप्त कर दी गयी | फलस्वरूप उन्हें लन्दन के ' इंडिया हाउस ' में आना पडा | यहाँ उनकी भेट विनायक दामोदर सावरकर से हुई | आपसी सलाह से वे बम बनाने का हुनर सिखने के लिए पेरिस चले गये | इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी | 1906 में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में होने वाले काग्रेस अधिवेशन के लिए उन्होंने ' कांग्रेस को क्या करना चाहिए " शीर्षक से एक गंम्भीर और सुझावपूर्ण लेख अधिवेशन के अध्यक्ष के पास प्रेषित किया था | इसमें उन्होंने मुख्यत: कांग्रेस को राष्ट्र -- स्वतंत्रता को उद्देश्य बनाकर रणनीतिया  तय करने का सुझाव रखा था |    
1908 में वे श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर की सलाह पर हिन्दुस्तान  लौट आये | पहले वे कलकत्ता गये | कलकता से उनके लिए बुलावा भी आया था | खासकर बम बनाने के लिए सलाह व मशविरे देने के लिए उन्हें वहा  बुलाया गया था | यह काम वहा  के क्रान्तिकारियो की फौजी शाखा कर रही थी | क्रान्तिकारियो की दूसरी शाखा प्रचार कार्य में जुटी हुई थी | उसका काम समाचार पत्र निकालना और क्रान्तिकारियो के कतार में नई भर्तिया करना था | पांडुरंग अपना कार्य करके शीघ्र ही पारनेर वापस लौट आये | लेकिन दो महीने के अन्दर ही कलकता के क्रांतिकारी दल का सदस्य नरेंद्र गोस्वामी पकड़ा गया और वह पुलिस का मुखबिर बन गया | उसने सभी का नाम बता दिया | उसमे बापट का नाम भी था | सुचना मिलते ही बापट भूमिगत हो गये | और लगभग साढ़े चार वर्ष तक अज्ञात वास  में रहे | इस बीच वे पुणे मगर भुसावल औरंगाबाद , बडवानी धार देवास इंदौर उज्जैन मथुरा वृन्दावन काशी घूमते हुए पुलिस को चकमा देते रहे | लेकिन काशी से पुन: इंदौर आते ही वे पुलिस के गिरफ्त में आ गये | लेकिन तब तक उनके व अन्य क्रान्तिकारियो के विरुद्ध मुखबिर बने नरेंद्र गोस्वामी को क्रान्तिकारियो ने मार दिया था | अत: साक्ष्य के आभाव में बापट को भी मुक्त कर दिया गया | इस बीच बीमार पड़ जाने के कारण वे अपने गृह क्षेत्र पारनेर वापस लौट आये |  
पारनेर में उन्होंने समाज सुधार का काम शुरू किया | वह नालिया साफ़ करने महारो ( दलित जाति ) के बच्चो को पढाने तथा लोगो में गीता व ज्ञानेश्वरी पर प्रवचन देने का काम करने लगे | 1914 में पुत्र की प्राप्ति पर उन्होंने लोगो को भोज दिया | भोज में दलितों की पंगत पहले बैठाई और ब्राह्मणों की पंगत बाद में | समाज सुधार के इन कामो का विरोध भी उन्हें लगभग हमेशा ही झेलना पडा | अप्रैल 1915 में वे पूना आगये | पहले उम्होने ' चित्रमय जगत ' नाम से समाचार पत्र में काम किया | 5 - 6 माह बाद तिलक के पत्र ' मराठा ' में काम करने लगे | पुणे में भी नालियों की सफाई और सामाजिक सुधार का काम जारी रखे | 1916 में बीजापुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में बापट प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा नागरिक अधिकारों की कटौतियो के विरोध में काउन्सिल व् नगर पालिका के सदस्यों को अपने पदों से इस्तीफा दे देने का प्रस्ताव किया | साथ ही सरकार को युद्ध का खर्चा न देने तथा सैनिको की भर्ती में ब्रिटिश हुकूमत की सहायता न करने का भी प्रस्ताव किया | उनके इस प्रस्ताव का वह की आम जनता में भारी समर्थन मिला | हालाकि उनका प्रस्ताव संचालक कमेटी द्वारा नामंजूर कर दिया गया | बाद में बापट ने ' मराठा ' पत्र छोड़कर ' लोक संग्रह ' नाम के दैनिक समाचार पत्र में विदेशी राजनीति पर लेख लिखने का कार्य आरम्भ किया | साथ ही वे ज्ञान कोष कार्यालय में काम करते रहे