नारी "उठ नारी , वह मृतक है जिसके पाशर्व में तू लेटी है |

नारी "उठ नारी , वह मृतक है जिसके पाशर्व में तू लेटी है |उठ और इस नवोदित को वर ,उठ और जीवितों के जगत में प्रवेश कर |" . मैं नारी हूँ -भारतीय नारी |मेरी कहानी अभिशप्त की है |इस कहानी के प्रसार पर वेदना का विस्तार है ,रक्त का रंग उस पर चढा है , दुर्भाग्य के कीचड़ में वह सनी है | मैं नारी हूँ , पितृसत्ताक युग से पूर्व मातृसत्ताक -युग की भारतीय नारी , जिसने वनों का शासन किया ,जनों का निग्रह किया |तब मैं निसंतान नग्नावस्था में गिरी -शिखरों पर कुलांच भरती थी , गुहा -गह्वरो में शयन करती थी ,वन -वृक्षों को आपाद -मस्तक नाप लेती थी ,तीव्रगतिका नदियों का अवगाहन करती थी | शक्ति -परिचायक मेरे अंगो में तब भारी स्फूर्ति थी ,शशक की गति का मैं परिहास करती थी ,मृग की कुलांच का तिरस्कार |सूअर को मैं अपने भाले पर तौल लेती थी और सिंह की लटो से मैं बच्चो के झूले बांधती थी | सिंहवाहिनी थी तब मैं ,काल्पनिक दुर्गा नही , प्रयोग -सिद्ध चण्डी |आज सिंह का गर्जन आतंक का प्रतीक है |तब मेरी हुंकार वन के मार्ग को प्राणहीन कर देती थी |सिंह और सूअर मेरी राह छोड़ हट जाते , हाथी मस्तक झुका लेते , गैंडे मुग्ध मुझे देखते रह जाते |__और पुरुष ? पुरुष मेरा दास था , मेरे श्रम से उपार्जित आहार का आश्रित | मेरे अंग -अंग में शक्ति बसती थी ,रोम -रोम में स्पन्दन था |शिराए , रज्जू की भाति स्कन्ध पर , वक्ष पर भुजाओं पर , जानुओं के विस्तार में जैसी उलझी खिची रहती |शिकार से लौट कंधो पर मृग और सूअर लाद जब मैं उछलती -कूदती पसीने से लथपथ उपत्यका में उतरती तब मेरा परिवार मुझे घेर लेता , मेरा गृहस्थ नर ,मेरी शक्ति -मण्डित बालक -बालिकाए |........ नर तब मेरा मुँह ताकता , मेरी भाव -भगिमा देखता , मेरे तेवरों से काँप उठता |तब मैं जब चाहती ,उसे बदल सकती थी |उसके कालभुक्त जर्जर गात से मेरी अभितृप्त जब ना होती , मैं तत्काल उसे उसके भाग्य पर छोड़ अन्यत्र चली जाती ,तरुणायत पुत्र को उसका स्थानापन्न करती और अपनी स्थिति कमजोर देखते ही शक्तिमुखी कन्या के मार्ग से हट जाती -पर हट आसानी से न जाती |कन्या स्वाभाविक उत्तराधिकारिणी थी |मेरे प्रोढ़ मासल तन को वह अपलक देखती -"क्या इस शक्ति -परिचय का अन्त न होगा ?" वह मेरी शक्ति के मध्याह्न के बाद अपराह्न था और मैं अपनी शक्तिमुखी कन्या के विचारों को आंकती -समझती |माँ के प्रौढ़ मांसल तन को कभी मैंने भी इसी आँख से देखा -निहारा था |अक्सर तब मेरा अन्त संघर्ष में होता , माँ -बेटी के संघर्ष में | उस काल यदि कोइ अभागा था तो वह नर -दास जिसके लिए इस बदलते शक्ति -शासन में कोइ अपनापन न था |उसका गृहालू जीवन जैसा पहले कार्यबहुल था ,वैसा ही अब भी बना रहा -दब्बू महत्वहीन ,आकाक्षारहित ,भविष्यहीन |... सहस्त्राब्दियो बाद ...... जीवन बदल गया था , वन बदल गये थे , पर्वत और जल -स्रोत बदल गये थे | मैं स्वंय अपने को पहचान न सकी | मैं अब उसकी गुलाम थी जो कभी मेरा गुलाम रह चुका था ... उस कभी के दब्बू , महत्वहीन ,आकांक्षा रहित , भविष्यहीन नर की | -अब वह भविष्यहीन नही था |सूर्य की भांति अब वह पूर्व क्षितिज पर आरूढ़ था और उसकी शक्ति की अरुणाभ उषा कब की पुर्वाकाश में नाच चूकि थी |अब उसकी शक्ति गगन की मूर्धा की ओर अत्यंत तीव्र गति से उठ चली थी | दयनीय वह नही , दयनीय मैं थी |अब युग माँतृसत्ताक नही पितृसत्ताक था |नर अब साभिमान गृह का शासन करता था |अब एक गृह था , गृहों में कुल का निवास था ,कुलो का एक ग्राम था , और मैं सबकी चेरी थी , गृह की , कुल की ग्राम की | परन्तु अभी भी मैं अविवाहित थी , रखेली | रख ली जाती थी और रख लेना ही मेरी शक्ति की नाप थी |हाँ , कभी -कभी मैं अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती , अपनी मायाविनी भीषण शक्ति का और तब शक्तिमान नर के आश्रय में भाग जाती -दृढतर वृक्ष की घनी छाया में विश्राम करती | अब अनेक कबीले थे , अनेक जन |इस कबीलों में , जानो में , युद्ध होता -मेरे लिए ,चरागाहो के लिए , खेतो के लिए |युद्ध होता -साधारण युद्ध नही , ऐसा जो गाँव के गाँव नष्ट कर देता | दबे पाँव , रात के अँधेरे में कबीले वाले आते |नर जो अब अपने को मर्द कहने लगे थे -चोर , छिप कर चोट करने वाले मर्द | मुझे याद है , मैंने अपने पूर्व के शक्तिपुंज -जीवन में कभी इस प्रकार की चौरवृत्ति न अपनाई थी | मर्द आते , रात के अँधेरे में | हमला करते , गाँव का गाँव उजड़ जाता , लूट जाता भस्म हो जाता |हार कर जीवित रहना तब संभव न था |लड़ाई शेर और सूअर की थी जो लड़ कर मर जाते है |मर्द मर जाते , गाँव के बाहर आग की लपटे आसमान चूमने लगती , और विजेता वृद्धो और बालको को उन लपेटो में स्वाहा कर देते |यदि कोइ बच पाती तो मुझ जैसी | नारी बच ही नही जाती , बचाई जाती थी , उसी प्रकार जैसे पशु | मर्द का यह शासन था , उसी का न्याय था और उसके न्याय में जीवन नही मृत्यु थी , शान्ति नही , अनुपात था |..... नारी की उसे आवश्यकता थी ,अतीव आवश्यकता थी और वह उसे बचाता था |जैसे वह शत्रु के पशुओं को बचाता था , वैसे ही वह उसे बचाता था , नारी को | पशुओं के श्रम की , उनके दूध की , उनके शावको की उसे आवश्यकता थी |मर्द उन्हें पकड ले जाता था | नारियो के श्रम की उनके दूध की , उनके शावको की भी ,अगले युद्धों के लिए , उसे आवश्यकता थी |मर्द उन्हें भी पकड ले जाता था + मर्द का काम अब एक से न चलता था , उसकी परितृप्ति का साधन अब अनेक नारियो को बनना पड़ता था |और उसके समूह में जो प्रधान होता , मुख्य अरे वह तो दैत्य था ---- उसकी अतृप्ति की सीमा न थी | नारी का अनवरत श्रृखला उसके भोग की परिधि बाँधने का प्रयत्न करती और कड़ी -कड़ी ही रहती ,पर उसका प्रयास निष्फल होता |उसकी तृष्णा का अब असीम उदय हो चला था जिसका उसके उत्तरकालीन "महापुरुषों " ने अनंत घटाटोप बांधा | वह नर का परिवार न था , वास्तव में वह तब नारी का परिवार था , उसकी संख्या की अनेकता का , उसके अश्रुसिक्त व्यवसाय का उसके घृणित अवांछित व्यभिचार -व्यापार का |उसकी 'इहा 'का न कोइ अर्थ था , न अनिच्छा की कोइ परवाह थी |वह नर की वासना की अभितृप्तिमात्र करती | परन्तु इसकी भी एक सीमा थी |नर के अलसित अर्द्ध -निमीलित क्षणिक स्वप्लिन स्नेह की भाजन भी वह अपने शरीर के सम्मोहक व्यापार से ही बन सकती थी |और इस शरीर के सम्मोहक व्यापार की भी परिधि होती है |काल का परिमाण उसमे विशेष भाग पाता है |रूप -रस -गंध का विलास जब तक उस शरीर से सधता , तभी तक वह क्षणभंगुर सुख -व्यंग भी प्राप्य होता , वरण फिर उसकी गति भी निदुर्ग्धा गो की हो जाती |अन्तर केवल इतना रह जाता की गाय बिना काम किए खेत पर घास खाती या मैदान में चरती परन्तु मैं तब केवल श्रम करती करती , जर्जर शरीर से | मैं उपेक्षिता , सर्वहारा ,निरादृता , नारी ! मैंने एक कदम और लिया |खन्दक की गहराइया नीचे खुलती जा रही थी |उनमे ताल न था और मैं अधो-मुखी हो चली थी |फिर भी कुछ नवीनताओ के इस स्थिति में दर्शन हुए | एक नये श्रमिक का मेरे क्षेत्र -वृत्त में पादुर्भाव हुआ |वह नर था -मर्द , पर उसमे नरत्व या मर्दानगी का कोइ चिंह न था |शायद पहले कभी वह नर रहा हो ,मर्द भी रहा हो , पर अब उसमे और पशु में कोइ अन्तर न था | मेरी प्रसंशा इसमें थी की नर-देवता के विलास में अविराम अंग -संचालन से रस घोलू ,उस नराकृत मर्द वैभव इसमें था की श्रम में वह पशु को नीचा दिखा दे |पीठ पर कोड़े का प्रभाव कितना क्षणिक है ,यदि वह पशु की भाति त्वचा कपा कर दिखा देता और व्यवस्थित कर्म में रत हो जाता तो उसका स्थान निश्चय स्वविधो में आगे था | इस नवागन्तुक को अपने परिवार में आया देख कुछ अभितृप्ति हुई | वह दो कारणों से |एक तो यह की उसने गृहकार्य में हाथ बटाया और दूसरे यह की झेलने की परम्परा में एक और प्राणी की वृद्धि हुई | यह वृद्धि कैसे हुई ? अब कबीला या जन गाँव पर आक्रमण कर उसके जनबल को सर्वथा नष्ट कर देता था |वृद्ध और बालक तो बाहर होते थे |वृद्ध तो सर्वथा और बालक को खिला -पिला कर बछड़े की भाति बड़ा करना पड़ता था |इससे उनको भी आग की लपटों में डाल दिया जाता था |परन्तु युद्ध के तरुण बचा लिए जाते और श्रृखला में बंध कर वे विजेता जन के दास बनते |और हमारे प्रहार का भी जब -तब वे ही आधार बनते | अभी मेरा विवाह नही होता था ,फिर भी मैं प्राय:एक ही व्यक्ति की अभितृप्ति का साधन बनती |और अब एक और विपत्ति का सामना करना पडा | एक नयी जाति ने हमारे देश पर आक्रमण किया |उस जाति का नाम उसके आचरण पर प्रभूत व्यंग्य था |वह अपने को 'आर्य 'कहती थी और संसार के जनों में अपने को सबसे उन्नत मानती थी |परन्तु उसका व्यवहार मैंने अपनी आँखों से देखा , उसने हमारे अच्छे-बुरे मर्दों की सभ्यता तोड़ दी | समय की प्रगति ने हमारे पुरुषो को मेधा दी थी और उन्होंने सुन्दर नगरो के निर्माण से एक सभ्यता को जन्म दिया , परन्तु नवागन्तुको ने उसे कुचल डाला |वे नितांत रिक्त -हस्त आये थे |उनका तो गान भी यही थी -खुले हाथ आये है ,खुले हाथ जायेंगे | निश्चय ही वे दरिद्र थे |घोड़े की पीठ पर अपना घर लिए आये और हमारे पुरुषो पर उन्होंने बाणो की वर्षा की ,अपने भयावह दाढो वाले कुत्तो को ललकारा |हमने स्वंय उनकी सेनाओं का सामना किया परन्तु उनकी शक्ति ,उनका पौरुष ,उनका युद्ध कौशल ,सभी हमारे पुरुषो से कही बढ़ कर थे और उन्होंने हमारी सभ्यता नष्ट कर अपनी सभ्यता उसके स्थान पर खड़ी की | वस्तुत:मुझे इसका अफ़सोस नही की कौन हारा , कौन जीता ,क्योंकि मेरे लिए दोनों ही प्रभु थे , स्वामी |फिर भी आगन्तुको के व्यवहार से मेरा दिल हिल गया ,रोम -रोम काप उठा |मेरे लिए वे विध्वंस का प्रतीक होकर आये | अब तक मैं पिसती थी ,दिन -रात श्रम की श्रृखला में बंधी रहती थी |फिर भी जीवन इतना सशंय में न था |उसका मूल्य तो निश्चय कुछ न था ,परन्तु वह साधाराणत: चल जाया करता था |श्रम की मात्रा बढा देने के साथ -साथ कुछ जीवन की आसानिया भी हासिल हो जाती थी , उसका कडवापन कुछ कम भी हो जाता था ,पर नवागन्तुको ने एक नयी सूरत पैदा कर दी | वे नितान्त मनस्वी थे , गर्वीले |वे सह न सकते थे की उनकी भोगी हुई नारी कोई और भोगे |उनका एक विधान था -पुरुष भोगी है स्त्री भोग्या और भोगी के जीवन के बाद भोग्या को तन रखने का कोइ अधिकार नही |. इसके बाद जो ललाट -लेखा मेरे सामने आई उसे मनुष्य चुपचाप नही सुन सकता ,विक्षिप्त हो जाएगा |जब उस नयी आर्य जाति का नर मरने लगा ,तब उसकी चिता पर उसकी नारियो को भी जलना पड़ता था | जीवन में उसकी अनेक नारिया थी और वह संभव न था की उसकी मृत्यु के बाद उन्हें कोइ और भोगे |फिर उनका मृत्यु के बाद का भी एक ससार था -जीवित विलास का ,जिसे वे स्वर्ग कहते थे ,जहा उनका देवता इंद्र अनेक वेश्याओं के साथ विहार करता था |वही उनको भी जाना था और वे अपने विलास के सारे साधन अपने साथ ले जाना चाहते थे | भारत आते समय वे उन सभ्यताओं की राह होकर निकले थे जहा यह परम्परा और गहरी थी और उन्होंने अपनी नारी या नारियो को अपने मर जाने के बाद भी जीवित न छोड़ा |उन्हें अपनी चिरसंगिनी बनाया , लपटों में उन्हें स्वाहा किया | मैं अकेली ही तो उसकी नारी न थी |मेरी जैसी उनकी अनेक थी और उन हतभागिनियो को एक साथ जल मरना होता था | और वे 'ऋषि 'कहलाते थे ,सत्य का दर्शन करते थे ,मन्त्रो का उच्चारण | अभी शायद उनमे विवाह परम्परा न थी |इससे मेरा जीवन और संकटमय हो गया | मेरे पहले के पुरुषो में तो कम से कम यह बात थी कि उनकी अनेक नारिया होने के कारण जब तब मुझे उस घृणित 'हरिणीखुर -वृति से अवकाश भी मिल जाता , परन्तु इस नयी दुनिया में तो एक नई दशा भी झेलनी पड़ी | मैं एक सर्वथा न थी जिसकी कही जाती थी ,उसकी भी सर्वथा नही |उसके सामने ही लोग मुझे बारी -बारी से उठा ले जाते | यह एक नया अनुभव था |अनेक में से एक होना कुछ विशेष न खटका ,पर यह तो अदभुत था कि कोइ आये और उठा ले जाए | एक दिन चुपचाप बैठी थी |ऋषि ब्रहाचारियो को पढ़ा रहे थे |दुसरा ऋषि आया |मेरे अपने कहलाने वाले के देखते ही देखते उसने मुझे उठा लिया और पास कि अमराइयो में चला गया |उसके बाद कि कथा पाशविक है , नितान्त घृणा से भरी | जीवन -जिसमे मुझसे कुछ न पूछा जाए , मेरी चित्त -वृत्ति का अनुमान तक न किया जाए ,मेरी रूचि -अरुचि भी न पूछी जाए और मेरी कोमल भावनाओं को सर्वथा कुचल दिया जाए |मुझसे अच्छी तो वे बाबुल की मेरी बहने थी जिन्हें देवी के नाम पर जीवन के केवल एक बार ही तो अपरिचित के साथ वेश्यावृति करनी पड़ती थी | अब जो ऋषि को क्षोभ आया तो उसने मेरा विधान कर दिया , वैवाहिक विधान |अब मुझे धार्मिक कृत्यों से एक पुरुष के साथ जीवन व्यतीत करना पड़ता , एक ही के सात जीना -मरना होता | अभी कुछ कह नही सकती कि भविष्य में क्या बड़ा है |भोग कर ही कहूंगी |मेरी कथा का अभी अन्त कहा ?.. आर्य प्रगति ने भारत में एक दूसरा रूप धारण किया |मेरा विवाह हो गया |अनेक क्रियाऔ -प्रक्रियाओ से मेरा विवाह होता |अनेक प्रकार के आशीर्वाद से मेरा अंग -अंग प्रफुल्ल होने लगा | मैं गृह की स्वामिनी कही जाने लगी ,ससुर की साम्राज्ञी , सास की साम्राज्ञी , देवर -ननदों की साम्राज्ञी ,नौकर -दासो की साम्राज्ञी | कुछ अधिकार भी मिले |पिता के धन में नाममात्र को भाग मिलने लगा |वास्तव में वह भाग मेरे विवाह का कौतुक था |मेरा अधिकार तो केवल उन सम्बन्धियों द्वारा भेट की हुई वस्तुओं पर हुआ जिनकी संज्ञा कालान्तर में 'स्त्री -धन 'हुई | फिर भी मैं सिद्धांतत: पति के पर्याय निकट थी |उसके साथ ही , उसी के आसन पर बैठने वाली | मैं अपना पति आप चुनती थी |अनेकाश में मैं उसकी प्रेयसी थी |इससे भी बढ़ कर उसके पुत्रो की माता -साधारण नही दस -दस पुत्रो की माता | मैं अपनी बाबुली बहिन से अब अच्छी थी |कोइ मुझे वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य नही करता था |मेरी इज्जत मेरा पति जान देकर बचाता | मैं कुछ पढ़ती -लिखती थी , शक्तिशालिनी थी , रथ दौडाती पति के साथ युद्ध में जाती | एक बार मैं विपशला के रूप में जन्मी और युद्ध में पैर कट जाने के कारण मैंने लोहे का पैर धारण किया |उसी काल में कय देश में जन्मी और कोशल के राजा दशरथ की रानी हुई |पति साथ मैं रण में गयी और जब रथ के चक्र की धुरी ने जबाब दे दिया , पहिया गिरने लगा और शत्रुओं ने जोर से हमला किया , तब मैंने धुरी में हाथ डाल उससे पहिये को संभाल पति के मान और शक्ति की रक्षा की | आह ,तभी मेरा जन्म सीता के रूप में हुआ |मुझे जो पति मिला , वह मानवो में आदर्श था , शक्ति का पुंज |उसे संसार ने पुरुषोत्तम कहा और मुझे भी कालान्तर में जगदम्बा कह कर पूजा |परन्तु मैं भी क्या ?वह वस्तु जो हरण की जा सकती थी | पौल्स्त्यकुलीय रावण नामक ब्राम्हण ने मुझे हर लिया |एक लम्बे काल तक मुझे उसके यहा रहना पडा , उसकी कैद भोगनी पड़ी |हां , इतना और कहू दू कि मेरे सम्बन्ध में उसका व्यवहार अत्यंत उदार हुआ |मैं उसे कहते नही भूलती कि जब मेरे पिता ने स्वंयवर रचा था |तब वह असाधारण योद्धा भी वहा आया था |परन्तु मैं पड़ी अपने यशस्वी पति राम के हिस्से | इस एकपत्नीव्रत राम ने अपने पूर्वजो कि परम्परा तोड़ मुझे अकेनी पत्नी अगीकार किया और वे साधारण मानव कि भांति मेरे अभाव में दर -दर फिरते और बिलखते रहे |परन्तु आश्चर्य , उन्होंने जब मुझे रावण के बन्धन से छुडाया , तब मेरी अग्नि -परीक्षा करके स्वीकार किया | मिनट -मिनट मैंने वर्ष कि भांति काटे थे उनकी याद में , पर -पुरुष की छाया ने मेरे मस्तिष्क या दृष्टि -पथ का स्पर्श न किया था यद्धपि इस प्रकार के उपपति का स्वीकरण नारी के लिए उन दिनों कुछ अजब न था |कौन -सी औरत थी ,जिसका कोई उपपति न था ?कौन -सा वह पुरुष था ,जिसकी कोइ उपपत्नी न थी ?मेरे समकालीन ऋचा-साहित्य में 'जार 'शब्द भरा पडा है | परन्तु हां , यदि इस प्रगति के कई अपवाद थे तो पुरुषो में राम और स्त्रियों में मैं, राम के भाई उनकी पत्निया , परन्तु राम ने फिर भी मेरी अग्नि -परीक्षा कर मुझे अंगीकार किया |और वह अंगीकरण भी कितना बड़ा व्यंग्य था |तब शासन जनता के हाथ से निकल कर राजन्य -वंशो में कुलागत हो चला था |राजा अपने व्यवहार से प्रजा को यह दिखाना चाहता था कि एक का शासन अनेक के शासन से कही सुब्दर ,कही न्यायप्रिय , कही सुखद है |परन्तु वास्तव में तो उद्देश्य स्वेच्छाचारिता थी,अनियंत्रित निरकुश्ता, सो उसका अभिशाप मुझे ही सहना पडा | किसी धोबी ने मेरा उपहास किया और राम ने मेरा परित्याग कर दिया |और तब मेरी दशा क्या थी ?राम का तेज़ मेरी कोख में था |मैं एकनिष्ठा से अव्यभिचारणी भक्ति से , उस तेज़ को वहन कर रही थी | सौमित्र ने मुझे वाल्मीकि के आश्रम की राह दिखा कर उस भयंकर वन में छोड़ दिया |ससार विश्रुत कवि कालिदास ने मेरे मुह में रखकर मुझसे लक्ष्मण द्वारा पहले तो कहलाया -वाच्यस्त्वया मद्दचनात्स राजा - मेरे शब्दों में जाकर उस राम से कहो |फिर कहलाया -राम का दोष नही , मेरे पूर्व कर्मो का है | पहला तो सही -मैं कहती , मैं आज उसका नाम लेने को तैयार नही |उसने राजा ,केवल राजा मनुष्येतर शक्ति -लोलुप ,यश -लोलुप राजा का आचरण किया |उसके साथ आत्मीयता का कोइ सलूक नही हो सकता |सो तो सही , मैं कहती कहना उस राजा से मेरे कर्मो का विपाक है यह , ऐसा मैं हरगिज नही कहती |वह कालिदास का अपना है |मैं कुछ और कहती , अपना कहती , कालिदास का नही | और मैंने कहा , जिसे कोई सुन न सका उस भीषण वन में - न लक्ष्मण , न वाल्मीकि न कालिदास |मैंने कहा -उस राजा से कहो - मैं उसके समक्ष नागरिका तक नही ,इन्द्रियतृप्त का साधन मात्र हूँ और तुम में लोकापवाद की भीरुता है ,न्यायपथ पर आरूढ़ रहने का साहस नही ! पर राम का आचरण लोकानुकुल था |अनेक पत्नीक राजाओं कि परम्परा में जन्म लेने और बसने का युक्त परिणाम था |नारी कि अवस्था फिर दयनीय -घृणित हो चली थी |कारण कि इस नये देश में अब पत्नियों की कमी न थी |स्पत्निया अनेक होती |स्वंय इन्द्राणी-शची -पौलोमी तक को इसका रोना था |अपनी सपत्नियों पर विजय पाने के लिए वे पुतलियो का डाह करती थी , पति के प्रेम को स्वायत्त करने के लिए औषधि -विशेष का मंतर साधती थी , स्पत्नियो की ओर से पति का मन उचाटने के लिए टोना -टोटका करती थी .... शत्रु की सेना से ,शत्रुओं के घर से , इतनी बहिनों की उपलब्धी हुई थी कि उपलब्धियों का दल का दल घर में झूमता था |राजा अब गायो और दासो कि भांति मेरी बहिनों को भी रथ भर -भर कर पुरोहितो और प्रसादलब्ध को दान करने लगे थे | परन्तु उस युग की एक बात निश्चय सराहनीय है |उन्होंने अपनी पुरानी प्रथा 'सती ' का प्रचलन रोक दिया |बाद में वह फिर चली , पहले भी थी ,परन्तु इस काल निश्चय अवरोध हुआ और आग में जलकर मरने का जो नित्य मेरे मन में खटका लगा रहता था उसका कुछ काल के लिए अन्त हुआ | अब पति के मरने पर मुझे अपना बलिदान न करना होता , वरण दूसरा का ग्रहण शव के साथ एक बार लेटना अवश्य होता , परन्तु शीघ्र देवर -छोटा वर -जिसके लिए विवाह के समय ही मेरी संज्ञा 'देवृकामा '--देवर की कामना करने वाली --पड़ी हाथ पकड़ कर नव -संस्कृति की ओर संकेत करता और पुरोहित कहता "उठ नारी , वह मृतक है जिसके पाशर्व में तू पड़ी है |उठ और इस नवोदित को वर ,इसको जो तेरे विगत पति के धनुष के साथ ही तेरा पाणी-ग्रहण करता है |उठ और जीवितों के जगत में प्रवेश कर |" सुन्दर , पर यह संतान की कामना के लिए सारा आडम्बर था , मेरे दारुण कष्ट के लिए नही | एक नये योग की प्रथा चली ---नियोग की --- जिससे क्लीव पति के स्थान पर उसका भाई , पुरोहित अथवा कुल का कोइ मुझ से पुत्र उत्पन्न करने लगा |सही , मेरा स्वाभाविक ताप जब -तब समाज शास्त्री को साधुवाद कह उठता , परन्तु यदि यह मेरी मनोवृत्ति को द्रव करने की बजाए पुत्रोत्पत्ति का साधन था , तो मैं प्राय:आश्चर्य करती --इसका सुख कृत्रिम पिता को क्या था ? इस प्रकार के आचरण की तो परम्परा बन गयी |इसी काल के अन्त में होने वाली मेरी सगनियो ने समय -असमी इच्छानुसार स्वतंत्रता का लाभ उठाया |सत्यवती ने कुमार्यावस्था में पराशर से उस ऋषि -पुंगव व्यास को उत्पन्न किया जिसने वेदों का सम्पादन किया , महाभारत और पुराण रचे , और अपनी उत्पत्ति -परम्परा का विस्तार किया |इसी नियोग -विधि द्वारा विचित्रवीर्य की विधवाओं -अम्बिका और अम्बालिका ---ध्रतराष्ट और पांडू उत्पन्न हुए और दासी से विदुर |कुन्ती और माद्री का एक भी पुत्र औरस न था | कुन्ती ने तो कुमारिकवस्था में ही कर्ण का प्रसव किया |युधिष्ठिर , भीम , अर्जुन , नकुल ,सहदेव सभी एक से एक धुरंधर हुए |और इनकी उत्पत्ति हुई देवताओं से | हां , उसकी क्या कहू -वह मेरा रहस्य है ,गोप्य | और ये मंदोदरी ,तारा , अहिल्या कुन्ती द्रोपदी प्रात:स्मरणीय पंचकन्याए हुई |प्रात:स्मरणीय , क्योंकि उन्होंने समर्थो के कार्य साधे थे _समाज के छिपे रुस्तम सूर्य , इंद्र , वायु , अश्वनीकुमार समर्थो के---जिन्हें दुषकृत्या का दोष नही लगता | द्रोपदी की याद एक और प्रसंग खड़ा कर देती है |बहुपतिका का |इस देश में मेरा भाग्य अब तक दूसरी तरह का रहा था |मैं पति की चेरी अनेको के साथ रही थी , परन्तु मेरे पति की संख्या सदा एक रही थी , स्पत्नियो की चाहे जितनी रही हो |परन्तु अब एक और इकाई इस सामाजिक परम्परा में आ जुडी | वह इकाई थी अनेक पतिका की |मैंने वह दिन देखा था जब अनेको के बीच मैं उपेक्षित -सी हो गयी थी , परन्तु फिर भी शरीर और स्वास्थ्य मेरे थे |परन्तु अब मैं जीवित नरक में पड़ी , जब अनेक पतियों को मुझे एक -साथ संभालना पडा | पतिव्रत का कैसे स्वांग रच सकती , कैसे कोइ नारी पांच पतियों को अव्यभीचारणी मिष्ठा से एक साथ स्वीकार कर सक्तिहाई ? अर्जुन मुझे वर्ण, पराक्रम ,और बुद्धि तीनो से स्वाभाविक ही पसंद था और मैंने उसके लिए टन , मन ,प्राण कुछ भी आदी न रखा , परन्तु इसका भोग मुझे भोगना पडा | हिमालय की बर्फीली छोटी पर जब मेरा देहावसान हुआ तब भीम के पूछने पर धर्मराज -सत्य कथन के कारण भूमि से हाथ भर ऊँचे हवा में दौड़ते रथ पर बैठने वाले सत्यधन युधिष्टिर ने कहा ,'यह इसलिए सदेह स्वर्ग जाने के पहले ही राह में गिर गयी कि इसने हम सबसे अधिक अर्जुन को चाहा था "" इसी ऋगवैदिक काल के अन्त में त्रेता -द्वापर के बाद मेरा बचा -खुचा स्वत्व भी नष्ट हो गया |मैं पति कि अर्धांगिनी थी ,इससे विधि क्रियाओं का उसके साझे में सम्पन्न करना अनिवार्य हो गया |अश्वमेघ की जो परम्परा चली तो मारी गयी मैं |अब तक मेरा जीवन चाहे जितना भी क्षुद्र ,जितना भी दारुण , जितना भी घृणित क्यों न रहा हो , मानुषिक ही था परन्तु अब सर्वथा पाशविक हो गया | नारी मनुष्य के साथ कुछ भी कर सकती है , परन्तु पशु के साथ -अश्व के साथ ..... सायण-महीधर कैसे उसकी व्याख्या कर सके , ऐतरेय ब्राह्मण में कैसे उसे सम्मिलित किया जा सका ?जनमेजयका वह अश्वमेध .....पुरोहित तुरकावशेष के अश्व का वह आक्रमण ...... हाय किसे मैं गाली दूँ ----अश्वमेधयायियो को या ऋत्विक पुरोहितो को ? उस वैदिक युग में भी पति की छाया मात्र थी मैं |चाहे सीता चाहे द्रोपदी ,चाहे विविध देविया ---सब रूपों में मैं पति की छाया मात्र थी | उपनिषदतकाल का जीवन मुझे और नीचे ले चला |माना , मैं गार्गी और मैत्रेयी थी -ब्राह्नवादिनी -परन्तु कात्यायनी भी तो मैं ही थी | इतने मेधावी महर्षि की पत्नी होकर भी मैं निरक्षर कैसे रह सकी ?जो पुरुष पत्नी को अर्धांग मानता है वह स्वंय व्युत्पन्न और विचक्षण अपने अर्धांग को मुर्ख रखकर स्वंय कैसे मेधावी हो सकता है ? संस्कृति का आलोक तो अपने चतुर्दिक प्रकाश फैलाता है , निकट के अन्धकार को हरता है |फिर इतने युग -प्रवर्तक आत्मवादी की पत्नी होकर भी मेरा अज्ञान दूर क्यों न हुआ ?और एक बात पुछू ?यह त्यागी ,अप्रमादी ,ब्रम्हवादी,विदेह जनक-गुरु , निरीह ,इन्द्रिय-निग्रही याज्ञवल्क्य भी एकपत्नीक न बन सका ?उसने भी मेरे अभ्युदय में सपत्नी की श्रृखला डाल दी | और तभी मैं महर्षि सत्यकाम जाबाल की माता के रूप में भी अवतरित हुई |उससे जब गुरु ने पूछा कि तुम्हारा पिता कौन है -ब्राहम्ण या क्षत्रिय ,तो क्या कहे वह सीधा बालक सिवा मुझसे पूछने के ?और मैं ही क्या बताऊ उसे अपना वह अकथनीय गुप्त रहस्य -और अपना वह नितांत घृणित अमानुषिक पारव्श्य आचरण -पिता के घर अनेक अतिथियों का आगमन ,उनको देवतुल्य मानने कि परम्परा , उनको विमुख न करने कि परिपाटी और उन तृषित रुक्ष अप्रत्यक्ष एकांत विलासियो का एकैक परिभोग ! भला मुझे ही क्या पता ,किसका है वह निवर्ण जाबाल ? आगे का जीवन अत्यंत क्लेश का जीवन था |मैं अपने लिए नही ,ओरो के लिए जीने लगी |पहले मेरा विवाह तन के पुष्ट हो जाने पर हुआ करता था , अब आठ -आठ दस -दस वर्ष की आयु में होने लगा |सारे अधिकार भी छीन गये |अधिकार पहले ही कितने थे , परन्तु अब तो कुछ भी न रहे |पहले कम -से - कम जनन -कार्य सशक्त होने पर करना पड़ता था:अब माँ जाने पर भी शिशुता को झलक न जाती | भूमि , जायदाद सभी पति आदि के थे |पति के मरने पर दूर -दूर के सम्बन्धी यहा तक कि उसके गुरुभाई तक उसमे हिस्सा पाते , परन्तु मेरा पति की जायदाद पर कोई अधिकार न था | मेरी संज्ञा 'अबला 'हई |मैं कुमार्यावस्था में पिता द्वारा , यौवन में पति द्वारा बृद्धावस्था में पुत्रो द्वारा नियंत्रित मानी जाने लगी | वैदिक काल में इंद्र ने कहा था ---"नारी का हृदय वृक (भेडिये )का हृदय है कभी विश्सनीय नही "| अब एक ओर तो सूत्रों ने अल्पायु -विवाह की व्यवस्था दी , जायदाद से मेरा नाम काट दिया | मनु ने एक ओर तो , "नारीरत्न सुदुष्कुलाद्पी " का मन्त्र दिया , दूसरी ओर उसके पूजे जाने की व्यवस्था दी , तीसरी ओर उसका पुनर्विवाह वर्जित कर दिया | इसके बाद दुसरा धर्मशास्त्री जो उठा तो उसने मुझे नौकरों , दासो , चाण्डालो, की पंक्ति में ला बिठाया |उन्हें वेद पढने का अधिकार न था , वेद सुनने का भी नही |मेरी भी व्यवस्था इस सम्बन्ध में वही हुई जो उनकी थी | वेदों की निर्माता कभी मैं रह चूकि थी , पर अब यदि मैं कभी उनका मंत्राश सुन लेती तो शुद्रो -चाण्डालो की भांति मुझे भी पिघला राँगा अपने कानो में लेना होता |निश्चय , अब मैं इन्द्राणी अथवा वाचवन्वी न थी जो ललकार उठती -अह रुद्राय धनुरातनोमी ब्रहाद्दिणे शरवे हन्तवाऊ |" अब मैं बाहर न निकल सकती थी , न किसी से मिल सकती थी |एक बार पति के घर जाकर पिता के घर लौटना असम्भव था |पर्दा का घटाघोप अब मुझे घेर चला | जितने भी दुःख मुझे अगले युगों में भोगने पड़े , उनकी शिलाभित्ति इसी काल , धर्म -सूत्रों और धर्म -शास्त्रों के इसी युग में प्रस्तुती हुई थी |भावी हिन्दू समाज की आधार -वेदी उन्ही विधान -ग्रंथो ने निर्मित की थी और उसके नेपथ्य -पूजन में पहला बलिदान मेरा ही हुआ |मुझ विधवा -बालविधवा --की दशा नितांत करूं हो गयी |मैं अपने पति को किसी अवस्था में न त्याग सकती थी |वह मुझे जब चाहता , छोड़ सकता था ,और उससे बुरी बात तो यह है कि जब चाहता मेरी छाती पर मूंग दलने के लिए सौतेला बिठाता | अत्यंत प्राचीन काल से और उपाय न देख अपने तन कि रक्षा के लिए मैं अपना शरीर चाँदी के टुकडो पर बेचती आ रही थी |लिच्छवियो ,में ,कोसलो में ,मालवो में ,सर्वत्र मेरी पूछ थी |विधवा के लिए समाज में जो सुख था , सती के लिए जो भूख थी , उससे चकलो का बसना स्वाभाविक ही था |और मेरे उस प्रकोष्ठ पर अनेक धर्म -धुरंधर आते | वेश्या , रुजिवा ,वारांगना ,पण्य-स्त्री आदि मेरी संज्ञाए हुई |कौटिल्य ने हमारे उपर टैक्स लगाकर हमारा व्यवसाय और बढाने का प्रबंध कर दिया |पांच -पांच सौ मुद्रा प्रति रात्री मेरा शुल्क हुआ | मैं और करती भी क्या ?चार रास्ते थे -घर में विधवा बने रहने या सती हो जाने का , वेश्या बन जाने का , अथवा बौद्ध संघो में भिक्षुणी कि दीक्षा ले लेने का | भगवान तथागत ने अत्यंत कृपा से संघ की हजार वर्ष के बजाए ,अगर मेरा सम्पर्क हो गया तो पांच सौ वर्षो कि आयु ही आंकी थी |इससे महास्थविर वहा भी भरसक मेरी पैठ न होने देते ,यद्दपि मेरी उनको आवश्यकता थी ---आवश्यकता तो ऐसी थी कि उसके कारण जो मुझ पर बीती ,वह क्या कहू संघ का व्यवसाय भी चलता रहा ,तथागत की भविष्यवाणी भी असिद्ध हुई |पांच सौ वर्ष बाद संघ न टूटा ,और मेरी वजह से उसके भिक्षुओं की संख्यका में नित्य वृद्धि होती गयी | धर्मसुत्रो और धर्मशास्त्रों की मार सह कर भी मैं ज़िंदा रह गयी |नन्द -शुद्रो के उत्कर्ष के साथ मैंने सोचा कि संभवत: मेरा भी अभ्युदय होगा |परन्तु नही ,इस सम्बन्ध में ब्राह्मण -शुद्र एक -से थे |सुद्रो ने ,निश्चय बर्दास्त की अति हो जाने पर जोर लगाकर क्रान्ति कर दी ,परन्तु उसे सह कौन सकता था |क्षत्रियो को नीचा दिखाने के लिए तो उसका उपयोग ब्राहमण ही कर सकता था , जैसा किया भी उसने |कात्यायन और राक्षस दोनों ने'सर्वक्षत्राक ' महापद्मनन्द का साचिव्य किया |परन्तु चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की पीठ ठोक ब्राह्मण -क्षत्रिय के संयुक्त बल से उसका नाश कर दिया |फिर धर्मसूत्रों और शास्त्रों का आतंक जमा | चाणक्य , चन्द्रगुप्त , अशोक आये |अर्थशास्त्र ने अनेक व्यवस्थाये दी ,अशोक ने दलितों के उद्धार के लिए धर्मध्वजाए खड़ी की ,पर मेरे लिए उनमे कही कुछ न था-- मैं फिर भी अपाहिज ही बनी रही | मैं इस लोक की समझी ही नही जाती थी ,मेरे धर्माधिकारी की कुछ चर्चा जब -तब अवश्य हो जाती थी स्त्र्याध्यक्ष -महापात्र मुझे दान की महिमा जरुर समझा जाते थे और विधानों की श्रखला मेरे तन पर कसती जाती थी | मैं अपने नैमित्तिक मार्ग पर चुपचाप चल रही थी |मेरी राह और बनाते थे ,मुझे बस चलना ही चलना था |विधायक स्वंय क्रूर थे , कायर थे ,और परिस्थितियों ने उसकी कायरता प्रदर्शित कर दी थी | बलख से देमित्रियस आया , सीधा पाटलिपुत्र पहुच गया |उसके सामने मौर्य न टिक सके |नागरिक नगर छोड़ ग्रीको के सामने गंगा पार या राजगिरी की गुफाओं में सिधारे ,पर मेरे हाथो में हथकडिया पड़ी थी ,पैरो में बेडिया थी -न तो लाद सकती थी ,न भाग कर रक्षा कर सकती थी |मैं शिकार हो गयी | मेरा अपना क्या था जो जाता ?अपना तो कर्मो के विपाक से सर्वस्व चला ही गया था , चला ही जा रहा था |मुझे अपनापा का बोद्ध क्योंकर होता जब अपना कुछ था ही नही ?मैं तो अपनी थी ही नही ,और की थी; और जब औरो की थी तब जैसी एक की वैसी दूसरे की |रुप्जिविका का और सिद्धांत ही क्या होता है ?सो मैं पाटलिपुत्र के उस विराट नगर में देमित्रियस के सैनिको की हुई | परन्तु इससे भी बढ़कर भयंकर मार मुझ पर कुछ काल बाद पड़ी तभी जब शायद प्रसिद्ध विक्रमादित्य अवन्ती का नाम मालव सार्थक कर रहे थे |लोहिताक्ष शक अम्लाट आया और उत्तरापथ को कुचलता मगध आ पहुचापाटलिपुत्र के नरो को भागने तक का अवसर न मिला ,अम्लाट ने सारे पुरुषो को तलवार के घाट उतार दिया | कही कोई पुरुष दिखाई न पड़ता था और मुझे उन क्रूरकरमा , गंदे ,भीषण शको के चोगो में अपना मुँह छिपाना पडा |सडको पर रक्त प्रवाहित हो रहा था और उन्ही रक्त बहाने वालो को मुझे तृप्त करना पड़ता |संयोगवश शव शीघ्र चले गये ,मुझे सांस लेने का अवकाश मिला | अवकाश क्या मिला ,नितान्त चुप्पी थी |पुरुष नगर में थे नही ,मैंने नगर का शासन संभाला , हल की हत्थी अपने हाथो पकड़ी और नगर की व्यवस्था की |बीस -बीस पचीस -पचीस की संख्या में मैं एक पुरुष के साथ श्वास करती |फिर भी , इतना देख लेने पर भी उसकी अनुपस्थिति में मैंने जो बुद्धि का परिचय दिया था उसे समझ की भी उसने मेरा तिरस्कार ही किया और जब वह सभला तब मुझे अपने विधानों से उसने और जकड़ दिया |उसकी शक्ति मेरे ही सामने जाग उठती थी ,विदेशियों के सामने नही | क्रमश: ......
प्रस्तुती सुनील दत्ता साभार ----''इतिहास के पन्नो पर खून के छीटे '' लेखक .......... भागवत शरण उपाध्याय

ऐ मेरे आख्नो के पहले सपने , रंगीन सपने मायूस सपने

ऐ मेरे आख्नो के पहले सपने , रंगीन सपने मायूस सपने
एक असफल प्रेमी
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है आशना शक्ल हर हसीं की है
हुस्न से दिल लगा के हस्ती की हर घड़ी हमने आतशीं की है
इन्द्रधनुष के सात रंगों की चमक और गंभीरता लिए हिन्दी सिनेमा में एक अनोखा प्यार का राही जिसने बचपन में ही ठान लिया था कि वो अपना सम्पूर्ण जीवन अभिनय को समर्पित कर देगा और उसने अपने बचपन के सपने को साकार भी किया | रंगमंचो से गुजरता हुआ वो नौजवान हरिभाई जरीवाला से संजीव कुमार बन गया और सिनेमा के रुपहले पर्दे पर अपने अभिनय द्वारा एक स्वर्ण युग छोड़ गया |
संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई 1938 में एक मध्यम गुजराती परिवार में हुआ था संजीव की अभिनय की यात्रा बचपन में ही शुरू हो चुकी थी वो अपने समकालीन युवको के साथ स्टेज पर अभिनय किया करते थे और अपने सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने फिल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला ले लिया | गुरुदत्त की असमय मौत के बाद निर्माता निर्देशक के . आसिफ एक महत्वाकाक्षी फिल्म '' लव एंड गाड '' बना रहे थे पर उनको वो फिल्म बंद करनी पड़ी और एक नई फिल्म की शुरुआत की '' सस्ता खून महगा पानी '' के निर्माण में जुट गये | राजस्थान के खुबसूरत नगर जोधपुर में इस फिल्म की शूटिंग चल रही थी उसी दौरान एक नवोदित कलाकार फिल्म में अपनी बारी आने का इन्तजार कर रहा था | लगभग दस दिन बीत गये उसे काम करने का अवसर नही मिला बाद में के आसिफ ने उसे मुंबई लौट जाने को कहा बड़े निराशा से संजीव कुमार को वापस को वापस आना पडा | गुरुदत्त की मौत के बाद के . आसिफ को ऐसे कलाकार की तलाश थी जिसकी आँखे रुपहले परदे पर बोलती हो -- के आसिफ को संजीव कुमार के रूप में अभिनेता मिल चुका था |
राजश्री प्रोड्क्शन निर्मित फिल्म '' आरती '' के लिए उन्होंने स्क्रीन टेस्ट दिया जिसमे वो सफल नही हुए | संजीव कुमार ने 1960 में हम हिन्दुस्तानी से अपने अभिनय यात्रा की शुरुआत की 1965 में '' फिल्म '' निशाँन '' में बतौर नायक बनकर सामने आये और अभिनय के क्षेत्र में अपना पैर जमाया उसके बाद 1968 में ट्रेडजी किंग दिलीप कुमार के साथ फिल्म '' संघर्ष '' में अपने अभिनय से यह साबित कर दिया की अब फ़िल्मी दुनिया के रुपहले पर्दे पर दिलीप साहब को टक्कर देना वाला नायक इस दुनिया को मिल चूका है | उसके बाद 1970 में फिल्म '' खिलौना '' में एक असफल प्रेमी जो अपना मानसिक संतुलन खो देता है उस चरित्र को अपने अन्दर आत्मसात कर लिया था संजीव कुमार के अभिनय ने असल जिन्दगी में भी असफल रहे उन्होंने ड्रीम गर्ल्स से प्यार किया ये पूरी फ़िल्मी दुनिया जानती थी पर ड्रीम गर्ल्स ने उनके प्यार का कोई उत्तर नही दिया |
फिल्मकार गुलजार ने संजीव के अभिनय की बारीकियो को सिनेमा के कैनवास पर बड़े करीने से सवारा और सजाया है चाहे '' परिचय '' का किरदार हो या '' आंधी '' का नायक जो अपने मोहब्बत को बड़े शिद्दत से महसूस करता हो या कोशिश का वो बेजुबान चरित्र अपने मूक अभिनय से पूरी दुनिया को एहसास दिलाता हो और पूरी दुनिया उसके मूक भाषा को समझ लेती है 1970 में प्रदर्शित फिल्म '' दस्तक '' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राष्ट्रीय पुरूस्कार से सम्मानित किया गया | संजीव कुमार ही फ़िल्मी दुनिया के ऐसे नायक है जिन्होंने फिल्म '' नया दिन नई रात '' में अभिनय के नौ रासो को अभिनीत करके हिन्दी सिनेमा में इतिहास रचा | फिल्म '' मनचली '' का वो मनचला नवयुवक हो या फिल्म त्रिशूल का वो ऐसा मजबूर पिता या शोले का वो ठाकुर जो अपने परिवार के मौत पे इंतकाम की ज्वाला में झुलस रहा इंसान '' आपकी कसम का वो डाक्टर जो एक सच्चा दोस्त होता है मनोरंजन फिल्म का वो दीवान सिपाही जो संवेदनाओ में जीता है | उनके अभिनीत फिल्मे '' ऐ यार तेरी यारी '' मूर्ति गणेश की '' वक्त की दीवार ' स्मगलर ' पति पत्नी और वो '' हुस्न इश्क '' गुनहगार '' अनेको फिल्मो में अपने अभिनय के जलवे दिखाए संजीव आजीवन कुवारे ही रहे उनको उनका प्यार नसीब नही हुआ | आज उनकी पूण्य तिथि है उनको शत शत नमन -------------
सुनील दत्ता ---- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

'' काहे को रोये सफल होगी तेरी अराधना दिया टूटे तो ये है माटी जले तो ये ज्योति बने

  • एक ऐसे सुर साधक व संगीत का चमकता ध्रुव तारा आकाश में पूर्णिमा के चाँद के साथ एक ही बार चमकता है त्रिपुरा के शाही घराने में चमका वो तारा सचिन देव बर्मन के रूप में सचिन दा का बचपन खेतो में लहलहाते सतरंगी आभा से सुनहले चमकते रंगों के बीच गेहू और धान की बालियों में गुजरता हुआ बढ़ता जा रहा था साथ ही गाँव के हम उम्र बच्चो के साथ धुल और मिटटी में जब भी खेलने जाते तो उनके कानो में गाँव के एक बूढ़े किसान के गाने की आवाज आती और वे खेल में ही उस गीत से अनायास जुड़ जाते | उस बूढ़े बाबा किसान के गाये गीत सचिन दा में रच बस गया था और वो अपने जीवन के बसंत पार करते हुए भी उस गीत को न भूल पाए और वो गीत सचिन दा के साथ ही उनके जीवन का प्रवाह बन गया और उनके अन्दर के संगीत के सात सुरों की लय को जगा दिया | और इसके साथ ही वो इस संगीत के महासागर में आ गये | इन्ही मार्मिक सुरों के छाव में महान संगीतकार सचिन देव बर्मन ने संगीत की दुनिया में कदम रखा | एक अक्तूबर सन 1906 में जन्मे कुमार सचिन देव बर्मन के दादा त्रिपुरा के महाराजा थे उनके पिता एक कुशल चित्रकार ,कहानीकार ,रंग शिल्पी , के साथ शात्रीय संगीत के ख्याति लब्ध संगीतज्ञ थे | शास्त्रीय संगीत की पहली तालीम सचिन दा ने अपने पिता से प्राप्त किया | सचिन दा ने लोक संगीत की विधा को अपने महल में रहने वाले दो मुलाजिमो से हासिल किया जिनके नाम माधव् और अनवर था | बचपन से ही बर्मन दा को बंगाल के मधुर लोक संगीत से गहरा लगाव था जिसकी झलक उनके गाये गीतों में साफ़ नजर आता है | '' ओरे माझी मेरे साजन है उस पार मैं मन मार हूँ इस पार ओ मेरे माझी अबकी बार ले चल पार मेरे साजन है उस पार '' सचिन दा ने इस गीत के माध्यम से उस सुहागन नारी के अन्तर मन की व्यथा को अपने स्वर से ऐसा सहेजा है कि लगता है ये व्यथा स्वंय सचिन दा का हो और वो उसमे डूब गये है | लहरों से जूझते माझी की पुकार ने सचिन दा की आत्मा पर गहरा असर किया | नतीजा आज भी जब सचिन दा की आवाज आती है तो दिल को छू लेने वाली पुकार की तरह गुजती है | पिता से शिक्षा प्राप्त करने के बाद सचिन दा ने कलकत्ता में उच्च शिक्षा में दाखिला लिया | सचिन दा के पिता चाहते थे कि दादा वकील बने पर सचिन दादा विदेश में पढ़े और वकील बने | पर सचिन दादा का पूरा मन सुरों के सत-- रंगी जाल में फंस चुका था | लिहाजा वो के सी दे के शागिर्द बन गये और इसके साथ ही रेडियो के लिए गीत गाने लगे | 1932 में उनकी मदभरी आवाज को पहली बार रिकार्ड में सुनाई दिया धीरे -- धीरे इस आवाज का नशा लोगो के जेहन में बसता गया | सचिन दादा लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत गायक के रूप में लोकप्रिय होते चले गये | इसी दौरान उन्हें सौभाग्य से उस्ताद फैयाज खान , अलाउद्दीन खान और अब्दुल करीम खान , जैसे शास्त्रीय सुर स्तम्भों की सोहबत मिल गयी | उसके कुछ दिनों बाद बंगला फिल्म में अपने आवाज का हुनर दिखाने का मौक़ा फिल्म '' बंदनी '' से मिला जिसके संगीतकार व मशहूर कवि क्रांतिकारी काजी नजरुल इस्लाम के निर्देशन में गीत गाया |
    '' जैसी राधा ने माला जपी श्याम की '' ठीक वैसे ही उनकी संगिनी ने जपी उनके लिए 1938 में उनकी शागिर्द मीरा दास गुप्ता सचिन दादा के जीवन में प्रवेश की मीरा दास की अहम भूमिका रही सचिन दा के जीवन में उनके संगीत निर्देशन https://www.youtube.com/watch?v=efeDjIA9nYI में गीत गया और सहायक संगीत निर्देशिका के रूप में सहयोग करना | 1939 में इस सुर संगम के मिलाप से राहुल प्राप्त हुए | राहुल देव बर्मन स्वंय बड़े संगीतकार थे | इसी दरमियाँ सचिन दादा ने अपने संगीत का दायरा बढाया और हिन्दी गीतों में कदम रखा |
    '' प्रेम का पुजारी हम है रस के भिखारी हम है प्रेम के पुजारी
    '' तारो भरी रात थी अपनी गली आबाद थी बचपन की भोली बात थी पहली -- पहली मुलाक़ात थी ""
    ''वो न आये फलक , उन्हें लाख हम बुलाये मेरे हसरतो से कह दो , कि वे ख़्वाब भूल जाए ''
    '' याद करोगे याद करोगे एक दिन हमको यद् करोगे तडपोगे पर याद करोगे ''
    '' चल री सजनी अब क्या सोचे कजरा न बह जाए रोते रोते ''
    '' सुन मोरे बन्धु रे सुन मोरे मितवा सुन मोरे साथी रे होता सुखी पल मैं तू अमरलता तेरी तेरे गले माला बन के पड़ी मुस्काती रे ''
    डा के गाये गीत जीवन के यथार्थ और संवेदन शीलता के चिरं को दर्शाता है जब सचिन दादा माँ की व्याख्या करते है अपने सुरों से
    '' मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में शीतल छाया तू दुःख के जंगल में मेरी राहो के दीये तेरी दो अंखिया गीता से बड़ी तेरी दो बतिया ''
    तो सचिन डा सम्पूर्ण नारी जगत के उन सारे संवेदनाओ को उकेरते है \ आज के ही दिन यह निराला सुर साधक अपने अनन्त यात्रा पे चला गया और छोड़ गया अपना स्वर यह कहते हुए '' बिछड़े सभी बारी -- बारी अरे देखे जमाने की यारी क्या लेके मिले अब दुनिया से आँसू के सिवा कुछ पास नही यहाँ फूल -- फूल थे दामन में यहाँ काटो की भी आस नही मतलब की दुनिया है सारी बिछड़े सभी बारी -- बारी --------------- ऐसे महान संगीत सुर साधक को उनके पूण्य तिथि पर शत शत नमन
    सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

जल , जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाना जरूरी है

कब किसी को तल्खिया अच्छी लगी भूख थी तो रोटिया अच्छी लगी जल उठे मेरी मशक्कत के चिराग होठो की सख्तिया अच्छी लगी क्यों रहे कमजोर पत्ते शाख पर पेड़ को भी अधिया अच्छी लगी |
समाज की वर्तमान दशा -- दिशा को एक ऐसे भंवर जाल में इस देश के नेता , देशी पुजीपतियो के साथ विश्व बाजार के बड़े पुजीपतियो ने मिलकर उलझा दिया है | जहा पर आज के हालात में आम किसान , लघु किसान , दस्तकार व मजूर वर्ग के सारे अधिकारों को ये सततता -- शासन -- प्रशासन में बैठे लोग बड़े सलीके से छीनते जा रहे है | 1990 से पहले इस देश का आम किसान हो या मजदूर ये लोग आत्महत्या नही करते थे पर आज स्थितिया पलट गयी है | आज यह वर्ग एक दो नही इनकी आत्महत्याओं की संख्या कई लाख पार कर चुकी है | ऐसे में आजमगढ़ में '' प्रतिरोध का सिनेमा '' ( फिल्मोत्सव ) की पहल एक सार्थक दिशा देती है जहा वर्तमान समय में चैनलों के जरिये यह बताने की कोशिश की जा रही है कि देश विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है वही विज्ञापनों और सीरियलों के माध्यम से सपनों को उड़ान देने का भरपूर प्रयास भी किया जा रहा है पर वास्तविक धरातल पर भीषण अराजकता , भ्रष्टाचार और दमन का रास्ता अख्तियार करके शासन -- सत्ता अपना खेल रही है ऐसे समय में '' प्रतिरोध का सिनेमा '' प्रासगिक हो जाता है | आजमगढ़ में तीन दिवसीय फिल्मोत्सव ने जहा पर लोगो के संवेदनाओं को झकझोरा है वही पर यह उत्सव कुछ अनुतरित प्रश्न भी छोड़ गया कि यह '' प्रतिरोध का सिनेमा '' या '' सिनेमा का प्रतिरोध '' इस महोत्सव की शुरुआत '' प्रतिरोध की संस्कृति और भारतीय चित्रकला '' विषय पर आधारित अशोक भौमिक के सिनेमा स्लाइड के माध्यम से हुआ यह बताना कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने चित्रकला को अपने कब्जे में ले लिया है | प्रतिरोध की संस्कृति और चित्रकला पर ध्यान केन्द्रित करते हुए विजुअल के माध्यम से साफ़ शब्दों में कहा कि वर्तमान पूजीवादी व्यवस्था ने चित्रकला के द्वारा इस समाज में दो फाट में कर दिया है |
एक तरफ वो पूजीपति जिनके पास यह क्षमता है कि किसी कलाकार की कलाकृति को खरीदकर बाजार में उसे बेचकर लम्बी रकम बना रहे है और दूसरी ओर ऐसे आमजन लोग इस घोर बाजारवाद के कारण कलाकृतियों को देखने से भी वंचित रह जाते है | प्रगतिशील भारतीय चित्रकारों -- चित्त्प्रसाद , जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के योगदान को सुघड़ और प्रभावशाली चित्रों के माध्यम से खासतौर पर चित्र शिल्पी चित्तप्रसाद द्वारा बनाये गये रेखाकन चित्रों ने लोगो को सोचने पर विवश करती नजर आई | विशेष कर वो चित्र जिसमे माँ और बेटे के साथ माँ के हाथो में अनाज की बालिया दर्शाई गयी है वो प्रतीक है इस पृथ्वी की और वो बेटा आम जन की भाषा , संस्कृति और परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है यह चित्र सेमिनार में आये प्रबुद्ध वर्ग को एक चिन्तन और दिशा देने के साथ ही एक प्रश्न छोड़ता है ? कि क्या आम किसान आज इस बाजारवादी संस्कृति में सिर्फ लुटता रहेगा इसके साथ ही मशहूर चित्रकार गोवा , पिकासो के चित्रों के माध्यम से उस काल परिस्थितियों पर आधारित चित्रों के साथ ही आज के चित्रकारी तक आते हुए अशोक भौमिक कहते है कि आज पूरी चित्रकारी बाजारवाद के पंजे में फंसी है और उसके प्रभाव से पूजीवादी चित्रकारी बन गयी है | जैनुद्दीन के चित्रों पर चर्चा के साथ ही देश काल परिस्थिति और जन संघर्षो पर बनाये गये चित्र आकाल , तेभागा , तेलगाना व बागला देश के मुक्ति संग्राम के दौरान अपना प्रतिरोध दर्ज कराता है | | ज स म के प्रदेश सचिव ने प्रतिरोध के सिनेमा पर अपना विचार रखते हुए बोला कि आज बालिऊड द्वारा परोसा जा रहा सिनेमा से आम आदमी का कोई सरोकार नही रह गया है आज का सिनेमा सिर्फ पैसा कमाने के लिए बनाया जा रहा है | पिछले देशको में बने सिनेमा को देखते हुए आम आदमी अपनी समस्याओं से रूबरू होता था | जब बालीउड़ जन सरोकारों से अपना नाता तोड़ने लगा तो बौद्धिक वर्ग इससे दूर होता गया ऐसी परिस्थितियों को मद्दे नजर रखते हुए आमजन को जनसरोकारो से जोड़ने के लिए ही ''प्रतिरोध के सिनेमा '' की शुरुआत की गयी है | इतिहासकार बद्री प्रसाद ने अपने विचार व्यक्त रखते हुए कहा कि आज के हालात को देखते हुए समस्याओं से लड़ने के लिए लघु वृत्त सिनेमा की आवश्यकता है ऐसी ही छोटी छोटी फिल्मो के माध्यम से आवाम में जन जागृति लायी जा सकती है | यह फिल्म उत्सव बलराज साहनी और सामाजिक व अंध विश्वास के खिलाफ लड़ने वाले डा नरेंद्र दाभोलकर को समर्पित रहा | डा दाभोलकर ने अपने जीवन में अंध विश्वास और अंधे धर्मवाद के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज किया दाभोलकर अंध श्रद्दा के जबर्दस्त मुहीम में लग गये महाराष्ट्र में दाभोलकर की जंग रंग लायी और लोगो का अंध विश्वास से नजरिया बदला समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के कार्य को किस तरह एक आन्दोलन की शक्ल दी जा सकती है इसकी एक मिसाल कायम किया डा दाभोलकर ने इसके साथ ही बलराज साहनी ने अपने पूरे जीवन प्रगतिशील धारा पर अडिग रहे | भारतीय जन नाट्य संघ के मंच से उन्होंने एक नई चेतना व फिल्मो के माध्यम से आमजन की भाषा , संस्कृति और परम्परा को सिनेमा के कैनवास पर उकेरा |
'' तकसीम हुआ मुल्क दिल हो गये टुकड़े हर सीने में तूफ़ान वहा भी था यहाँ भी हर घर में चिता जलती थी लहराते थे शोले हर शहर में श्मशान वहा भी था यहाँ भी गीता की कोई सुनता न कुरआन की सुनता हैरान सा ईमान वहा भी था यहाँ भी ''
फिल्म '' गरम हवा '' के जरिये आजादी के वक्त की उन परिस्थितियों से दर्शको को अवगत कराते हुए उन दर्दो का एहसास कराया |
दूसरा दिन विश्व सिनेमा की लघु फिल्मो के महत्व व सहभागिता की चर्चा की गयी इसमें प्रिंटेड रेनबो नाम की फिल्म का प्रदर्शन किया गया | इस फिल्म की कहानी एक अकेली बूढी औरत के जीवन पर आधारित है उसके भीतरी अंतर्मन के साथ ही बाहरी दुनिया के विविध रंगों को ध्वनी के माध्यम से सफल निर्देशित किया गया है | सुरभि शर्मा की निर्देशन में बनी फिल्म '' विदेशिया इन मुम्बई '' के माध्यम से मुंबई गये भोजपुरी भाषी लोगो के दर्द को एहसास कराती है कि अपने ही देश में दोहरी नागरिकता में जी रहे दंश को इसके साथ ही भोजपुरी भाषा महानगरी संस्कृति के बीच आज भी अपने श्रम शक्ति के साथ ही अपनी भाषा , कला और संस्कृति को बचाते हुए इसके प्रचार -- प्रसार के साथ ही व्यवसायिकता में अपने को उपयोग कर रहे है इन प्रवासी भोजपुरी समाज का बड़ा हिस्सा टैक्सी चालको , फैक्ट्री , और भवन निर्माण में लगे मजदूरो से मिलकर बना है | इसके साथ ही मुजफ्फर नगर के हालिया दंगो में पीड़ित उन मुसलमानों के दर्द को बया किया गया है इस फिल्म के निर्माता नकुल साहनी से दर्शको द्वारा अनेक प्रश्न भी पूछे गये | इसके साथ ही युसूफ सईद की फिल्म '' ख्याल दर्पन '' के माध्यम से पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत की खोज के मायने अपने आप में बेहद ही समवेदन शील फिल्म रही | फिल्म '' प्यासा '' ने भी यह दर्शको को सोचने के लिए विवश किया '' देंगे वही जो पायेगे इस जिन्दगी से हम तंग आ चुके है कशमकशे '' एक ऐसे नौजवान के जज्बात को उकेरती संवेदना को प्रस्तुत करती है | तीसरा दिन अभिव्यक्ति की आजादी , लोकतंत्र की रक्षा और जल , जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाना जरूरी है यही प्रतिरोध के सिनेमा का मकसद है | आयोजको द्वारा बच्चो के मनोभावों को उकेरने के लिए पेंटिग प्रतियोगिता के एक अच्छी पहल की गयी है जिससे यह तो पता चलेगा कि आज हमारे बच्चे किस दशा और दिशा के बारे में चिन्तन करते है | इसके साथ ही लुईस फाक्स की '' सामान की कहानी और राजन खोसा की बाल फिल्म '' गट्टू के साथ ही जल जंगल जमीन पर आधारित फिल्मे हमे आज सचेत कर रही है कि आज फिर से एक नई जंग की जरूरत है | यह फिल्म उत्सव अपनी सार्थकता जहा उपस्थित करा रहा था वही कुछ आयोजको के लिए प्रश्न भी छोड़ गया | इस बार इसके बहुत से संस्थापक सदस्यों को किसी तरह की जानकारी नही दी गयी और इस फिल्म उत्सव का प्रचार आयोजको द्वारा नगण्य था साथ ही एक बड़ा प्रश्न यह भी छोड़ गया कि प्रतिरोध की आवाज उठाने वाले लोग तीन सौ चौसठ दिन में भी क्या अपना प्रतिरोध समाज में दर्ज कराते है या सिर्फ इन्ही दिनों में वो सीमित रहते है |

  • सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

राहुल दर्शन , पुरातत्व और इतिहास के मौलिक लेखक

जीवन की जिज्ञासा
आज के इस विराट पृथ्वी के फलक पर प्रकृति अपने गर्भ में अनेको रहस्य छुपाये रहती है | प्रकृति समय -- समय पर इस खुबसूरत कायनात को नये -- नये उपहारों से नवाजती आई है | कभी बड़े वैज्ञानिक , ऋषि , महर्षि , दर्शन वेत्ता साहित्य सृजन शिल्पी और इस खुबसूरत कायनात में रंग भरने वाले व्यक्तित्व से सवारती चली आ रही है | ऐसे ही एक बार सवारा था जनपद आज़मगढ़ को 9 अप्रैल 1893 को केदार पांडये ( राहुल सांकृत्यायन ) के रूप में ...........
राहुल सांकृत्यायन विश्व -- विश्रुत विद्वान् और अनेको भाषाओं के ज्ञाता हुए थे |ज्ञान के विविध क्षेत्रो में उनका अवदान अतुलनीय है | भाषा और साहित्य के अज्ञात गुहाधकारो को आलोकित करने , इतिहास और पुरातत्व के अछूते क्षेत्रो को उदघाटित करने , विश्व -- भ्रमण का कीर्तिमान बनाते हुए यात्रा वृतान्तो का विपुल साहित्य -- सृजन और यात्रा -- वृत्त को '' घुमक्कड़ शास्त्र '' के रूप में शास्त्र -- प्रतिष्ठा देने , इसके साथ ही अपनी जीवन -- यात्रा के पांच भागो में एक अनुपम आत्मकथा लिखने और अनेको महत्वपूर्ण ज्ञात -- अज्ञात महापुरुषों की जीवनी प्रस्तुत करने से लेकर पूरा -- तत्व , इतिहास , समाज दर्शन और अर्थशास्त्र के जीवंत पहलुओ को उदघाटित करने वाली विश्व प्रसिद्द कहानियों और उपन्यासों के सृजन , दर्शन एवं राजनीति पर समर्थ साहित्य रचना के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी , किसान -- आन्दोलन की अगुवाई , राष्ट्रभाषा हिन्दी और जनपदीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक सिपाही की भाँती सक्रिय संघर्ष करते हुए उन्होंने विदेशो के विश्व विद्यालयो के प्रतिष्ठापूर्ण आचार्य के रूप में अध्यापन और अपने समर्थ पद -- संचरण से देश और विदेश के दुर्गम क्षेत्रो को अनवरत देखा -- परखा | राहुल गुरुदेव के '' एकला चलो रे '' का भाव इनके समग्र जीवन पर था | इतने कार्यो को एक साथ सम्पन्न करना एक साधारण आदमी के वश का कार्य नही हो सकता | वे चलते -- फिरते विश्वकोश थे और कर्म शक्ति के कीर्तिमान थे | ऐसे महामानव शताब्दियों के विश्व -- पटल पर अवतरित होते है राहुल उन्ही महापुरुषों की श्रृखला में एक थे | -
राहुल की माता का नाम कुलवन्ती देवी और पिता गोवर्धन पाण्डेय एक बहन तथा चार भाइयो में सबसे बड़े राहुल जी निजामाबाद से मिडिल स्कुल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद वे आजमगढ़ के क्रिश्चियन मिशन स्कूल ( वेस्ली कालेज ) में अंग्रेजी पढने गये | उनका मन वहा नही लगा इसी कारण वे वाराणसी के डी. ए. वी स्कूल में प्रवेश लिया , परन्तु वहा भी वे अधिक दिन टिक न सके |
राहुल जी का बचपन उनके ननिहाल पन्दहां में बीता | नाना रामशरण फौजी रह चुके थे | इसीलिए वो अपने सैनिक जीवन के किस्से -- कहानिया उन्हें सुनाया करते थे | बाल्यावस्था के राहुल को विभिन्न देशो -- प्रदेशो के वर्णनों के किस्सागोई को सुनकर उन्हें अपनी आँखों से देखने की इच्छा ने ही उनमे यायावरी का मानसिक आधार तैयार किया | जिसे कक्षा तीन की पुस्तक में इस्माइल मेरठी के शेर
'' सैर की दुनिया की गाफिल , जिन्दगानी फिर कहा जिन्दगानी गर कुछ रही तो , नौजवानी फिर कहा | शायद ये शेर ही केदार पाण्डेय को राहुल का स्वरूप प्रदान किया |
केदार से राहुल
मेरी जीवन यात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण है कनैला के केदार पांडे का महापंडित राहुल साकृत्यायन में रूपांतरण |
जीवन की यह यात्रा अन्य यात्राओं से कितनी लम्बी है ! कितनी दुर्गम ! कितनी साहसिक ! कितनी रोमांचक ! और कितनी सार्थक !
लेकिन यह यात्रा कोरी '' यात्रा '' नही है और न ही ' यायावरी ' या घुमक्कड़ी ' ! राहुल जी बहुत बड़े घुमक्कड़ थे , इसमें कोई संदेह नही | किन्तु कभी -- कभी लगता है की उन्होंने अपने चारो ओर कवच की तरह घुमक्कड़ी का एक मिथक गढ़ लिया था | केदार पांडे घुमक्कड़ी के कारण महापंडित राहुल साकृत्यायन नही बने ! घुमक्कड़ होने से पहले केदार पांडे घर के भगोड़े थे |
सिद्धार्थ की तरह केदार नाथ भी एक दिन घर से भाग निकले | कारण निश्चय ही और था , लेकिन वह नही जिसका अत्यधिक प्रचार किया है : ' बचपन में '' मैंने नवाजिन्दा बाजीन्दा की कहानी ( खुदाई का नतीजा ) पढ़ी | उसमे बाजीन्दा के मुँह से निकले ''सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहा '' इस शेर ने मेरे मन और भविष्य के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला , यद्धपि वह लेखक के अभिप्राय के बिलकुल विरुद्ध था | '' यह घटना 1903 की है | उस समय केदारनाथकी उम्र दस वर्ष की थी |
'' 1904 की गर्मी चल रही थी | .... बहसा -- बहसी के बाद कई घंटा रात चढ़े तिलक चढा | व्याह भी हो गया | उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह तमाशा था | जब मैं सारे जीवन पर विचारता हूँ तो मालूम होता है , समाज के प्रति विद्रोह का प्रथम अंकुर पैदा करने में इसने पहला काम किया | 1908 ई. में जब मैं 15 साल का था , तभी से मैं इसे शंका की नजर से देखने लगा था , 1909 के बाद से तो मैं गृहत्याग का बाकायदा अभ्यास करने लगा , जिसमे भी इस तमाशे ' का थोड़ा -- बहुत हाथ जरुर था | ... 1909 के बाद घर शायद ही कभी जाता था , 1913 के बाद को तो वह भी खत्म -- सा हो गया , और 1917 की प्रतिज्ञा के बाद तो आजमगढ़ जिले की भूमि पर पैर तक नही रखा |अपनी आत्म कथा '' मेरी जीवन यात्रा '' भाग एक में उन्होंने लिखा है ---- ' उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह '' तमाशा '' था | चार साल बाद ही जब मेरी उम्र 15 वर्ष हुई , तभी मैं '' इस तमाशे '' को शक की नजर से देखने लग गया था | 1909 में अर्थात एक साल बाद ही से मैंने इस बन्धन से निकल भागने के लिए घर को छोड़ देने का संकल्प और प्रयत्न शुरू किया | एक साल और बीतते -- बीतते तो मैंने साफ़ तौर से और निश्चित रूप से यह मानना और कहना शुरू कर दिया कि मेरा विवाह हुआ ही नही | बारह वर्ष की अवस्था से ही उनके मन में घर त्यागने के विचार आने लगे | उन्होंने कई बार गृह -- त्याग का प्रयास किया भी परन्तु परिवार वालो द्वारा पकड लाये जाते | इसी प्रयास में 14 वर्ष की अवस्था में वे कलकत्ता चले गये | जहा से बड़ी मुश्किल से उन्हें लाया गया | काशी के अंग्रेजी स्कूल की मामूली शिक्षा के बाद वे वही संस्कृत का अध्ययन करने लगे | सन 1912 में एक दिन अकस्मात भाग निकले तथा बिहार के सारण जिले के परसा -- मठ में वैष्णव साधू बनकर रहने लगे | कुछ समय बाद वहा के महन्त के उत्तराधिकारी बने तथा वहा उनका नाम राम उदार बाबा पड़ गया | किन्तु वहा भी मन न लगने पर रामानन्दी साधू हो गये तथा रामानन्द एवं रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्तों के गहन अध्ययन के लिए 1913 - 14 में दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े | विद्रोही मन वहा भी नही टिका तो आर्य समाज स्वीकार कर वाराणसी वापस आये तथा संस्कृत व्याकरण एवं काव्य का अध्ययन करने लगे | पुन: 1915 ई. में आगरा भोजदन्त विद्यालय ( आर्य मुसाफिर खाना ) में मौलवी महेश प्रसाद से उर्दू , अरबी एवं लाहौर जाकर फारसी सहित अन्य कई भाषाओं का अध्ययन किया | 1916 ई. में यहाँ की शिक्षा पूरी कर ली | यही पर आजमगढ़ के प्रसिद्ध समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द ( बलदेव चौबे ) से उनकी दोस्ती हुई | राहुल 1916 से 1919 में लाहौर में संस्कृत अध्ययन की दृष्टि से रह रहे थे |इसी दौरान गांधी जी ने 1919 में रौलट एक्ट का विरोध शुरू किया | इसी समय अमृतसर में जालिया वाला बाग़ का खूनी काण्ड भी हुआ | लाहौर में रहने के कारण प्रत्यक्ष राहुल को इन बर्बर घटनाओं की अनुगूज सुनाई पड़ी | उन्होंने आजादी की लड़ाई के नागपुर प्रस्ताव तथा अन्य मसविदो को पढ़ना शुरू किया और स्वंय स्वतंत्रता संग्राम में एक सेनानी के रूप में कूद पड़े | 1921 से 1925 तक राहुल राजनैतिक बंदी के रूप में जेल में रहे | 1922 में इन्हें छ: माह की सजा पर राजनैतिक कैदी के रूप में बक्सर जेल में रक्खा गया | 1923 में ब्रिटिश सरकार विरोधी वक्तव्य देने के कारण उन्हें दो वर्ष की सजा पर हजारीबाग जेल में रक्खा गया | वहा से वो 1925 में मुक्त हुए | इसके बाद राहुल का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर होने लगा |
घुमक्कड़ी जीवन -------- 1927 -- 28 के दौरान वे श्री लंका में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए | वहा वे बौद्ध भिक्षु बन गये तथा पालि भाषा का अध्ययन कर बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर बौद्ध भिक्षु बन गये तथा भगवान बुद्ध के पुत्र '' राहुल '' के नाम को अपने नाम के साथ जोड़ लिया जो न केवल आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा बल्कि पहचान का एक मात्र पर्याय बन गया | उनका मूल गोत्र सांकृत था , अत: उससे अपना तादात्म्य स्थापित करते हुए उन्होंने नाम के आगे बौद्ध परम्परा के अनुसार सांकृत्यायन शब्द भी जोड़ लिया | बौद्ध धर्म ग्रंथो के गहन अध्ययन -- मनन के कारण उन्हें '' त्रिपिटीकाचार्य '' की उपाधि प्रदान की गयी | लंका में उन्नीस माह रहने के बाद बौद्ध धर्म -- ग्रंथो की खोज में वे 1929 में नेपाल होते हुए तिब्बत गये | जहा भीषण कष्टों व बाधाओं को सहते हुए भी अनेक दुर्लभ बौद्ध -- ग्रन्थो की खोज की | राहुल बौद्ध धर्म के प्रचार -- प्रसार हेतु 1932 -- 33 में इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशो की यात्रा पर निकले | 1936 में तिब्बत की तीसरी बार यात्रा करके 1937 में पुन: रूस चले गये | कुछ ग्रन्थो की खोज में 1938 में वे चौथी बार तिब्बत आये वही से वह पुन: सोवियत संघ लौट गये | सोवियत संघ अनेक बार जाने तथा निकट से मार्क्सवाद के प्रभाव को देखने से इनकी रुझान वामपन्थी विचार -- धारा की तरफ हो गयी | भारत आ कर वे पुन: किसानो -- मजदूरो से जुड़ गये तथा 1939 में अमवारी सत्याग्रह के कारण जेल गये | वहा से छूटने के बाद पुन: गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेजे गये | जहा 29 माह तक कारावास में रहे | गृहत्याग के बाद उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी की पचास वर्ष की अवस्था के पहले वे अपने गाँव नही जायेंगे | जिसका पालन करते हुए1943 तक बाहर ही रहे | 1944 से 1947तक लगभग 25 महीने वे सोवियत संघ के लेलिनग्राद विश्व विद्यालय में संस्कृत तथा पालि के प्रोफ़ेसर रहे | वहा उन्होंने एलना से विवाह कर लिया जिससे '' इगोर राहुलोविच्च '' नामक पुत्र का जन्म हुआ | 1947 में जब वे भारत वापस लौटे तो उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन के बम्बई अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया | हिन्दी के प्रश्न को लेकर विवाद हो जाने के कारण उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया | जिसे उन्होंने स्वीकार किया पर राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रश्न पर कोई समझौता उन्हें स्वीकार नही था | सोवियत संघ की तत्कालीन व्यवस्था के कारण वे पत्नी एलना और पुत्र इगोर को भारत नही ला सके | राहुल जी ने मसूरी में हैपीविला के हार्नकिल्प नामक बंगले को खरीदकर वही रहने लगे | अपने एकाकीपन और अपने कार्य में सहयोग के लिए उन्होंने टंकक कमला पेरियार से विवाह कर लिया | जिससे 1953 में पुत्री ज्या तथा 1955 में पुत्र जेता का जन्म हुआ | कमला पेरियार के साथ उनकी तीसरी शादी थी | राहुल जी 1958 में साढे चार माह की यात्रा पर चीन गये | उसी वर्ष '' मध्य एशिया का इतिहास '' नामक उनकी पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्रदान किया गया |1959 में वे कमला जी के अनुरोध पर मसूरी छोड़कर दार्जिलिंग चले गये | उसी वर्ष उन्हें श्री लंका के विश्व विद्यालय में संस्कृत एवं बौद्ध दर्शन विभाग का अध्यक्ष बनाया गया जिस पद पर वे मृत्युपर्यन्त रहे | Inline image 2हिन्दी की सेवा के लिए भागलपुर विश्व विद्यालय ने अपने प्रथम दीक्षान्त समारोह में उन्हें '' डाक्टरेट '' की मांड उपाधि से सम्मानित किया | राष्ट्रभाषा परिषद बिहार ने '' मध्य एशिया का इतिहास '' के लिए पुरस्कृत किया | काशी विद्वत सभा ने उन्हें '' महापंडित '' का अलकरण दिया तो हिन्दी साहित्य सम्मलेन , प्रयाग ने साहित्य वाचस्पति का 26 जनवरी 1961 को भारत सरकार ने पद्दम भूषण का अलंकरण प्रदान किया |
सरस्वती ने अपने हीरक जयन्ती समारोह के अवसर पर मानपत्र देकर सम्मानित किया | जो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को सामने लाता है |मानपत्र में लिखा था ---------- ''आपने इस शती के तीसरे दशक में जब सरस्वती में लेख लिखना प्रारम्भ किया तब आचार्य द्दिवेदी ने साश्चर्य जिज्ञासा की थी कि हिन्दी की यह नवीन उदीयमान प्रतिभा कौन है ? तब से आप बराबर सरस्वती की सेवा करते आ रहे है | आप संस्कृत, हिन्दी और पालि के विद्वान् है | तिब्बती , रुसी और चीनी भाषाओं में निष्ठात है | राजनीति , इतिहास और दर्शन शास्त्र के पंडित है | आपने तिब्बती भाषा में सैकड़ो अज्ञात संस्कृत ग्रंथो का उद्दार किया | हिन्दी के प्रमुख बौद्ध ग्रंथो का अनुवाद कर हिन्दी का भण्डार भरा | '' एशिया का वृहद इतिहास ( भाग एक व दो ) लिखकर हिन्दी के बड़े अभाव को पूरा किया | उपन्यास , कहानी , निबन्ध यात्रा -- साहित्य लिखकर आपने अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया | आपकी निष्ठा हम सबके लिए अनुकरणीय है | आप केवल हिन्दी संसार के ही नही बल्कि सारे देश के गौरव है इस अवसर पर सरस्वती के पुराने लेखक तथा देश के महान पण्डित एवं साहित्यकार के रूप में आपका सम्मान कर हम अपने को गौरवान्वित समझते है | विराट व्यक्तित्व ------ राहुल जी का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा विविधापूर्ण था | कहा जाता है की उन्हें देशी -- विदेशी 36 भाषाओं का ज्ञान था | विभिन्न भाषाओं को सीखने के लिए उन्होंने दिन -- रात परिश्रम किया तथा अनेक कष्ट शे | उन्हें बंजारों की भाषा सीखने के लिए उनकी भैस व मुर्गिया चरानी पड़ी व उनकी मार भी सहनी पड़ी | प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने एक प्रसंग में कहा था '' राहुल जी ने अपना सारा काम चाहे वह पालि सम्बन्धी हो या प्राकृत , अपभ्रंश सम्बन्धी हो या संस्कृत अपनी सारा ज्ञान को हिन्दी में निचोड़ दिया था | '' निराला के शब्दों में कहे तो -- हिन्दी के हित का अभिमान वह , दान वह प्रगतिशीलता का प्रश्न नामक निबन्ध में राहुल जी ने लिखा है | '' आज के साहित्यिक कलाकार या विचारक का लक्ष्य बिंदु जनता होनी चाहिए '' यह जनता उनका लक्ष्य बिंदु ही नही प्रस्थान बिंदु भी था | इसी के बीच से और इसी को ध्याम में रखकर उन्होंने साहित्य के विषय में अपने विचार व्यक्त किये तथा कुछ साहित्यकारों पर मूल्याकनपरक टिप्पणिया की | इस बात की उन्हें कभी चिंता नही रही , कि लोग उन पर प्रचारवादी होने का आरोप लगायेंगे | भाषा के सम्बन्ध में राहुल जी का विचार था की भाषा विशिष्ठ सम्पन्न कुछ लोगो की सर्जना नही है बल्कि जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है | जनता द्वारा गढ़े गये शब्दों , मुहावरों और कहावतो को छोड़कर यदि साहित्य रचना का प्रयास किया गया तो वह साहित्य निष्प्राण होगा | इसे लेकर दो मत नही हो सकते है | यदि लेखक चाहता है कि उसकी भाषा अजनबी न हो उसमे विद्युत् धारा दौड़ती रहे तो उसे जनभाषा से सम्पर्क बनाकर रखना होगा | इसी कारण वे जनपदीय बोलियों के साहित्य और शब्दावली को आगे बढाने के पक्षधर थे |
राहुल जी ने जिस प्रकार की विषम परिस्थितियों में रहकर हिन्दी के सेवा की वह अनुकरणीय है | एक ओर जहा उन्होंने विभिन्न विषयों पर पुस्तके लिखी , वही शासन शब्दकोश , तिब्बती -- हिंदी शब्दकोश जैसे शब्दकोशों का निर्माण तथा तिब्बती , चीनी , रुसी आदि भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद का भी कार्य किया | हिन्दी उनके जीवन में स्थायी - भाव की तरह रची - बसी रही | उन्होंने इस बात को स्वंय भी स्वीकार किया है | '' अन्य बातो के लिए तो मैं बराबर परिवर्तन शील रहा , किन्तु मेरे जीवन में एक हिन्दी का स्नेह ही ऐसा है जो स्थायी रहा है ''
यह एक सामान्य नियम है कि हर महान व्यक्ति की तत्कालीन समाज द्वारा उपेक्षा तथा अवहेलना की जाती है और राहुल जी भी इससे बच नही सके |
डा . मुल्कराज आनन्द ने लिखा है कि मैं रूस के कुछ कवियों को जानता हूँ जिन्होंने राहुल के शब्दों का दाय ग्रहण किया और उनकी वाणी जुल्म के विरुद्द गूंज उठी तथा समतावादी समाज -- निर्माण में सहायक हुई | राहुल के बहुआयामी विलक्षण व्यक्तित्व में बड़ी महानता थी | डा भागवत शरण उपाध्याय के अनुसार वह स्वशिक्षित राहुल नियमित पाठशाला पाठ्यक्रम को तिलांजली देकर संस्कृत से अरबी , फ़ारसी से अंग्रेजी , सिंहली से तिब्बती भाषाओं में भ्रमण करता है | उनमे अदभुत ग्रहण शक्ति थी , जिससे उन्होंने इन भाषाओं के ज्ञान -- भण्डार में घिसी -- पिटी बातो को छोड़कर उनकी मेधावी प्रज्ञा के सर्वश्रेठ सर्वोत्तम और सबसे जटिल सारतत्वों का मधु संचय निचोड़ निकाला ( राहुल स्मृति 427) अन्य सभी बातो को अलग कर दे तो तिब्बत से प्राचीन ग्रंथो की जो थाती राहुल भारत ले आये थे वे ही उनको अमरता प्रदान करने के लिए पर्याप्त है |
राहुल की कहानिया अन्यो की भाँती व्यक्ति की कहानिया नही , अपितु जातियों और युगों की कहानिया है | जैसे अपने दो डग से राहुल ने धरती का कोना -- कोना नाप डाला , उसी प्रकार अपनी अन्तर्प्रज्ञा से उन्होंने 8000 वर्ष के अतीत का भावबोध किया और अपने मांस -- चक्षु से उस कालखण्ड के बदलते युगों के नर -- नारी , परिवार -- समाज , गण -- समूह और राजशाही
सामन्तशाही , खान -- पान एवं संस्कृतियों का प्रत्यक्ष दर्शन किया | आधुनिक युग में केवल वे ही ऐसे अधिकारी व्यक्ति थे जो यह साधिकार कह सकते थे कि पिछले आठ हजार वर्षो के इतिहास को मैं अपनी आँखों से स्पष्ट देख रहा हूँ | इसी विराट दृष्टि का दर्शन उनकी '' वोल्गा से गंगा '' की बीस कहानियों में देखने को मिलता है |
'' वोल्गा से गंगा की कहानियों का फलक अन्तराष्ट्रीय है | मध्य एशिया से वोल्गा नदी के तटवर्ती भू -- क्षेत्र से एशिया के ऊपरी भू -- भाग , पामीर के पठार , ताजकिस्तान , अफगानिस्तान -- ग्नाधार ( कंधार ) कुरु , पंचाल , श्रास्व्ती , अयोध्या ,नालंदा , कन्नौज , अवन्ती ( मालवा ) दिल्ली , हरिहर क्षेत्र , मेरठ , खनु पटना के विस्तृत भू - खण्ड और 6000 ई . पूर्व से लेकर 1942 ई की भारतीय सवतंत्रता की महाक्रान्ति तक के कालखण्ड को इसमें समेटा गया है | इस संग्रह में बीस कहानिया है जो सभी अपने में स्वतंत्र है पर वे कमश: एक ऐतिहासिक विकास का चित्र प्रस्तुत करती है जिसमे आर्य जाति के विकास की कथा अंकित है |
'' मराठी लेखक डा प्रभाकर ताकवाले इन कहानियों के सम्बन्ध में लिखते है :
'' वोल्गा से गंगा '' प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक ललित -- कथा संग्रह की एक अनोखी कृति है | हिन्दी साहित्य में इतना विशाल आयाम लेकर लिखी यह प्रथम कृति है ----- कामायनी में प्रसाद जी लाक्षणिक अवगुठन के प्रेमी होने के कारण उतने सुलझे हुए नही लगते , जितने राहुल जी '' वोल्गा से गंगा '' में है | राहुल जी आम आदमी की ऊँगली पकड़कर ठीक ''आदम और इव '' तक पाठको को ले गये है --- यह अदभुत कहानी -- संग्रह एक नई दुनिया एक मटिरियल इन्टरप्रटेशन आफ हिस्ट्री -- हमारे सामने उपस्थित करता है | कला , इतिहास , समाजशास्त्र , भूगोल , राजनीति , विज्ञान , दर्शन और न जाने कितने ज्ञान -- विज्ञानों के अंगो का दोहन इन कहानियों में हमे मिलता है ( राहुल स्मृति पृष्ठ 167 )
राहुल जी का एक पुराना कहानी संग्रह '' सत्तमी के बच्चे '' है इसकी कहानिया भी उपयुक्त दोनों कहानी संग्रहों के सांचे में ढली है | इसमें राहुल जी ने अपने ननिहाल '' पन्दहां ग्राम की बाल स्मृतियों को कथा के रूप में चित्रित किया है | सत्तमी के बच्चे संग्रह की सबसे मार्मिक कहानी '' सत्तमी के बच्चे ही है | उस गाँव की सत्तमी अहिरिन की दयनीय आर्थिक स्थिति का चित्रण किया गया है जो अपने बच्चो को भर पेट भोजन और दवा तक का प्रबन्ध नही कर पाती है और उसके चार बच्चे अकाल ही काल कलवित हो जाते है |
'' डीहबाबा '' की कहानी में जीता भर के माध्यम से भर जाती की कर्मठता और स्वामिभक्ति के साथ उनकी दयनीय स्थिति का चित्रण किया है |
'' पाठक जी '' उनके नाना का चरित्रगत संस्मरण है और पुजारी जी इसी प्रकार का उनके पिता जी का संस्मरण है | इनका भी उद्देश्य उच्च वर्ग की ब्राह्मण जाती की ठसक और मिथ्या अंह भावना के साथ उनकी भी गरीबी का चित्रण करना है | ''जैसिरी भी पन्दहां के ही एक सच्चे चरित्र है जिनमे अदभुत प्रतिभा थी | पर गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी प्रतिभा का विकास नही हो पाया | दलसिंगार राहुल जी के रिश्ते में पड़ने वाले नाना थे | ...........उनके रोचक स्मरण इसमें है | स '' सतमी के बच्चे '' कहानी संग्रह में पात्रो के जीवन संघर्ष और आर्थिक संघर्ष को चित्रित किया गया है | एक प्रकार से एक छोटे ग्राम्य जीवन के पट पर बुनी गयी ये कहानिया विश्व के विशाल फलक पर चित्रित होने वाली '' वोल्गा से गंगा '' की कहानियों की एक पृष्ठभूमि है |
इस दृष्टि से चार कहानी संग्रहों के साथ उन्होंने नौ उपन्यास ------
1--- बाईसवी सदी 1923 -- 2--जीने के लिए 1940 -- 3 सिंह सेनापति 1944--- 4 -- जय यौधेय 1944 -- 5 -- भागो नही , दुनिया को बदलो 1944 -- 6-- मधुर स्वपन 1944 - 7 -- राजस्थानी रनिवास 1953 -- 8 -- विस्मृत यात्री 1954 --- 9 -- दिवोदास 1960 -- 10 -- निराले हीरे की खोज 1965 -- इनमे '' बाईसवी सदी ' और ' भागो नही दुनिया को बदलो ' में औपन्यासिक तत्व तो है पर वस्तुत: ये साम्यवाद के परचार्थ लिखी गयी पुस्तक है जिनका साहित्यिक दृष्टि से कम राजनितिक विचार धारणा की दृष्टि से अधिक महत्व है |
अपने वैचारिक परिवर्तन की दिशाओं का संकेत तो उनकी जीवन -- यात्रा के पृष्ठों पर मिलता ही है , साथ ही वे अपनी दुर्बलताओ को भी बेबाक ढंग से उसमे प्रगत करते चलते है | उसमे छिपाव और दुराव का बराबर अभाव मिलता है | वे अपनी सीमाओं को भी प्रगत करते है : वे व्यवहार में विनम्र एवं मृदुभाषी अवश्य थे पर अपनी वैचारिक मान्यताओं में इतने दृढ थे की उसमे अव्यवहारिकता का दोष लगना स्वाभाविक था ( खंड 4 पृष्ठ 449 ) राहुल जी के सर्जनात्मक साहित्य में कथा और यात्रा साहित्य के पश्चात उनके जीवनी साहित्य का स्थान माना जा सकता है | हिन्दी में जब जीवनी साहित्य का अभाव था , उस काल के प्रमुख जीवनी लेखको में उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है |
इस प्रकार हम यह कह सकते है की राहुल दर्शन , पुरातत्व और इतिहास के क्षेत्र में भी मौलिक लेखक है जो अनुसन्धान के लिए संदर्भ सामग्री छोड़ गये है | उनके विचारों से सहमत होना न सहमत होना , दूसरी बात है पर उनके ज्ञान का उपयोग तथा उन पर आगे कार्य करना विद्वत -- जगत की महती आवश्यकता है | हमे गर्व है राहुल सर्व समाज और सम्पूर्ण दुनिया के तो थे है पर उनकी जन्मभूमि हमारे पास है | हम आभारी है जायसी के हस्ताक्षर डा कन्हैया सिंह जी का जिन्होंने राहुल जी पे लिखने के लिए मुझे सामग्री उपलब्ध कराई |
-सुनील दत्ता स्वतंत्र विचारक व पत्रकार

एक्स रेज के अविष्कारक -------- विल्हेलम कानराड रौटजन

एक्स रेज ( यानी एक्स किरणों ) का नाम जनसाधारण भी जानता है | इसका उपयोग चिकित्सा शास्त्र से लेकर अन्य दुसरे क्षेत्रो में भी बढ़ता जा रहा है | इसका आविष्कार प्रोफ़ेसर विल्हेलम कानराड रौटजन अपनी प्रयोगशाला में वैकुअम ट्यूब ( हवा निकालकर पूरी तरह से खाली कर दिए ट्यूब ) में बिजली दौड़ाकर उसके वाहय प्रभावों को देखने के लिए प्रयोग कर रहे थे | खासकर वे इस ट्यूब से निकलने वाले कैथोड किरणों का अध्ययन करनी चाहते थे | इसके लिए उन्होंने ट्यूब को काले गत्ते से ढक रखा था | जिससे उसकी रौशनी बाहर न जाए | प्रयोग के पूरे कमरे में अन्धेरा कर रखा था , ताकि प्रयोग के परिणामो को स्पष्ट देखा जा सके | ट्यूब में बिजली पास करने के बाद उन्होंने यह देखा कि मेज पर ट्यूब से कुछ दुरी पर रखा प्रतिदीप्तीशील पर्दा चमकने लगा |
रौटजन के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा | उन्होंने ट्यूब को अच्छी तरह से देखा | वह काले गत्ते से ढका हुआ था | साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि ट्यूब के पास दूसरी तरफ पड़े बेरियम प्लेटिनोसाइनाइड के कुछ टुकड़े भी ट्यूब में विद्युत् प्रवाह के साथ चमकने लग गये है | रौटजन ने अपना प्रयोग कई बार दोहराया | हर बार नलिका में विद्युत् प्रवाह के साथ उन्हें पास रखे वे टुकड़े और प्रतिदीप्ती पर्दे पर झिलमिलाहट नजर आई | वे इस नतीजे पर पहुचे कि ट्यूब में से कोई ऐसी अज्ञात किरण निकल रही है , जो गत्ते की मोटाई को पार कर जा रही है | उन्होंने इस अज्ञात किरणों को गणितीय चलन के अनुसार एक्स रेज का नाम दे दिया | बाद में इसे रौटजन की अविष्कृत किरने रौटजन रेज का नया नाम दिया गया | लेकिन तब से आज तक रौटजन द्वारा दिया गया ' एक्स रेज ' नाम ही प्रचलन में है | बाद में रौटजन ने एक्स रेज पर अपना प्रयोग जारी रखते हुए फोटो वाले खीचने वाले फिल्म पर अपनी पत्नी अन्ना बर्था -- का हाथ रखकर एक्स रेज को पास किया | फोटो धुलने पर हाथ की हड्डियों का एकदम साफ़ अक्स फोटो फिल्म पर उभर आया | साथ में अन्ना बर्था के उंगलियों की अगुठी का भी अक्स आ गया | मांसपेशियों का अक्स बहुत धुधला था | फोटो देखकर हैरान रह गयी अन्ना ने खा कि मैंने अपनी मौत देख ली ( अर्थात मौत के बाद बच रहे हड्डियों के ढाचे को देख लिया | एक्स रेज के इस खोज के लिए रौटजन को 1901में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के लिए निर्धारित पहला नोबेल पुरूस्कार मिला | रौटजन ने वह पुरूस्कार उस विश्व विद्यालय को दान कर दिया | साथ ही उन्होंने अपनी खोज का पेटेन्ट कराने से भी स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि वे चाहते है कि इस आविष्कार के उपयोग से पूरी मानवता लाभान्वित हो | रौटजन का जन्म 27 मार्च 1845 में जर्मनी के रैन प्रांत के लिनेप नामक स्थान पर हुआ था | उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हालैण्ड में हुई तथा उच्च शिक्षा स्विट्जरलैंड के ज्युरिच विद्यालय में हुई थी | यही पर उन्होंने 24 वर्ष की आयु में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की | वह से निकलकर उन्होंने कई विश्व विद्यालय में अध्ययन का कार्य किया | 1888 में वे बुर्जवुर्ग विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफ़ेसर नियुक्त किये गये | यही पर 1895 में उन्होंने एक्स रेज का आविष्कार किया | 1900 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय चले गये | वह से सेवा निवृत्त होने के बाद म्यूनिख में 77वर्ष की उम्र में इस महान वैज्ञानिक की मृत्यु हो गयी | जीवन के अंतिम समय में उन्हें ऑटो का कैंसर हो गया था | आशका जताई जाती है कि उन्हें यह बीमारी एक्स रेज के साथ सालो साल प्रयोग के चलते हुई थी |
=सुनील दत्ता

ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान

' जिन्दगी कैसी है पहेली , कभी तो हंसाये कभी ये रुलाये कभी देखो मन नही चाहे पीछे -- पीछे सपनों के भागे एक दिन सपनो का राही चला जाए सपनों के आगे कहा
जीवनके इस फलसफे की अभिव्यक्ति देने वाले मन्ना डे संगीत की दुनिया को अलविदा कह गये | कलकत्ता महानगर के उत्तरी इलाके का हिस्सा जो एक ओर चितरजन एव्नु और दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द स्ट्रीट से घिरा है | हेदुआ के नाम से जाना जाता है जहा आज भी नूतन के साथ पुरातन के दर्शन होते है | हेदुआ के इस सडक का नाम शिमला स्ट्रीट है -- शिमला स्ट्रीट की एक गली मदन बोसलेन की गलियों की पेचीदा सी गलिया चंद दरवाजो पर पैबंद भरे टाटो के पर्दे और धुंधलाई हुई शाम के बेनाम अँधेरे सी गली से इस बेनूर से शास्त्रीय संगीत के चिरागों की शुरुआत होती है एक भारतीय दर्शन का पन्ना खुलता है और प्रबोध चंद डे ( मन्ना डे ) का पता मिलता है | 1 मई 1920 को श्री पूर्ण चन्द्र डे व महामाया डे के तीसरे पुत्र प्रबोध चन्द्र डे के रूप में जन्म लिया | बाल्यकाल में प्रबोध को लोग प्यार से मन्ना कह के बुलाते थे | मन्ना दा के घर का माहौल सम्पूर्ण रूप से संगीतमय था | उनके चाचा श्री के सी डे स्वंय बड़े संगीतकार थे इसके साथ ही उस घर में बड़े उस्तादों का आम दरफत था जिसका गहरा असर मन्ना के बाल मन पर पडा उसका असर बहुत ही गहरा था | हेदुआ स्ट्रीट के एक किनारे खुबसूरत झील थी लार्ड कार्व्लिस नाम से और दूसरी ओर स्काटेज क्रिश्चियन स्कूल उसी में इसकी शिक्षा दीक्षा हुई | मन्ना दा अपने कालेज के दिनों में अपने दोस्तों के बीच गाते थे | इसी दरमियाँ इंटर कालेज संगीत प्रतियोगिता हुई उसमे मन्ना दा ने तीन वर्ष तक सर्वश्रेष्ठ गायकी का खिताब अपने नाम कर लिया | यही संगीत प्रतियोगिता मन्ना डे के जीवन का पहला टर्निग प्वाइंट है | इसके बाद ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी अपने चाचा संगीतकार श्री के सी डे के चरणों मैं बैठकर अपनी संगीत साधना की शुरुआत की और अपने संगीत को दिशा देने लगे | मन्ना डे के बड़े भाई प्रणव चन्द्र डे तब तक संगीतकार के रूप में स्थापित हो चुके थे | दुसरे बड़े भाई प्रकाश चन्द्र डे डाक्टर बन चुके थे और मन्ना के पिता अपने तीसरे बेटे को वकील बनाना चाहते थे | पर नियति के विधान ने तो तय कर दिया था कि प्रबोध चन्द्र डे को मन्ना डे बनना है | ताल और लय , तान और पलटे , मुरकी और गमक का ज्ञान उनके प्रथम गुरु के सी डे से मिला | इसके साथ ही विकसित हुआ गीत के शब्दों के अर्थ और भाव को मुखरित करने की क्षमता इसके साथ ही मिला अपने चाचा जी की आवाज का ओज और तेजस्विता , स्वर में विविधता सुरों का विस्तार उन पर टिकने की क्षमता ये सम्पूर्णता मन्ना दा ने अपने साधना से प्राप्त किया | नोट्स लिखने का ज्ञान मन्ना ने अपने बड़े भाई प्रणय दा से प्राप्त किया | इसके साथ ही अपने चाचा के सी डे के साथ संगीत सहायक के रूप में कार्य करते हुए युवक मन्ना के जीवन में एक नई करवट ली 1942 में मन्ना दा बम्बई आ गये और यहाँ के सी दास और एस डी बर्मन को भी असिस्ट करने लगे | अब वो स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशक बनना चाहते थे उन्होंने बहुत सारी फिल्मो में अपना संगीत भी दिया | परिस्थितियों की प्रतिकूलता अक्सर आदमी के इरादों को तोड़ता है युवक मन्ना भी ऐसी मन: स्थिति से गुजर रहे थे | '' हँसने की चाह ने मुझको इतना रुलाया है '' हताशा और मायूसी से जूझते हुए मन्ना ने यह सोचा होगा कि वो समय भी आयेगा जब सम्पूर्ण दुनिया में मेरे गाये गीत लोग गुनगुनाएगे | उन्होंने अपना कार्य करते हुए शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अब्दुल रहमान व उस्ताद अमानत अली खान साहब से शात्रीय संगीत सिखने का कर्म जारी रखा | 1953 में मन्ना दा की जीवन में दो टर्निग प्वाइंट आता है वही से ये संगीत का सुर साधक अपनी संगीत की यात्रा पर बे रोक टोक आगे की ओर अग्रसर होता है | प्रथम प्वाइंट इनका सुलोचना कुमारन से विवाह करना और दूसरा वो संगीत का इतिहास बनाने वाला तवारीख जब वो राजकपूर जी के लिए अपनी आवाज देते है वही से मन्ना दा की एक नई संगीत यात्रा की शुरुआत होती है |
राजकपूर की फिल्म '' बुट्पालिश '' के गीत से जहा मन्ना दा से दुनिया की तरक्की के लिए नई सुबह का आव्हान करते है '' रात गयी फिर दिन आता है इसी तरह आते -- जाते ही ये सारा जीवन जाता है ये रात गयी वो नई सुबह आई '' से मानव जीवन में आशावाद की एक नई किरण को जन्म देता है वही पर प्यार का इकरार भी करना जानता है '' आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम से मिले वीराने में भी आ जायेगी बहार '' '' प्यार हुआ इकरार हुआ फिर प्यार से क्यु डरता है दिल '' गाकर नौजवानों को प्यार की परिभाषा पढाते हुए आगे निकल आते है | शंकर जयकिशन ने ख्याति लब्ध पंडित भीमसेन जोशी के साथ इनकी संगत भी कराई |
जो प्रसिद्धि मन्ना दा को बंगला फिल्म जगत से मिला वो हिन्दी फिल्म जगत से कम था या अधिक यह कहना बहुत कठिन है | एक सवाल खड़ा होता है कि मन्ना ने बंगला फिल्म जगत को छोड़कर मुम्बई का रुख क्यों किया | मुंबई आने के बाद ही मन्ना का हर स्वरूप का एक्सपोजर हुआ मन्ना का अगला दौर एक अनोखा दौर था जहा पर मन्ना ने भारतीय भाषाओ में गीत गाये उर्दू में गजल , उडिया , तेलगु , मलयालम , कन्नड़ , भोजपुरी और बंगला भाषाओ में इस विविधता के कारण मन्ना दा को एक न्य फ्रेम मिला | एक और सवाल की पाश्वर गायकी के साथ ही मन्ना दा ने गैर फ़िल्मी गीतों को गाया है | जिसके अंदाज बड़े निराले है '' सुनसान जमुना का किनारा प्यार का अंतिम सहारा चाँदनी का कफन ओढ़े सो रहा किस्मत का मारा किस्से पुछू मैं भला अब देखा कही मुमताज को मेरी भी एक मुमताज थी | दूसरी तरफ अपने गैर फिल्मो से नारी संवेदनाओं का एक ऐसा दर्शन दिया '' सजनी -------- नथुनी से टूटा मोती रे धुप की अगिया अंग में लागे कैसे छुपाये लाज अभागी मनवा कहे जाए भोर कभी ना होती रे
मन्ना डे ऐसे फनकार थे जो कामेडियन महमूद के लिए भी गाते थे और हीरो अशोक कुमार के लिए भी चाहे वो शास्त्रीय संगीत हो या किशोर कुमार के साथ '' फिल्म पड़ोसन '' की जुगल बंदी चाहे वो एस डी बर्मन , रोशन या शंकर जयकिशन सभी ने उनके हुनर को सलाम किया | मन्ना साहब ने जिन किरदारों के लिए गीत गाये वो किरदार इतिहास के पन्नो पर दस्तावेज बन गये | फिल्म '' उपकार '' में प्राण ने उसमे मलंग बाबा की सकारत्मक भूमिका की और मलंग बाबा एक गीत गाता है
'' कसमे वादे प्यार वफा सब बाते है बातो का क्या कोई किसी का नही ये झूठे नाते है नातो का क्या इस गीत ने प्राण का पूरा किरदार ही बदल दिया और मलंग बाबा हिन्दी सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया | 1971 मन्ना डे को पद्म श्री से सम्मानित किया गया 2005 में पदम् भूषण से नवाजा गया और इस सुर साधक को 2007 में दादा साहेब फाल्के एवार्ड से समानित किया गया | आज ये सुर साधक चिर निद्रा में विलीन हो गया यह कहते हुए
गानेर खाताये शेशेर पाताये एई शेष कोथा लिखो एक दिन -- आमी झिलाम तार पोरे कोनो खोज नेई | इस सुर साधक को शत शत नमन
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

भडका रहे हैं आग लब-ए-नग़्मगर से हम , ख़ामोश क्यों रहेंगे ज़माने के डर से हम -- साहिर

' मेरे सरकश तराने सून के दरिया ये समझती है कि शायद मेरे दिल को इश्क के नगमो से नफरत है '' साहिर एक बेमिशाल अल्फाजो का जादूगर , तरक्की पसन्द इंकलाबी शायर जिनके दिलो -- दिमाग में गूजता रहता कि ये दुनिया कैसे खुबसूरत बने | एक फनकार सिर्फ अदब और अदीब की दुनिया में रहते हुए वो अपने हर हर्फो में जिन्दगी के मायने तलाशते हुए वर्तमान के साथ सवाल खड़ा करता है कि जीवन को कैसे जिया जाए वह आने वाले कल के महरलो से अवगत कराता है | ऐसी ही इस दुनिया में एक अजीम हस्ती थी साहिर लुधियानवी उस बेनजीर शक्सियत का असली नाम अब्दुल हयी साहिर था | 8 मार्च 1921 को लुधियाना के एक जागीरदार घराने में उनकी पैदाइश हुई थी | साहिर का बचपन बहुत ही कड़े संघर्षो से भरा पड़ा था कारण कि उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी जिसके चलते साहिर की माँ ने घर छोड़ दिया और अपनी जिन्दगी जीने के लिए रेलवे लाइन के किनारे झोपड़ पट्टी में रहकर अपने सहारे को मजबूत इरादे वाला बनाने के लिए मेहनत - मजदूरी करने लगी | साहिर का बचपन इन्ही रेलवे लाइनों के किनारे गुजर रहा था जहा पर वो देखते कि लाइनों के बीच औरते और बच्चे कोयला और कचरा बीनते रहते साहिर ने पूरा बचपन जीवन के संघर्ष को बड़े नजदीक से देखा , तभी वो बोल पड़े '' कसम उन तंग गलियों की वह मजदुर रहते है '' इन्ही झंझावतो के बीच लुधियाना के खालसा स्कूल में साहिर ने अपनी शिक्षा की शुरुआत की और माध्यमिक की शिक्षा पूरी करते हुए अपनी शेरो -- शायरी को परवान चढाते रहे | उन हालातो से लड़ते हुए साहिर लिखते है '' आज से मैं अपने गीतों में आतिश - पारे भर दूंगा माध्यम लचीली तानो में सारे जेवर भर दूंगा जीवन के अंधियारे पथ पर मशाल ले के निकलू धरती के फैले आँचल में सुर्ख सितारे भर दूंगा "" ऐसी सुलगती आग से उस इंकलाबी शायर का एक नया चेहरा सामने आता है | 1939 में साहिर ने गवर्मेंट कालेज में स्नातक की शिक्षा के लिए दाखिओला लिया | तब तक साहिर के नज्मो और शायरी की चर्चा पूरे भारत में फ़ैल चुकी थी | उसी कालेज में उस दरमियान अमृता प्रीतम भी अपनी पढ़ाई पूरी कर रही थी और वो साहिर के शेरो -- शायरी की बहुत बड़ी प्रशंसक थी और अमृता के दिल की धरती पर साहिर के प्यार भरे नज्म अंकित हो चला था | अमृता छात्र जीवन में ही साहिर से प्यार करने लगी थी और साहिर का भी झुकाव उनकी तरफ हो चुका था | अमृता के दिल पर साहिर के नज्म अपना नाम लिखने लगे और अमृता ने अपना दिल साहिर के हवाले कर दिया | पर साहिर से प्यार करना अमृता के घर वालो को रास नही आया कारण था धन और वैभव जो साहिर के पास नही था अगर था कुछ तो अदब और अदीब का खजाना उसको कौन देखता है इसके साथ ही इन दोनों तरक्की पसंद प्रेमियों के आडे आया धर्म की दीवार जिसको ये लोग तोड़ नही पाए जिसके चलते अमृता को उनका प्यार नसीब नही हुआ जिसके हर पन्नो पर अमृता ने पूरी इबारत लिख दी | उसी वक्त वो इंकलाबी शायर अपने दिल के जज्बात को लिखते हुए कहता है '' मैंने जो गीत तेरे प्यार की खातिर लिखे आज उन गीतों को बाजार में ले आया हूँ आज दूकान में नीलाम उठेगा उनका हमने जिन गीतों पर रक्खी थी मुहब्बत की अशार आज चाँदी के तराजू पे तुलेगी हर चीज मेरे अशरार , मेरी शायरी , मेरा एह्साह '' साहिर के शायरी में जहा आम आदमी के संघर्षो के लिए निकले शब्दों की अभिव्यक्ति धधकती ज्वाला नजर आती है वही पर एक प्यार भरा मासूम दिल भी नजर आता है जहा प्यार के रूमानियत से भरे अलफ़ाज़ यह एह्साह दिलाते है कि भोर में पड़ी फूलो और पत्तो पर गिरी ओस की बुँदे सूरज के रौशनी पड़ते ही शबनम की मोतिया बनी बिखरी होती है जिसके एक -- एक कण से प्यार के नये एह्साह के साथ ही विद्रोह का स्वर फूट पड़ा हो | जो एक नई दुनिया को न्य प्रकाश दे रहा हो | लुधियाने में साहिर ने घर चलाने के लिए छोटे -- मोटे काम किये उसके बाद वो 1943 में लाहौर आ गये | उसी वर्ष उनके नज्मो का संग्रह '' तल्खिया '' छपी इसके छपते ही साहिर की ख्याति बड़े शायरों में होने लगी | तल्खिया में वो लिखते है कि
ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़तही सही तुझको इस वादी-ए-रंगींसे अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा तो दूसरी तरफ चलो इक बार फिर से अज़नबी बन जाएँ हम दोनों
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखो दिलनवाज़ी का न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से न मेरे दिल की धड़कन लडखडाये मेरी बातों से न ज़ाहिर हो हमारी कशमकश का राज़ नज़रों से तुम्हे भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी स मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराये हैं मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माजी की तुम्हारे साथ में गुजारी हुई रातों के साये हैं |
1945 में प्रसिद्ध उर्दू पत्र '' अदब - ए तारिक '' और शाहकार ( लाहौर ) के सम्पादक बने | उन्होंने अपने सम्पादन काल में इन दोनों पत्रों को बुलन्दियो पर पहुचाया | वो वक्त तरक्की पसन्द और जंगे आजादी केदौर से गुजर रहा था भला साहिर का इंकलाबी शायर चुप कैसे रहता और उन्होंने कहा कि --------
ख़ून अपना हो या पराया हो नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है खेत अपने जलें या औरों के ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है साहिर के इन गहरी अभिव्यक्ति से आम समाज की पीड़ा झलकती है साहिर के इन जज्बातों पे महान साहित्यकार और फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास की कलम कुछ यू बया करती है साहिर के पिछले कल को '' एक मौके पर सर सैयद अहमद खा ने कहा था कि अगर खुदा ने मुझसे पूछा कि दुनिया तुमने क्या काम किया , तो मैं जबाब दूंगा कि मैंने ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली से '' मुस्द्द्से हाली '' लिखवाई | इसी तरह जो ऐतिहासिक तौर से उपयोगी साबित हुई , तो वह एक खुली चिठ्ठी थी , जो मैंने 1948 में साहिर लुधियानवी के नाम लिखी थी | साहिर उस वक्त पाकिस्तान चले गये थे | यह खुला ख़त साहिर लुधियानवी के नाम था , मगर उसके जरिये मैं उन सब तरक्की -- पसंदों को आवाज दे रहा था जो फसादों के दौरान यहाँ से हिजरत कर गये थे | तीन महीने बाद मैं हैरान रह गया , जब मैंने साहिर लुधियानवी को मुंबई में देखा | उस वक्त तक मैं साहिर से निजी तौर पर ज्यादा वाकिफ न था , लेकिन उनकी नज्मो खासतौर पर '' ताजमहल '' का मैं कायल था , और इसी लिए मैंने वह '' खुली चिठ्ठी '' साहिर के नाम लिखी थी | जब साहिर को मैंने मुंबई में देखा , तो मैंने कहा , '' आप तो पाकिस्तान चले गये थे ? '' उन्होंने विस्तार पूर्वक बताया कि जब मेरा ख़त उन्होंने अख़बार में पढ़ा , तो वह दुविधा में थे | पचास प्रतिशत हिन्दुस्तान आने के हक़ में और पचास प्रतिशत पाकिस्तान में रहने के हक़ में थे | मगर मेरी '' खुली चिठ्ठी '' ने हिन्दुस्तान का पलड़ा भारी कर दिया और वह हिन्दुस्तान वापस आ गये और ऐसे आये कि फिर कभी पाकिस्तान न गये हालाकि वह भी उनके चाहने वाले वालो और उनकी शायरी को चाहने वालो की कमी न थी | उस वक्त से एक तरह की जिम्मेदारी साहिर को हिन्दुस्तान बुलाने के बाद मेरे कंधो पर आ पड़ी | फ़िल्मी दुनिया में इंद्रराज आनन्द ने उन्हें अपनी कहानी '' नौजवान '' के गाने लिखने के लिए कारदार साहब और निदेशक महेश कॉल से मिलवाया और पहली फिल्म में ही साहिर ने अदबी शायरी के झंडे गाड दिए | फिल्म नौजवान के गीत ने साहिर को हिन्दी सिनेमा में स्थापित कर दिया और उन्होंने हिन्दी सिनेमा को ऐसे गीतों की माला से सजाया जो आज की तवारीख में इतिहास बन के खड़ा है | '' रात भी है कुछ भीगी- भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम-मद्धम तुम आओ तो आँखें खोले, सोई हुई पायल की छम-छम किसको बताएँ, कैसे बताएँ, आज अजब है दिल का आलम चैन भी है कुछ हलका-हलका, दर्द भी है कुछ मद्धम-मद्धम ''
तुम न जाने किस जहाँ में खो गए हम भरी दुनिया में तनहा हो गए मौत भी आती नहीं, आस भी जाती नही दिल को यह क्या हो गया, कोई शैय भाती नही लूट कर मेरा जहाँ, छुप गए हो तुम कहाँ
साहिर ने फिल्मो में भी अपनी अदबी शायरी को बनाये रखा और यह कह कि
''न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो ग़मों का दौर भी आये तो मुस्कुरा के जियो न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो
घटा में छुपके सितारे फ़ना नहीं होते अँधेरी रात में दिये जला के चलो न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो ''
उस दिन जब साहिर अपनी आखरी सांसे ले रहे थे तब भी उन्होंने अपनी रविश न छोड़ी | जो भी लिखा , वह एक शायर के जज्बात और एहसासों की नुमाइंदगी करता था | कभी उन्होंने अपना कलात्मक मियर न गिरने दिया | बला की लोकप्रियता नसीब हुई साहिर को | उसमे उर्दू जुबान की लताफत , मिठास , हसन और जोर का भी दखल था , और उस जुबान के सबब से हस्सास और नाजुक - मुजाज और रंगीले शायर की सृजन का भी दखल था , जो उस जुबान का एक ही वक्त में आशिक भी था और माशूक भी | आशिके -- सादिक इस लिहाज से कि वह उस वक्त उस जुबान पर मोहित थे | साहिर उर्दू के लिए बहुत सी परेशानियों का सामना किया और उसके अस्तित्व के लिए लड़ते भी रहे माशूक इन मायनो में कि उस जुबान ने जितनी छुट साहिर को दे राखी थी उतनी किसी और शायर को नही दी थी | साहिर ने जितने तजुर्बात शायरी की वह किसी ने कम किये होंगे | उन्होंने सियासी शारी भी की है रोमानी शायरी भी की | किसानो और मजदूरो की बगावत का ऐलान भी किया ऐसी शायरी भी की जो त्ख्लिकी तौर से पैगम्बरी की सरहदों को छू गयी और ऐसी शायरी भी की जिसमे रंगीन मिजाजी और शोखी झलकती दिख जायेगी | फ़िल्मी शायरों को एक अदबी मियार सबसे पहले साहिर ने ही दिया उन्होंने फिल्म देखने वालो के जोक को न सिर्फ उंचा उठाया , बल्कि एक सच्चे शायर की तरह कभी आवामी मजाक को घटिया न समझा , वरन '' मैं पल दो पल का शायर हूँ '' और '' कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए "" जैसे गीत लिखकर दुसरो को रास्ता दिया |
आज उस अजीम हस्ती शायर साहिर की पुण्यतिथि पर मेरा नमन
सुनील दत्ता -- स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
इसके कुछ अंश ख्वाजा अहमद अब्बास के संस्मरण से लिए गये है