तथा महाविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए ट्यूशन कक्षाए  भी चलाने लगे | इसी के साथ वे 1920 में बाम्बे में चल रही मेहतरो की हडताल में सक्रिय रूप से भागीदारी भी निभाते रहे | उनका मार्ग दर्शन करते रहे | समाचार पत्रों ने इस हडताल को कोई महत्व नही दिया | बापट ने ' सन्देश ' समाचार पत्र द्वारा इसे प्रमुखता देकर झाड़ू -- कामगार मित्र मंडल  की स्थापना की | हडताल के लिए धन इकठ्ठा किया | हडतालियों और उनके परिवार वालो के लिए घर -- घर जाकर रोटिया एकत्रित करने का काम भी करते रहे | अंतत: यह हड़ताल सफल हुई | श्रमिको के सफल नेतृत्व का यह उनके जीवन का प्रथम अनुभव था |   
तत्पश्चात बापट ने गोखले की अध्यक्षता में पुणे राजबंदी मुक्ता मंडल स्थापित किया और उसके कार्यवाहक बने | इस मंडल का मुख कार्य अंडमान में काले पानी की नारकीय सजा भोग रहे कैदियों को छुडवाने का प्रयास करना था | विनायक दामोदर सावरकर इस प्रयास में पहले से ही लगे थे | राज बन्दियो को छुडवाने के लिए बापट ने अथक प्रयास किये | घर - घर घूमकर गले में पट्टी लगाकर और समाचार पत्रों के जरिये आह्वान कर लोगो को जागृत करने का काम शुरू किया | समर्थन में लोगो का हस्ताक्षर लेने की मुहीम शुरू की | इसी के साथ वे मुलसी के सत्याग्रह आन्दोलन से भी जुड़ गये और उनके अगुवा लीडर बन गये | महाराष्ट्र के सहयात्री पर्वत की विभिन्न चोटियों पर टाटा कम्पनी ने 20  से 22 की संख्या में बाँध बनाने की योजना तैयार की थी | इसमें से एक बाँध मुलसी के निकट मुला व नीला नदियों के संगम पर बाधा जाना था | मुलसी बाँध के काम में 54  गाँव को वह से उजड़ जाना था | बाँध परियोजना का यह काम ब्रिटिश सरकार के सहमती व समर्थन से देश की टाटा कम्पनी द्वारा किया जा रहा था | उसके विरुद्ध आन्दोलन पहले से ही चल रहा था लेकिन उसके सारे नेताओं को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था | अब बापट के नेतृत्व में 1 मई 1922 को सत्याग्रह आन्दोलन पुन: शुरू किया गया | कुछ ही दिनों बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और 6 माह के लिए यरवदा जेल भेज दिया गया |जब वे छूटे तो आन्दोलन ठंठा पड़ चुका था | इन विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने आन्दोलन को पुन: शुरू किया | इसके लिए उन्होंने पूरे क्षेत्र में दौरा किया | वे जगह -- जगह लोगो को जागृत करने मुलसी बाँध के विरोध में अत्यंत प्रभावपूर्ण ढंग से बताते हुए अपनी कविताओं का पाठ भी करते | अपने भाषणों में वे यह बात भी जरुर कहते कि अब गप्प मारने के दिन खत्म हो गये है बम मारने के दिन आ गये है | पुलिस फिर उनके पीछे लगी और उन्हें एक वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया | जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने व्यक्तिगत  प्रयास से आन्दोलन तेज करने का निर्णय लिया |  
उन्हें इसके लिए सहयोगी भी मिल गये | बाँध के विरोध में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ रेल रोकने के लिए लाइन पर पत्थर डालकर और स्वंय हथियार से लैस होकर रेलवे लाइन पर एक अडिग सेनापति के रूप में खड़े हो गये | संभवत: तभी से उन्हें आम जनता सेनापति कहने लगी | लेकिन इस विरोध के बाद उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया , और इस बार 7  वर्ष के लिए सिंध प्रांत के हैदराबाद जेल में डाल दिया गया | जेल से रिहा होने के बाद 28 जून 1931 को वे महाराष्ट्र प्रांतीय काग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये | विदेशी बहिष्कार आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भागीदारी निभाया | ब्रिटिश राज्य के विरोध में जनता को आंदोलित करने में लगे रहे | उनके भाषणों को राज्य विरोधी तथा भडकाऊ मानकर उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | इस बार उन्हें 10 वर्ष की सजा सुने गयी 7 वर्ष काले पानी और 3 वर्ष तक दूसरे जेल में कैद रहने की सजा दी गयी | पहले उन्हें रत्नागिरी के केन्द्रीय जेल भेजा गया | जेल में बी वे साफ़ सफाई के काम में लग गये | साथ ही संस्कृत हिंदी मराठी में कविताओं की रचना में लगे रहते | गांधी जी के अनशन के समर्थन में उन्होंने जेल में अनशन शुरू कर दिया | तबियत बहुत खराब हो जाने के बाद उन्हें 23 जुलाई 1937 को रिहाकर दिया गया |   
ठीक होने के बाद वे गांधी जी से मिलने सेवाग्राम गये वहा से लौटकर उन्होंने भारतीय प्राणयज्ञ दल बनाने में जुट गये | इस दल ने यह तय किया हुआ था कि स्वतंत्रत भारत का सविधान बनाकर उसे ब्रिटिश शासको को भेजने के साथ एक साथ लोग सार्वजनिक स्थल पर मृत्यु का आलिगन करे | ताकि ब्रिटिश हुकूमत पर उस सविधान को स्वीकारते हुए देश को स्वतंत्रत करने का दबाव पड़े | इसके लिए उन्होंने प्रतिज्ञा पत्र तैयार किया | उस प्रतिज्ञा पत्र पर 21  आदमियों ने हस्ताक्षर भी किया | प्राणयज्ञ के लिए निश्चित समय से पूर्व ही पुलिस को इसकी खबर लग गयी और उसने बापट को गिरफ्तार कर लिया | हालाकि इस बार उन्हें जल्दी ही छोड़ दिया गया | इसी बीच गांधी जी के असहयोग के चलते काग्रेस के चुने हुए अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पडा | बापट ने सुभाष बोस को सही माना और उनकी पार्टी फारवर्ड ब्लाक के साथ हो गये | उन्हें फारवर्ड ब्लाक की महाराष्ट्र शाखा का अध्यक्ष बनाया | अध्यक्ष पद से उन्होंने जगह -- जगह द्दितीय विश्व युद्ध में भारत को शामिल किये जाने का विरोध किया | फारवर्ड ब्लाक के मंच से उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरोध में अपने बयानों भाषणों का क्रम जारी रखा | कोल्हापुर रियासत में उन्हें धारा 144 के विरुद्ध बंदी बना लिया गया | लेकिन उन्हें ब्राड लाकर छोड़ भी दिया गया | इसी तरह उन्हें कई जगहों से बंदी बनाकर दूसरी जगहों पर छोड़ा जाता रहा | सबसे बाद में बाम्बे चौपाटी में भाषण देते हुए उन्हें गिरफ्तार करके नासिक जेल में राजद्रोह के आरोप में बंद कर दिया गया | जेल से छूटने के बाद नागपुर में सेनापति बापट की अध्यक्षता में ब्रिटिश राज विरोधी विद्यार्थी परिषद की सभा हुई | वहा  उन्होंने पुन: इस युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य और भारत में उसके राज्य का विरोध किया | अमरावती की ऐसी एक सभा में भाषण से पहले ही पुन: गिरफ्तार कर लिया गया | एक वर्ष की सजा सुने गयी | 1946 में जेल से छूटने के बाद अपने जन्म स्थान पारनेर पहुचे | उस समय वहा दुर्भिक्ष की घनघोर छाया पसरी हुई थी बापट लोगो की सहायता में जुट गये स्वंय मजदूरी करने के साथ -- साथ अशक्त लोगो के लिए रोटिया जमा करने तथा सहायक निधि एकत्रित करने में कम में जुट गये | 15 अगस्त 1947 के दिन पुणे शहर में तिरंगा फहराने का गौरव सेनापति बापट को मिला | लेकिन उसके  बाद बापट कोई पद -- प्रतिष्ठा को लेने की जगह राष्ट्र सेवा -- जनसेवा के कार्य में पुन: लग गये | बाद के दौर में उन्होंने गोवा मुक्ति आन्दोलन में हिस्सा लिया | अतत: शरीर कमजोर होते गये अथक सेनानी व सेनापति बापट का 28 नवम्बर 1967के दिन देहांत हो गया |

-सुनील दत्ता
 स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक